MA-AIHCA - INDIAN EPIGRAPHY 105


 SUBJECT : INDIAN EPIGRAPHY


कोर्स :- एमए - प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्वशास्त्र

सेमेस्टर : – प्रथम, विषय :- भारतीय अभिलेख विज्ञान (Indian Epigraphy)



अध्याय 1 :- अभिलेखों के आधार पर इतिहास लेखन, अभिलेखों के गुण और दोष, संवत – विक्रम, गुप्त, शक, गुप्त-वल्लभी, कालचुरी-चेदी काल


अध्याय 2 :- निम्नलिखित अभिलेखों के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व

) अशोक का 13वां शिलालेख (सब्जगढ़ी संस्करण)

) अशोक का 7वां स्तम्भलेख (दिल्ली-टोपरा संस्करण)

) सारनाथ स्तम्भ अभिलेख

) रुम्मिनदेई स्तम्भ अभिलेख

) गुजर्रा शिलालेख

) पनगुड़रिया अभिलेख


अध्याय 3 :- निम्नलिखित अभिलेखों के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व

) हेलिओडोरस का बेसनगर गरुड़ स्तम्भ अभिलेख

) खारवेल का हाथीगुम्पा अभिलेख

) पतिक का तक्षशिला ताम्र पत्र अभिलेख

) कनिष्क-II का आरा (पंजाब) अभिलेख

) वाशिष्ठी पुत्र पुलुमावी के वर्ष 19 का नासिक अभिलेख

) रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख


अध्याय 4 :- निम्नलिखित अभिलेखों के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व

) समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख (इलाहाबाद)

) चन्द्र का महरौली लौह स्तम्भ अभिलेख

) प्रभावती गुप्त के पूना ताम्र पत्र

) कुमारगुप्त - बंधुवर्मा का दशपुर स्तम्भ अभिलेख


अध्याय 5 :- ) ग्वालियर का चतुर्भुज मंदिर अभिलेख (वैलाभट्ट स्वामिन)

) मिहिरभोज का ग्वालियर अभिलेख

) ग्वालियर के महिपाल का सास बहू मंदिर अभिलेख (पद्मनाथ मंदिर)









-: अध्याय 1 :-



प्रश्न : अभिलेख क्या होता हैं?

ऐतिहासिक दृष्टिकोण में अभिलेख किसी पत्थर या धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर स्थायी रूप से लिखवाये गए संदेश होते हैं, मुख्य रूप से ये संदेश इतिहास की किसी महत्वपूर्ण घटना, दान, निर्माण, या युद्ध विजय, वंशावली, प्रशस्ति इत्यादि का निरूपण होते हैं (हालाँकि अशोक के अभिलेख का विषय विरल हैं)


मिट्टी के बर्तनो, ताम्रपत्र, सिक्को पर लिखित सामग्री भी अभिलेखो के दायरे में ही आती हैं, अभिलेखों के संदेश सामान्यत: बहुत सीमित रहते हैं, इसीलिए दस्तावेजो जैसे, चमड़े, भोजपत्र या ताड्पत्र इत्यादि पर लिखे संदेश पाण्डुलिपि (manuscript) की श्रेणी में आते हैं। सिक्के चूंकि बहुतायत में पाये जाते हैं और उनमे लिखित संदेश भी बहुत सीमित मात्रा में होता हैं अत: उसके अध्ययन के लिए एक अलग श्रेणी रखी गयी हैं जिसे मुद्राशास्त्र (Numismatism) क़हते हैं।


एपीग्राफी (अभिलेखशास्त्र) - एपीग्राफी पुरातत्व विज्ञान की ऐसी शाखा हैं जिसमे अभिलेखों का विधिवत अध्ययन किया जाता हैं । एपीग्राफी शब्द ग्रीक भाषा के एपिग्राफीन से आया हैं जिसका अर्थ होता हैं किसी सतह पर उत्कीर्ण कर लिखना।

विद्वान एपीग्राफी को इतिहास के सहायक विषय के रूप में रखते हैं, जिसकी सहायता से किसी क्षेत्र विशेष के ऐतिहासिक लिखित रिकॉर्ड (अभिलेख) के आधार पर उस क्षेत्र के इतिहास का निर्माण किया जाता हैं। एपीग्राफी बहुत ही महत्वपूर्ण विषय हैं क्यूंकि यह हमे इतिहास के उस काल का प्रत्यक्ष लिखित प्रमाण उपलब्ध करवाता हैं

एपीग्राफी के अंतर्गत आने वाले कार्य :

1. इसमे अभिलेखों की लिपि और उसके काल की पहचान की जाती हैं।

  1. अभिलेखों का अर्थ ज्ञात किया जाता हैं

  2. अर्थ के आधार पर लेख और उसको लिखने वाले के बारे में निष्कर्ष निकाला जाता हैं

  3. अभिलेख को लिखवाने का प्रयोजन भी जानने का प्रयास करते हैं।


हालाँकि एपिग्राफी के अंतर्गत इतिहास लेखन नहीं आता हैं, अभिलेख के रूपान्तरण और अन्य जानकारी के आधार पर इतिहासकार तरह-तरह के मत एवं इतिहास लेखन करते हैं ।



उदाहरण :

  1. बेहिस्तुन अभिलेख से हमे फारसी हकामेनी साम्राज्य के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त होती हैं। एपिग्राफर इसका आधुनिक भाषा में रूपान्तरण करते हैं, लिपि के प्रयोग की जानकारी देते हैं, लिपि का काल निर्धारण करते हैं।

  2. अशोक के अध्यादेशों को एपिग्राफर पहले पूरा करते है (टूटफूट की वजह से यदि कोई हिस्सा पढ़ने में नहीं आ रहा तो अन्य शब्दो के आधार पर उसे पूरा करते हैं), आधुनिक भाषा (हिन्दी, अँग्रेजी) में रूपांतरित करते हैं, तथा लिपि के आधार पर काल निर्धारण करते हैं।


भारत में पुरातत्व से जुड़े ऐतिहासिक अभिलेखों को विभिन्न इतिहास सोसाइटी और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा प्रत्येक वर्ष प्रकाशित करवाया जाता हैं, कुछ प्रसिद्ध अभिलेख एपिग्राफिया इंडिका और कॉर्पस इन्सक्रिप्शनम इंडिकारम में प्रकाशित हैं।



प्रश्न : अभिलेखों के आधार पर इतिहास लेखन,


प्राचीन इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए जो भी स्त्रोत उपलब्ध होते हैं उन्हे मुख्य रूप से तीन भागो में वर्गीकृत किया जा सकता हैं। पहला पुरातात्विक स्त्रोत, दूसरा साहित्यिक स्त्रोत एवं जनश्रुति, तृतीय विदेशी यात्रा वृतांत

इन सभी में पुरातात्विक स्त्रोत वास्तविक, सटीक और प्रत्यक्ष होते हैं। इन्हे सबसे ज्यादा सक्षम विश्वसनीय माना जाता हैं, पुरातात्विक स्त्रोत में वास्तु, स्मारक, भवन, उत्खनन से मिलने वाले औज़ार, हथियार, कपड़े, वर्तन, मृदुभाण्ड, लकड़ी, मूर्तियाँ, सिक्के, मुहरे इत्यादि सभी तत्कालीन सामग्री आ जाती हैं, इसी में उस काल के दौरान लिखवाये गए अभिलेख या ताम्र पत्र भी शामिल होते हैं।

मानव जब लेखन से परिचित नहीं था तब के काल को जानने के लिए पुरातात्विक साक्ष्य केवल महत्वपूर्ण स्त्रोत होते हैं।


साहित्यिक स्त्रोत के बारे में सबसे बड़ी कमी यह हैं कि वह समकालीन नहीं होते हैं, बहुत से काल्पनिक और वास्तविकता का मेल होते हैं, भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में शुद्ध इतिहास के ग्रंथो के संख्या बहुत कम हैं, बाकी अधिकांश लेख धार्मिक होते हैं जिनमे छुटपुट ऐतिहासिक संदर्भ दिये गए होते हैं।


अभिलेखों को पढ़ना एपीग्राफी का हिस्सा हैं। एपीग्राफी इतिहास का एक महत्वपूर्ण विषय हैं, यह किसी क्षेत्र के इतिहास निर्माण में महती भूमिका निभाता हैं। अकेले भारत में ही हज़ारो अभिलेख मिले हैं जो पिछले 2 हज़ार वर्ष के इतिहास की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं।

अभिलेख ऐतिहासिक काल के प्रत्यक्ष लिखित प्रमाण हैं, इनसे प्राचीन काल की राजनैतिक व्यवस्था, प्रशासन, युद्ध, अभियानो, विजयों, संस्कृति, धार्मिक प्रमाणो की जानकारी प्राप्त होती हैं। कई बार इतिहास कालक्रम में वंशावलियों की समस्याओ को केवल अभिलेखो के बल पर ही खत्म किया जा सका हैं।


अभिलेखों के आधार पर इतिहास लेखन के फायदे



  1. सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह हैं की अभिलेखों को प्राचीन काल के शासको /लोगो ने उनके द्वारा दी गयी जानकारी को चिरस्थाई बनाने के उद्देश्य से लिखवाया गया था, यह अभिलेख स्थायी होते हैं और इनमे बदलाव बहुत कठिन होता हैं। अत: यह किसी घटना या जानकारी का सटीक और बिना किसी मिलावट के प्रत्यक्ष प्रमाण होते हैं।


  1. अभिलेखों में शासक और काल की जानकारी उस शासक और उसके समय को ऐतिहासिक कालक्रम में सूचीबद्ध करने में बहुत सहायता करता हैं। कई बड़ी-बड़ी कालक्रम संबधित समस्याए केवल अभिलेख के आधार पर ही हल की गयी हैं।

  2. अधिकांश अभिलेखों में दी गयी घटना का वर्णन उस घटना के लिए जिम्मेदार व्यक्ति या उसके सहयोगी/ वंशज द्वारा लिखवाया जाता हैं, अत: अभिलेख में हमे प्रथम व्यक्ति विवरण मिलता हैं। उसके दृष्टिकोण एवं मंशा का भी पता चलता हैं। जैसे - प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, नासिक का वशीष्ठी पुत्र पुलूमावी का अभिलेख, प्रभावती गुप्त का ताम्रपत्र

  3. कई बार अभिलेखों में केवल लिखवाने वाले की जानकारी ही नहीं होती बल्कि उसके समकालीन अन्य राजाओ के बारे में जानकारी दी होती हैं, राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से शासको के कालक्रम निर्धारण में यह बहुत प्रामाणिक जानकारी होती हैं। जैसे - वकाटक अभिलेख में भारशिव नाग राजा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी


  1. बहुत से अभिलेख हमे राजनैतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी भी उपलब्ध करवाते हैं। जैसे कि अशोक के अभिलेख से हमे तत्कालीन मौर्य साम्राज्य के बारे में बेहतरीन जानकारी मिलती हैं ।

  2. अभिलेख के पाये जाने के स्थान से भी हम कई बार शासको के राज्य की भौगोलिक स्थिति भी तय कर पाते हैं । अशोक के अभिलेखों के फैलाव से हम उसके राज्य विस्तार के बारे में भी जान सकते हैं। सिक्को के मिलने के आधार पर भी हम किसी शासक के राज्य विस्तार के बारे में जानकारी पाते हैं। जैसे कि पवाया, नरवर और मथुरा से मिले सिक्को के आधार पर नागों के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती हैं।

  3. कई बार हमे अभिलेख के माध्यम से ऐसे शासकों या वंशो के बारे में जानकारी मिलती हैं जिसके बारे में साहित्यिक स्त्रोत मौन होते हैं। ऐसे में इतिहास के लेखन में अभिलखों का महत्व परिलक्षित होता हैं। जैसे - खरवेल के हाथीगुंपा अभिलेख से हमे खारवेल के बारे में पता चलता हैं। इसी प्रकार कुषाण सम्राट वीमा तख्तो के बारे में केवल रबतक अभिलेख से ही पता चलता हैं।

  4. किसी क्षेत्र विशेष में आए विशेष क्रांतिकारी परिवर्तनों का प्रामाणिक स्त्रोत अभिलेख ही हैं।

    रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख में भारी बारिश आने, बाढ़ आने और बांध के टूटने का जिक्र मिलता हैं।

  5. कई बार अभिलेख पूर्व में घटी किसी घटना की जानकारी के एक मात्र स्त्रोत होते हैं। इसलिए अभिलेख न केवल तत्कालीन बल्कि अभिलेख लिखवाने के समय से पहली घटी घटनाओ के भी महत्वपूर्ण स्त्रोत होते हैं। जैसे - खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर का अभिलेख (1056 विक्रम संवत) खंडित हो गया था फिर दुबारा से जीर्णोद्धार करवाया गया (1173 विक्रम संवत) जिसमे हमे मूल अभिलेख की प्रति मिल जाती हैं। इसी प्रकार बंधुवर्माँ के दसपुर अभिलेख में पूर्ववर्ती घटना का उल्लेख मिल जाता हैं

  6. कई बार अभिलेख किसी व्यक्ति विशेष का अलंकृत प्रशंसा अतिशयोक्ति के रूप में होते हैं अथवा उसकी अनावश्यक भर्त्सना के रूप में भी होते हैं, अत: अभिलेखों पर बहुत सावधानी से ही गौर करना चाहिए। जैसे -



अभिलेखों के आधार पर इतिहास लेखन की कुछ कमियाँ -


  1. अभिलेखों को पढ़ने के लिए सबसे आवश्यक हैं उस लिपि की जानकारी होना जिसमे वह अभिलेख लिखा गया हैं, बिना लिपि की जानकारी के अभिलेख पढ़ा नहीं जा सकता हैं, अत: महत्वपूर्ण होते हुये भी अभिलेख का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता।

    जैसे - हड़प्पा की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी हैं, इसी प्रकार वायनिक (voynich) पाण्डुलिपि को भी पढ़ा नहीं जा सका हैं, इटली की एरुटुस्कन लिपि भी पढ़ी नहीं जा सकी है

  2. हजारो वर्ष पहले लिखे गए अभिलेखों को पढ़ना इतना आसान भी नहीं रह जाता हैं, अभिलेखों के कई शब्द या पूरी पंक्ति ही पढ़ने योग्य नहीं रहती, जैसे - समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के पहले 6 पंक्तियाँ अब पढ़ने योग्य नहीं रह गयी हैं।

  3. एपिग्राफी अभिलेखों को कई बार सीधे तौर पर प्रामाणिक नहीं माना जाता, जहां वे किसी शासक या महत्वपूर्ण व्यक्ति के अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशस्ति के तौर पर होते हैं।

    जैसे - देवपाल के बादल स्तम्भ अभिलेख अतिशयोक्ति पूर्ण हैं, स्कंधगुप्त के कहौम अभिलेख

  4. इन अभिलेखों में प्रयुक्त हुये शब्दो के अर्थ लंबे समय के दौरान बदल चुके होते हैं अत: कई बार अभिलेखों में इन शब्दो के आधार पर अभिलेखों की सही मंशा का पता नहीं चल पता हैं।

  5. अभिलेखों अक्सर महत्वपूर्ण व्यक्तियों एवं घटनाओ तक ही सीमित होते हैं, इनमे हमे रोज़मर्रा के जीवन, प्रथाओ, एवं अन्य सामान्य घटनाओ की जानकारी नहीं मिलती हैं।

  6. कुछ अभिलेखों को छोडकर, अधिकांश अभिलेखों में जानकारी बहुत सीमित होती हैं, सीमित शब्दो को देखते हुये कई बार केवल नाम को छोडकर कुछ अन्य जानकारी नहीं मिल पाती अत: विस्तृत जानकारी के अभाव में अभिलेखों का कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं रहा जाता हैं, दरअसल, भारत के परिपेक्ष्य में ज़्यादातर अभिलेखों में सीमित जानकारी होने की वजह से कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं हैं। जैसे - सांची और भारहुत के दान अभिलेख, प्रभास पाटन के स्वर्गोत्सर्ग घाट के अभिलेख

  7. भारतीय एपिग्राफी के संदर्भ में बहुत से अभिलेखों में काल, संवत की कोई जानकारी नहीं दी गयी होती हैं इस वजह से उनके काल निर्धारण और कालक्रम में व्यवस्थित करने के लिए कोई भी प्रकार की सूचना नहीं होती हैं।

  8. भारत में ऐसा देखा गया हैं कि शासक वर्ग अपने परिवार को दैवीय रूप प्रदान करने अथवा सामाज से शासन हेतु नैतिक समर्थन, मान्यता लेने हेतु अपने वंश को किसी दैवीय व्यक्तित्व या प्राचीन ऋषि के गोत्र से जोड़कर प्रस्तुत करता था। इन प्रथाओ का कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं हैं बल्कि पौराणिक वंशावलियों की काल्पनिक उपज हैं। ऐसे में अभिलेखीय साक्ष्यों का पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता हैं।

    जैसे - मिहिरभोज का ग्वालियर अभिलेख

  9. अभिलेख विशेष तौर पर प्रशास्तियाँ, राज दरबारी कवियों द्वारा अपने शासकों की प्रशंसा में अलंकृत रचना होती थी जो विशेष तौर पर अतिशयोक्तियों एवं पौराणिक उदाहरणों से भरी होती थी। इन रचनाओं में सत्यता कम और घटनाओ को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता था। जैसे - महिपाल का सास बहू मंदिर अभिलेख


  1. जैसा कि हम कुछ अभिलेखों में देख चुके हैं, पत्थरो इत्यादि पर अभिलेख उकेरेने का काम अक्सर अशिक्षित कलाकार करते थे, वे इन लिखे हुयी सामाग्री की हुबहू नकल इन पत्थरो या ताम्रपत्रो पर उकेरते थे। ऐसे में नकल करते समय इन अशिक्षित कलाकारो से गलती हो जाना स्वाभाविक होता होगा।

  2. कई बार एपिग्राफिक रेकॉर्ड को व्यक्तिगत फायदे के लिए भी लोग फर्जी तौर पर तैयार करवाते हैं, इसलिए अभिलेखों को पढ़ते समय कई बातों का ध्यान रखने की आवश्यकता होती हैं। विशेषकर ताम्रपत्र अभिलेख जो भूमि दान, विलेख के रूप में भी प्रयोग किए जाते थे, ऐसे अभिलेखों पर लोग अपने फायदे के लिए नाम एवं काल बदल देते थे।

    जैसे - समुद्रगुप्त की बिहार ताम्र दानपत्र नकली हैं।




प्रश्न : विक्रम संवत के ऊपर अपने विचार रखिए, इसके उद्भव के बारे में विभिन्न मान्यताओ पर विचार रखिए।


विक्रम संवत से जुड़े जो सबसे पुराने अभिलेख हमे मिलते हैं, उन पर किसी संवत का नाम नहीं लिखा हैं बस केवल कृत ही लिखा है। विक्रम संवत से जुड़े सबसे पुराने अभिलेख राजस्थान से प्राप्त हुये हैं। इसके बाद इस संवत को मालव गणो से जोड़ा जाने लगा। तदुपरान्त के अभिलेख इस संवत को मालव अधिपति से जोड़ते हैं। अंतत: 8वी सदी से हमे इस संवत के साथ विक्रम नाम दिखने लगता हैं।

उदाहरण के तौर पर : -

वर्ष 282 का नदसा (उदयपुर) अभिलेख शक्तिगणगुरु और कृत का परिचय देता हैं

वर्ष 295 का मौखारी का बड़वा अभिलेख - कृतेही 295 बतलाता हैं।

वर्ष 428 का यशोवर्धन का बिजयगढ़ (भरतपुर) अभिलेख में - कृतेषु चतुर्शु वर्ष शतेसु लिखा हैं।

वर्ष 461 का नरवर्मन के मंदसौर अभिलेख में श्री मालवा गण के नाम से विक्रम संवत को संबोधित किया गया हैं।

ऐसा प्रतीत होता हैं कि इसका पुराना नाम कृत संवत, राजस्थान में चलन में था और साथ ही साथ मालवा क्षेत्र में यह मालव संवत के नाम से प्रसिद्ध हुआ, यहाँ तक की गुप्त काल में भी मालवा क्षेत्र में गुप्त नहीं बल्कि मालव संवत ही चलता रहा।

कई अभिलेखों में इसे मालव गण ख्याति काल के तौर पर भी प्रदर्शित किया गया हैं।

अलेक्जेंडर के भारत हमले के दौरान ग्रीक वर्णन में हमे रावी नदी के तट के नजदीक मल्लोई नाम की लड़ाकू जाति का उल्लेख मिलता हैं । जो कि पहली सदी ईसा पूर्व के आस पास शक-पहलवी शासकों के अधीन पंजाब में निवास करती थी। शायद किसी विदेशी आक्रमण के दबाव के कारण यह जाति नीचे राजस्थान के तरफ पलायन कर गयी होगी, जिसकी पुष्टि हमे इस क्षेत्र में उनके द्वारा जारी किए गए अभिलेखों और सिक्को की स्थिति से पता चलती हैं। जैसे कि मालवानम जय: नाम के सिक्के नगर (जयपुर) के आस पास मिले हैं।

मालव लोग शायद कालांतर में अवन्ती और आकरा नामक जनपदों में भी बस गए होंगे। जिसकी वजह से यह क्षेत्र 7-8 वी शताब्दी के दौरान मालवा नाम से ही जाना जाने लगा।

4थी सदी के दौरान गुप्त राजाओ ने मालवा को अपने आधीन कर लिया, इनके स्थानीय शासक औलिकार क्षेत्रीय वंश ही था, और शायद इसी मालव जाति से संबंध रखता होगा तभी वे गुप्त संवत को छोडकर मालव संवत का ही प्रयोग करते रहे। मालवा का क्षेत्र इस काल में बहुत ही अस्थिर रहा हैं और कई विभिन्न राजवंशो में हस्तांतरित होता रहा हैं।


इसीलिए ऐसा प्रतीत होता हैं कि मालव गण, इस संवत को अपने मूल स्थान पंजाब से मालवा तक लाये थे। और यह शायद किसी शक-पहलवी संवत से ही संबंध रखता हो जो उस दौरान इस क्षेत्र में प्रसिद्ध होगा। चन्द्रगुप्त-II के काल में मालवा को जीतकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाया गया था। इस दौरान इस नगर का बहुत विकास हुआ। ऐसा प्रतीत होता हैं कि इसी मालव संवत को तब मालवा अधिपति "श्री विक्रमादित्य" के साथ जोड़ना आरंभ हुआ होगा। गुप्तों ने इस संवत को गुप्त सम्राट से जोड़कर और बढ़ावा दिया होगा।

हालाँकि इस के कोई तथात्मक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन फिर भी इस संवत का विक्रम संवत या विक्रमादित्य संवत कहलाने के 8वी सदी से पहले के कोई प्रमाण नहीं हैं।


- कृत संवत पर ध्यान देने से कुछ खगोलशास्त्री दावा करते हैं कि कृत का शाब्दिक अर्थ होता हैं निर्माण करना अथवा बनाना। अत: कृत संवत को भारतीय वैज्ञानिको ने अपनी गणना के लिए बनाया होगा। इस दावे में कोई खास प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

- यह बिलकुल स्पष्ट बात है कि ईसा की पहली शताब्दी से पहले भी संवत की गणना शासक के राज्याभिषेक वाले वर्ष से आरंभ करते थे। अत: कृत संवत भी संभवत: किसी शासक के राज्याभिषेक वर्ष से आरंभ हुआ होगा।

- कुछ और विद्वान मानते हैं कि कृत किसी शासक का नाम होगा जिसके राज्याभिषेक से इस काल की गणना आरंभ हुयी, कुछ और विद्वान इसे मालव गण के शासक "कृत" से जोड़ते हैं जिसके आस्तित्व का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

- कुछ अन्य विद्वान इस कृत शब्द को क्रिता से जोड़ते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ होता हैं क्रय करना अथवा खरीदना। विद्वानो के अनुसार यह किसी विदेशी मूल के शासक द्वारा चलवाया गया हो सकता हैं जिसे भारतीयो ने खरीदा होगा, इस बात की पुष्टि के लिए ह्वेन सांग का विवरण प्रस्तुत किया जाता हैं जिसमे विदेशी शासकों को क्रिता कहा जाता था।

हालाँकि यह दावा बहुत दूर का लगता हैं, भारत में कृत और क्रिता दोनों का अंतर स्पष्ट तौर पर पता चलता हैं, हाँ इन शब्दो में मेल तब संभव हो सकता हैं जब वे कोई बाहरी भाषा के शब्द हो जिनका अर्थ एवं उच्चारण भारतीयो को स्पष्ट ना हो। जैसे शक और कुषाण शब्द (जिनका मूल उच्चारण अलग होगा)

- डी सी सरकार के अनुसार विदेशी शासकों से यदि इस संवत को जोड़ा जाये तो हमे ज्ञात होता हैं कि सकस्तान के वोनोनेस नामक एक पहलवी शासक ने मिथ्रीडेट द्वितीय के पश्चात सबसे पहले शहँशाह की उपाधि धारण की थी। वह एक स्वतंत्र शासक था, जाहिर है उसने प्राचीन पहलवी संवत (248 ईसा पूर्व) को त्याग कर अपना नया संवत स्थापित किया होगा। उसका संवत सर्वप्रथम सिन्ध वाले हिस्से में देखने को मिला, तत्पश्चात यह विभिन्न शक सामंतों के द्वारा उत्तर पश्चिम भारत के अन्य हिस्सो में भी फैला होगा। विशेषकर पंजाब के हिस्से में जहां यह वही के स्थानीय निवासियों के मध्य भी लोकप्रिय हुआ। मालव लोग इस संवत को राजस्थान समेत भारत के अन्य हिस्सो में भी ले गए जहां यह लोकप्रिय हुआ।


विक्रम संवत का अन्य संवत से संबंध

1 ईसवी = 57 विक्रम संवत

1 शक संवत = 135 विक्रम संवत

1 कलचुरी चेदी संवत = 306 विक्रम संवत

1 विक्रम संवत = 3044 कलियुग वर्ष



प्रश्न : शक संवत क्या हैं ? इसकी उत्पत्ति के विभिन्न विचारो पर समीक्षा कीजिये ।


शक संवत का आरंभ 78 ईसवी से होता हैं, पारम्परिक रूप से इतिहासकार इस संवत को कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्याभिषेक से जोड़ते हैं ना कि शकों से।

लेकिन कनिष्क के राज्य काल को लेकर विज्ञानी एक राय नहीं हैं। इतिहास में तीन कनिष्क हुये हैं पहले का शासन काल पहली शताब्दी में माना जाता हैं, कनिष्क II का शासन काल दूसरी शताब्दी का माना जाता है, तथा कनिष्क III का काल तीसरी सदी में माना जाता हैं।


शक संवत का सबसे पहले प्रयोग बादामी चालुक्यो के अभिलेखो में मिलता हैं, 6-7 सदी के ये अभिलेख शक वर्ष, शक-नृप राज्याभिषेक संवत्सर इत्यादि शब्द प्रयोग करते हैं। इसमे कोई संदेह नहीं कि इन अभिलेखो में प्रयोग करने वाले शक शासक सौराष्ट्र एवं पश्चिम भारत के शक क्षत्रप ही होंगे। डी सी सरकार के अनुसार, शक स्वयं कुषाणों के क्षेत्रीय सामन्त अथवा क्षत्रप की तरह राज कर रहे थे, ऐसे में उनके द्वारा स्वयं का संवत आरंभ करना तर्कपूर्ण नहीं हैं, बल्कि वे अपने अधिपतियों (कुषाणों) के द्वारा प्रतिपादित संवत ही प्रयोग में ला रहे होंगे । वे कुषाण प्रथम को शक संवत का प्रवर्तक मानते हैं।


शक संवत के आरंभ से कुछ पौराणिक लोक कहानियाँ भी जुडी हुयी हैं, जिसमे से एक के अनुसार विक्रमादित्य संवत आरंभ करने वाले उज्जैन के शासक विक्रमादित्य (57 ईसा पूर्व) की मृत्यु के पश्चात शक शासकों का मालवा पर दुबारा कब्जा हो गया। अत: विक्रमादित्य के पौत्र शालीवाहन ने 78 ईसवी में शकों को दुबारा हराकर, मालवा से खदेड़ दिया था, इस विजय के उपलक्ष्य में शालीवाहन शक संवत को प्रतिपादित किया ।

इसी प्रकार शालिवाहन शक संवत को गौतमीपुत्र शतकरणी से भी जोड़ा जाता हैं, जिसमे पश्चिमी शक क्षत्रपों को पराजित किया था। ठीक ऐसी ही कहानियाँ ब्रह्मगुप्त और अल-बरूनी की पुस्तकों में शक संवत के आरंभ के बारे में दी हुयी हैं।


लेकिन हाल में हुयी खोजो और नए अभिलेखों के माध्यम से विद्वानों ने यह ज्ञात कर लिया हैं कि शक महाक्षत्रप चष्टन ने शक संवत को आरंभ किया था। और हेनरी फाल्क के हाल के शोध के अनुसार कनिष्क का राज्यअभिषेक 125 ईसवी के आसपास हुआ था।




प्रश्न : गुप्त-वल्लभी संवत क्या हैं ?



गुप्त बल्लभी संवत का प्रयोग गुप्त शासकों द्वारा तथा बल्लभी के मैत्रेय शासकों द्वारा भी प्रयोग किया जाता रहा।

गुप्त संवत के आरंभ के बारे में विद्वानों के बीच के एक राय नहीं हैं, समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रसस्ती हो या अन्य अभिलेख हो, किसी में तिथि स्पष्ट रूप में नहीं दी गयी हैं। बिहार से मिली ताम्रपत्र से यह साफ नहीं होता कि गुप्त संवत समुद्रगुप्त के काल मे आरंभ हुआ या नहीं, ऐसा समझ में आता हैं कि ये ताम्रपत्र जाली थे और बाद में लोगो द्वारा बनाए गए थे। इस जाली ताम्रपत्र को पुरुगुप्त के एक और ताम्रपत्र चार्टर को नकल करके बनाया गया था।

सबसे पहले का अभिलेख चन्द्रगुप्त-II के काल का हैं, जो मथुरा से प्राप्त हुआ हैं, इस अभिलेख में उसके राज्यवर्ष एवं संवत्सर की चर्चा की गयी हैं, इसमे राजवर्ष 5 और संवत्सर 61 बताया गया हैं। मतलब गुप्त संवत्सर चन्द्रगुप्त के पहले से 56 वर्षो से चला आ रहा था। इसका अर्थ हुआ कि यह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने नहीं चलाया होगा, दूसरा उसके पिता समुद्रगुप्त ने भी 56 वर्ष राज नहीं किया, जिससे यह संवत्सर इसके पिता के द्वारा आरंभ नहीं किया गया होगा। समुद्रगुप्त से पहले चन्द्रगुप्त प्रथम सिंहासन आरूढ़ हुये थे। वे प्रथम राजाधिराज थे, अपने सिक्के भी चलवाये तथा लिच्छवियो से वैवाहिक संबंध भी स्थापित किया। ऐसा माना जाता हैं कि उसने कम से कम 25-30 वर्ष शासन किया होगा। अत: गुप्त संवत्सर का काल चंद्रगुप्त-I के समय में ही आरंभ हुआ होगा।


गुप्तों के अधीनस्थ सौराष्ट्र के इलाके में शासन कर रहे थे, गुप्तों के विघटन के पश्चात उन्होने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया और वल्लभी से मैत्रेय वंश की स्थापना की, हालाँकि वे गुप्त संवत्सर को ऐसे ही प्रयोग करते रहे। उनके द्वारा लंबे समय तक प्रयोग करने के पश्चात इसे वल्लभी संवत कहते थे। लेकिन बाद के विदेशी यात्री इन दोनों को एक न मानते हुये अलग अलग मानते रहे।

अलबरूनी के कथन से एक बात स्पष्ट हो जाती हैं, वह यह कहता हैं कि शक संवत के 241 वर्ष बाद गुप्त संवत आस्तित्व में आया। जिसका अर्थ 241+78 = 319 ईसवी से यह संवत आरंभ होता हैं। वल्लभी संवत के बारे में कहते हुये, शक संवत के बाद 6*6*6 + 5*5 के वर्ष में आरंभ हुआ। (78+216+25 = 319)

इसका अर्थ यह है कि दोनों संवत समान ही हैं, अल बरूनी ने यह स्पष्ट कर दिया हैं। गुप्तों के राज्य विस्तार के साथ यह संवत का भी विस्तार भी हुआ। कुछ विद्वानों ने यह कहने का प्रयास किया हैं कि गुप्त संवत का आरम्भ लिच्छवियों से जोड़ने का प्रयास किया हैं परन्तु लिच्छवियों से जोड़ने पर उनकी वंशावलियों की गणना में त्रुटि दिखती हैं, अत: अधिकांश विद्वानों ने इसे अस्वीकार कर दिया हैं।



1 गुप्त काल = 319 ईसवी

1 गुप्त काल = 241 ईसवी




प्रश्न : कालचुरी-चेदी काल क्या हैं ?


कालचुरी शासकों का राज कई स्थानो पर मिला हैं, इनकी कई शाखाये थी। कुछ समय तक प्रचलन में रहने के बाद वे समाप्त हो गए। कालचूरी सबसे लंबे समय तक त्रिपुरी (जबलपुर) से शासन करते रहे हैं।

कालचूरी चेदी का शासन मध्य प्रदेश के क्षेत्र में रहा हैं कुछ समय तक वे उत्तर प्रदेश के आस पास भी रहे हैं। मिराशी साहब ने 1955 में कालचूरी के सारे अभिलेख दो भागो में दिये हैं। इसमे कुछ अभिलेखों और संवत की वाख्या भी दी गयी हैं।

इनके अभिलेख बहुत बाद में दिखते हैं, लगभग 200 वर्ष के बाद की गणना मिलने से हमे यह ज्ञात होता हैं कि वे सत्ता में बाद में आए हैं, संभवत: इस संवत को किसी और ने चलाया होगा। अगर इस संदर्भ में देखे तो दक्षिण भारत का उत्तरी कोंकण क्षेत्र में त्रैकूटक शासकों द्वारा 5वी सदी के आसपास प्रयोग में लाया जाता था। उसके पश्चात 6वी सदी में उत्तर महाराष्ट्र में मराठी भाषी क्षेत्र में तथा 7वी सदी में मालवा क्षेत्र में प्रयोग में लाया जाता रहा। अत: इस बात में कोई दो राय नहीं कि कलचूरी चेदी संवत का आरंभ उत्तर कोंकण क्षेत्र में ही हुआ होगा जहां से अन्य स्थानों पर कलचुरियों द्वारा फैलाया गया। और फिर कालचुरी राजाओ द्वारा मध्य भारत के त्रिपुरी एवं अन्य स्थानों पर भी फैला।


त्रैकुटको की अगर बात करे तो ज्ञात होगा कि वे पहले अभीरों के आधीन रहे थे। आभीर, शकों के आधीन आ गए थे और शक संवत का प्रयोग करते थे। शकों से तीसरी सदी में स्वतन्त्रता घोषित करते ही अभीरों ने एक नए संवत का आरंभ किया जिसकी पुष्टि नासिक से प्राप्त आभीर शासक ईश्वरसेन के अभिलेख से मिलता हैं जिस पर पहला संवत लिखा हुआ हैं। यही संवत बाद में त्रैकूट और कालचुरी शासकों द्वारा भी प्रयोग में लाया जाता रहा। और भारत के अन्य हिस्सो में भी फैला।


तेरहवीं सदी तक यह संवत छत्तीसगढ़ के कालचुरी शासकों द्वारा प्रयोग में लाया जाता रहा हैं, उसके पश्चात दिल्ली सल्तनत द्वारा कालचुरी शासकों को अपदस्थ करने के साथ ही इस संवत का प्रयोग बिलकुल खत्म हो गया।

1 कलचुरी संवत = 248/249 ईसवी

1 कलचुरी संवत - 170/171 शक संवत
























-:अध्याय 2 :-

प्रश्न : अशोक का 13वां शिलालेख के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व को संक्षिप्त में समझाये।



शाहबाज़गढ़ी शिलालेख, पाकिस्तान के खैबर पखतुनवा इलाके में माकन नदी के किनारे एक गाँव में स्थिति हैं। प्राचीन काल में यह स्थान गांधार प्रांत का हिस्सा था। अभिलेख की भाषा गांधारी-प्राकृत हैं और लिपि खरोष्ठी हैं। इस पर कुल 14 राजाज्ञाये उत्कीर्ण हैं, 13 ओर 14 राजाज्ञा शिला के दूसरी ओर हैं।

अशोक का तेरहवा अभिलेख (शाहबाज़गढ़ी शिलालेख से)
राजनैतिक महत्व

1. अशोक सिंहासन पर बैठने के 8 वर्षों बाद कलिंग पर युद्ध करता है कलिंग के युद्ध में अशोक की विजय होती है और इसको भी मौर्य साम्राज्य में जोड़ दिया जाता है।

- अशोक के सभी अभिलेखों में युद्ध का एकमात्र यही विवरण मिलता है
विभिन्न शिलालेखों के वर्तमान स्थान के आधार पर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि अशोक को अपने पिता बिन्दुसार से विरासत में एक बहुत बड़ा साम्राज्य मिला था। और अपने काल में अशोक ने केवल कलिंग को पराजित किया, इसका अर्थ यह है कि या तो अशोक के पूर्व में इस राज्य का अधिग्रहण नहीं किया जा सका था अथवा अशोक के समय यहाँ के निवासियों ने विद्रोह किया होगा जिसे अशेक ने कुचल दिया था।


2. कलिंग युद्ध से यह भी पता चलता है कि उस दौरान युद्ध में विशाल सेना हिस्सा लेती थी, यहां डेढ़ लाख लोगों को विस्थापित करने एवं डेढ़ लाख लोगों को मारे जाने और कईयों के काल कवलित होने का पता चलता है।


3. इस अभिलेख में आटविक प्रदेश (जंगली जातियों) के बारे में पता चलता है, यह जातियां यद्यपि मौर्यो के अन्तर्गत थी परन्तु विद्रोही स्वभाव की थी। अशोक ने इनको आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया है और साथ ही पूरी तरह से उन्हे कुचल देने का सामर्थ्य होते हुये भी क्षमा करने की इच्छा जताई है। डॉ डी आर भंडारकर के अनुसार आटविक लोग छत्तीसगढ़ क्षेत्र की जनजातियाँ थी।


4. धर्म विजय को अपनाकर अशोक ने ना केवल अपने राज्य, सीमांत क्षेत्रों में इसका प्रसार किया बल्कि दूरस्थ देशों में भी धर्म-शिष्ट मंडल को भेजा विशेषकर उस काल के यूनानी राजाओं के दरबार में अशोक द्वारा भेजे गए दूत इस बात के प्रमाण हैं कि भारत के यूनानीयों के साथ भी कूटनीतिक संबंध थे।
अन्तियोक (एन्टियोकस सोटर - सेलुलिड साम्राज्य 261-246 ई०पू०)
तुरामये (टाल्मी द्वितीय - मिस्त्र 283-246 ई०पू०)
अंतिकिनी (एन्टिगोनस द्वितीय - मैसिडोन 272-246 ई०पू०)
मका (मगास - साईरीन 276-250 ई०पू०)
अलिकसुन्दर (अलैक्जेन्डर - एपिरस 272-242 ई०पू०)


यह जानकारी दर्शाती है कि उस काल में भारतीयों को समकालीन यूनानी दुनिया की अच्छी खासी जानकारी थी।

अशोक के अभिलेख में हमें काल की कोई जानकारी नहीं मिलती है लेकिन यूनानी शासकों के नाम से उनके काल की गणना करना आसान हो जाता है। जिस समय में अशोक ने अपने शिलालेखों की उद्घोषणाएं करवायी थी वह काल एन्टिओकस के सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद 261 ईपू और मगास की मृत्यु 250 ईपू का रहा होगा।

अगर ऐसा मानकर चलें की एन्टियोकस द्वितीय के सिंहासन पर बैठने की जानकारी भारत तक पहुंचने में 2 वर्ष लगे हो तो इस शिलालेख का काल 259-248 ईपू के मध्य माना जा सकता हैं।

एक और महत्वपूर्ण जानकारी जो तत्कालीन यूनान राजनीति के बारे में मिलती है की इसमें उस दौर के महत्वपूर्ण राज्यों जैसे कि एथेंस और स्पार्टा, कोरिन्थ इत्यादि का वर्णन नहीं है इसका अर्थ यह हुआ के अशोक के साथ इन देशों का कोई राजनयिक संबंध न होगा इसलिए यहाँ प्रतिनिधि मंडल को नहीं भेजा होगा।

उस काल के यूनियन इतिहास का अध्ययन करने पर पता चलेगा कि उपरोक्त पाँच देशों में आपस में कोई मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं थे। एंटीऑकस के सैल्यूसिड साम्राज्य की शत्रुता उन दिनों मिस्त्री टाल्मी से थी। अशोक के प्रतिनिधिमंडल का दोनों देशों द्वारा स्वागत करना इस बात का द्योतक है कि अशोक ने यूनानी राजनीति में कोई तटस्थ रवैया अपनाया होगा।

5. दक्षिण की भौगोलिक स्थिति के बारे में बताते हुए अशोक यह कहते हैं कि उन्होंने नीचे, चोल पांड्य और ताम्रपर्णी तक धर्म विजय का प्रचार किया है।

इस कथन का मतलब कि उस समय भारतीयों को दक्षिण भारत की पूरी जानकारी थी और अशोक के वाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि दक्षिण के राज्य चोल, पांड्य और केरलापुत्र, सातियापुत्र (शिलालेख-2), श्री लंका (ताम्रपर्णी) मौर्या साम्राज्य के अन्तर्गत नहीं थे।


6. अपने सीमांत प्रदेशों में धर्म का प्रसार बताते हुए अशोक कुछ जातियों का वर्णन करते हैं जैसे कि उत्तर पश्चिम में यवन कॉलोनी, कंबोज जो कि महाजनपद काल में एक महाजनपद था (कश्मीर-नूरिस्तान) इसके अलावा नाभक, निभितिन, भोज, पितिनिक, आन्ध्र, पलिदास (पुलिन्दा) धर्म अनुदेश का पालन कर रहे हैं।

7. त्रयोदश अभिलेख में यह भी दर्शाया गया है कि ऐसे भी क्षेत्र थे जो मौर्य साम्राज्य के बाहर थे लेकिन मौर्य राजनीति और भारतीय संस्कृति से गहरे प्रभावित थे, अशोक द्वारा इन क्षेत्रों में अपने धर्म प्रचारकों के न भेजने के बावजूद भी उन्होंने अशोक के धर्मोपदेश का अनुशीलन करना आरंभ कर दिया था, उदाहरण ० तराई का क्षेत्र, तिब्बत एवं उत्तर पूर्व भारत का क्षेत्र

त्रयोदश अभिलेख सांस्कृतिक महत्व

1. कलिंग का युद्ध अशोक का हृदय परिवर्तन कर देता है और उसको यह जानकर बहुत दुख होता है कि किसी देश को जीतने में हत्याएं मृत्यु और निष्कासन होता है।

2. इन हत्याओं और मृत्यु के फल स्वरुप अशोक
धर्मशीलन - धर्म पालन,
धर्म कामता- धर्म अनुराग,
धर्मानुशस्ति- धर्मोपदेश
अपना लेता हैं।


3. अशोक के अनुसार ब्राह्मणों, श्रमणो एवं अन्य संप्रदायों को मानने वाले लगभग हर एक स्थान पर मौजूद है।

4. अशोक को कलिंग विजय पर खेद था, वह सभी हताहत हुए लोगों के सौवे या हजारवें हिस्से को भी पाप समझने लगा था।

5. अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया और उसका कहना था कि गलती करने वाले को यदि क्षमा किया जा सकता है तो उसे अवश्य क्षमा कर देना चाहिए।


6. अशोक सभी प्राणियों से यह आशा रखता था कि वह किसी को कष्ट न पहुंचाएं संयम रखें और सदाचरण, समचर्या का पालन करे। और इस प्रकार के धर्मानुदेशो को सभी जगह फैला कर ही धर्म विजय प्राप्त की जा सकती है। यह विचारधारा अपने आप में ही महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय हिंदू धर्म शास्त्रों में धर्म विजय की जो चर्चा की गई है उसमें किसी क्षेत्र विशेष को विजित करके वापस पराजित शासक को लौटा देना ही धर्म विजय कहलाती है, परंतु अशोक की धर्म विजय असल मायनों में श्रेष्ठ थी क्योंकि इस विषय में युद्ध और युद्ध से जुड़े हुये जान-माल नुकसान की कोई संभावना ही नहीं रह जाती थी।

7. अशोक के अनुसार यह धर्म विजय सर्वत्र व्याप्त, और अति संतोष प्रदान करने वाली थी। यह परलोक के लिए भी महत्वपूर्ण थी क्योंकि इस लोक में किए गए अच्छे कर्मों का फल परलोक को श्रेष्ठ बनाने में योगदान देता।

8. त्रयोदश अभिलेख के अन्त में धर्मलिपि के उद्देश्य के तौर पर अशोक अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र इत्यादि को निर्देश देते हुए कहते हैं कि वे किसी भी प्रकार के नए युद्ध के बारे में न सोचे और यदि युद्ध आवश्यक ही हो जाए तो युद्ध करने के बाद लघु दंड एवं दया से संतोष करें तभी उनकी विजय सही मायनों में धर्म विजय होगी और इस लोक और परलोक में शुभ फल देगी।


कुछ विद्वानो का ऐसा मानना हैं कि अशोक की अहिंसा वाली नीति के कारण ही सैन्य क्षमता और तकनीकी विकास को बिलकुल अनदेखा कर दिया गया, जिसका परिणाम स्वयं मौर्य साम्राज्य के पतन के रूप में सामने आया। अशोक ने अपने प्रशासन के एक बड़े हिस्से को धर्म (नैतिकता) के प्रसार और धार्मिक प्रयासों के




Rock edict 13 - the edict starts with Ashoka
Telling about Fate Military campaign against Kalinga and its aftermath, which had profound effect on him.

This single incident made him forsake the policy of war forever and embrace Dhamma (practice of Morality). Then after he gives detail information what he does in order to spread Dhamma all over world. He proclaims that he achived worldly victory with the weapon of Dharma.


The importance of the edict can be categorised in various ways mention here under:

1. Military campaign, succeed huge empire from his predecessor.

2. Extent of dominion

3. Indian knowledge of Hellenic world.

4. Chronological problems

5. Knowledge of Indian geography

6. Information about Various tribes in India

In the edict Ashoka mentions of a Wild tribe ATAVYAS as forest dwellers. Who were resident of Ashoka dominion but were of rebellious nature. Ashoka warns them that even though he possesses full military strength to punish them Even after renunciation of violence but still he prefers to forgive them if them adopt peaceful manner and restrain from any evil (violent) behaviour.


Religious

1. Ashoka grief and sorrow Vivid picture of miseries inflicted upon the people, Profound sorrow and grief
2. Dhamma victory over war victory is meritorious And foremost.
3. Killing innocent people, brahmana and shraman is biggest sin. Deplorable act
4. Sending religious envoys to Greek nations.
5. Propagation of Dhamma in ashoka subjects.
6. Winning of Dharma is feeling of satisfaction. Best Conquest.
7. Great Grand sons follow his suggestion, not to think of new Conquest and instead win by Dharma. Incase where war is inevitable, practise forbearance, pardon, use light punishment against their opponents.

Conquest of morality is the only conquest.

Three types of conquests

1. Asura Vijaya
2. Loha Vijaya
3. Dharma Vijaya

Ashoka Dhamma Vijaya is bloodless, just by spreading practice of Morality this is most virtuous. This Dharma conquest bear fruits not only in this world but in other world too.

8. If anyone does wrong, bear as much as can be borne forgivable.





Kalinga war Aftermath

1. Ashoka annexed Kalinga with its vast territory.
2. Virtually Entire country is unified with in one rule. Except south India.
3. A large number of people die in the war, imprisoned.
4. This tragedy and suffering led Ashoka to remorse and as a penitent he renounce policy of war.
5. Ashoka begins to propagate moral principles which he calls Dharma.
6. Ashoka changes in his administration policy now he appoints high level officials (mahamatra) to spread and seek practice of Dharma among people.
7. Dharma Vijaya is preferred over actual war. Bloodless victory.
8. Ashoka offer forgiveness it's subject, who commits crime
9. Ashoka instructs his progeny to practice self restraint, avoid conquest with Dharma Vijaya. Even if war is inevitable seek forbearance and use light punishment against their opponents.




प्रश्न: अशोक का 7वां स्तम्भलेख (दिल्ली-टोपरा) के सांस्कृतिक महत्त्व को संक्षिप्त में समझाये।


अशोक का 7वाँ शिलास्तम्भ लेख

इस शिलालेख का आरंभ अशोक के इस विचार से होता है कि लोगों की प्रगति के लिए धर्म के प्रचार हेतु पूर्ववर्ती शासकों ने भी प्रयास किया था लेकिन धर्म प्रचार फलीभूत ना हो पाया।

इसके पीछे कारण गिनाते हुए अशोक कहते हैं ऐसा क्या प्रभावी तरीका अपनाया जाए जिससे

1. लोग धर्म आचरण करना सीखें
2. लोगों की प्रगति के लिए धर्म का उचित प्रसार कैसे किया जाए।
3. कैसे लोगों को धर्म की प्रगति से उन्नत करवाया जाए।

सोच विचार करने के बाद अशोक इसका हल निम्न प्रकार देते हैं।

1. अशोक स्वयं धर्म पर उद्घोषणा (राजाज्ञा) जारी करते हैं और धर्मानुदेशों को देने का आदेश देते हैं।
2. लोगों के बीच अशोक अपने इन धर्म अनुदेशों (अध्यादेशों) को राजकीय प्रतिनिधियों के द्वारा प्रचारित करते हैं, धर्म को विस्तार से समझाते हैं। अशोक को उम्मीद थी कि लोग इसका अनुसरण करेंगे और जीवन को उन्नत बनाकर धर्म प्रसार करके प्रगति करेंगे।

3. अशोक ने लाजूका (राजुका) नामक उच्च अधिकारी का संदर्भ दिया है जिसके मातहत लाखों लोग रहते थे उन्हें भी आदेश दिया था कि वे भी अशोक के धर्म का उपदेश दे।

4. धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने धर्म स्थम्भो की विभिन्न स्थानों पर स्थापना कराई जिन पर धर्म से जुड़े हुए अनुदेश उत्कीर्ण करवाए गए थे।

5. अशोक ने एक नए पद धर्म महामात्र की नियुक्ति की यह उच्च अधिकारी वर्ग अशोक द्वारा सृजित धर्म के प्रचार एवं प्रसार और प्रेक्षण इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में संलिप्त था।

6. अशोक द्वारा धर्म की उद्घोषणा आम जनों में प्रचारित करवायी गई।

7. अन्य प्रजाहित कार्यों के‌ लिए, अशोक ने निम्न कार्य भी करवाए
-अशोक ने मार्ग में छाया के लिए वट वृक्षों को लगवाया।
-पशु एवं मनुष्यों के लिए आमवृक्षो की वाटिकाए बनवायी।
- मार्ग में आधे आधे कोर्स पर कुए खुदवाये गए,सीढियां बनवाई
-पशुओं एवं मनुष्य के लिए अशोक द्वारा असंख्य प्याऊ बनवाए गए।

पूर्व के राजाओं ने भी विभिन्न सुख-सुविधाओं का इंतजाम करवाया था जिससे कि लोग धर्म का अनुसरण श्रद्धा और भक्ति से करें परंतु यह सारे कार्य अत्यंत निम्न प्रकार के थे इनसे कुछ खास परिणाम नहीं मिलते थे ।

8. अशोक ने धर्म महा मात्रों की नियुक्ति अनेक प्रकार के लोक कल्याणकारी कार्यों के लिए की थी।
- प्रवार्जित सन्यासी, गृहस्थ और सभी सम्प्रदायों की देखभाल के लिए नियुक्त किये गये।
-बौद्ध संघों की व्यवस्था की देख-रेख करते थे
-ब्राह्मणों, आजीविकों, निर्ग्रंथों की व्यवस्था भी देखते थे।
-वैसे तो धार्मिक संप्रदायों में भी विविध श्रेणियों और कार्यों के लिए अलग-अलग महामात्र पहले से ही नियुक्त थे परंतु धर्म महामात्र सभी संप्रदायों की देखरेख करते थे। इसका अर्थ यह है कि यह एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण पद था।
-धर्म महामात्रों तथा राज्य पुरुषों एवं राज्य कर्मचारियों द्वारा अशोक तथा रानियों के द्वारा दान देने का विवरण, व्यवस्था इत्यादि देखते थे। पाटलिपुत्र तथा राज्य के अन्य भाग में भी वे दान संबंधी व्यवस्थाओं को देखते थे। राजकुमारों के दान विवरण एवं व्यवस्था के लिए भी उनकी नियुक्ति थी।

9. क्योंकि दान, धर्म के सत्कार्य एवं धर्म प्रतिपादन के लिए होता है यह धर्मावदान और धर्म प्रीति को उत्पन्न करता है।

10. धर्म आचरण के लिए अशोक ने करुणा, सत्यता, सुचिता, साधुता एवं अच्छाई के भावों को लोगों में जाग्रत करने हेतु कहा हैं।

11. आगे अपने धर्म प्रचार की प्रगति के बारे में कहते हुए अशोक बताते हैं कि उनके द्वारा जो धर्म-कर्म के कार्य किए जा रहे हैं लोग उसकी तरह नकल कर रहे हैं एवं धर्म पालन कर रहे हैं इस प्रकार उन्होंने भी धर्म मार्ग पर प्रगति की है और आगे करते रहेंगे जैसे माता पिता की सेवा आदर, अपने से बड़ों का आदर, वयोवृद्ध-ब्राह्मण और श्रमणों के प्रति सद्भाव। गरीब, निर्धन एवं दास, नौकरों के प्रति उचित व्यवहार


12. इस विषय पर चर्चा करते हुए अशोक कहते हैं कि आज धर्म आचरण के प्रति अनुराग 2 तरीकों से लाया जा सकता है एक तो है धर्म नियमन और दूसरा है स्वाध्यात्म (dedication to Dharma)
धर्म नियमन से ज्यादा प्रगति की उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन स्वाध्याय से धार्मिक प्रसार की प्रगति तेजी से होती है। धर्म नियमन जैसे कि राज्य में पशु हत्या पर रोक लगा दी गई है।
परंतु स्वाध्याय से हम यह देखते हैं कि धर्म का प्रसार महत्वपूर्ण रूप से होता है इसका अभ्यास करने से लोग जीवित प्राणी को कष्ट देने अथवा मारने से बचने लगते हैं।

13. इसी कारण से अशोक कहते हैं कि अभिषेक के 27 में वर्ष में, धर्म लिपि उनके द्वारा लिखवाई गई, जिसमें उन्होंने आदेश दिया है कि जब तक अशोक के पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र राज करें, जब तक सूर्य चंद्र ऐसे ही चमकते रहें लोग इन आदेशों (राजाज्ञाओ) या उद्घोषणा का पालन करते रहे क्योंकि इसका पालन करने से इस लोक एवं परलोक में चरम सुख प्राप्त करता है।

आगे भी कहते हैं कि इस धर्म लिपि को वहां वहाँ उत्कीर्ण करना चाहिए जहां-जहां शिला स्तंभ और शिला फलक उपलब्ध हों जिससे यह चिरस्थाई हो सके।


प्रश्न : अशोक का जूनागढ़ अभिलेख


पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में प्रियदर्शिनी अशोक के शिलालेख, स्तम्भ इत्यादि मिले हैं, जिससे अशोक के विस्तृत राज्य और केंद्रीकृत प्रशासन व्यवस्था का पता चलता हैं। मौर्य साम्राज्य इतना महान था कि आगे आने वाले 700 वर्षों तक भारतीय राजाओं ने मौर्य साम्राज्य जैसा बनने की कल्पनाएं की, मौर्य शासको को अपना आदर्श मानते रहे।

अशोक के वृहद शिलालेखों में एक गिरनार (रैवतक पर्वत) में मिलता हैं, जो की अन्य कारणों से भी प्रसिद्ध हैं। इसी शिला पर बाद के दो महान राजाओं ने मौर्यो की नकल करते हुए अपने अपने आदेश भी उकेरे हैं। जिसमें पहला शक क्षत्रप रूद्रदमन था और फिर गुप्त सम्राट स्कन्धगुप्त।
ऐसा प्रतीत होता हैं कि गुप्त काल तक (चौथी शताब्दी) भारतीय ब्राह्मी लिपि पढ़ सकते थे और वे अशोक महान को जानते थे। इसलिए अन्य राजाओं ने कभी अशोक की राजाज्ञा को मिटाया नहीं बल्कि उसे सही सलामत रहने दिया एवं उसके साथ अपने संदेश अंकित करवा दिये।

गिरनार के शिला लेख बाकि चौदह वृहद शिला लेखों के समान बिल्कुल वहीं राजाज्ञा में लिखे हुए हैं। इसकी भाषा प्राकृत एवं लिपि अशोकन ब्राह्मी हैं।

लेख का पहला हिस्सा निम्नलिखित हैं, (भाषा प्राकृत-हिन्दी एवं लिपि- देवनागरी)
प्राकृत और पाली भाषा की सबसे बडी खासियत यह हैं कि ये आम साधारण लोगों की भाषाएं रही हैं। आज भी हम उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी की भाँति भाँति की बोलियां देखते हैं, पहले भी ऐसा ही था, प्राकृत भाषा की अपनी क्षेत्रीय भाषाएं थी। और संस्कृत अपनी जगह मानक भाषा थी यानी की कुलीनों की,

. इयँ धँमालिपी देवानँप्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता।
यह धर्म लिपि देवनमप्रिय प्रियदर्शीन राजा द्वारा लिखवाई गई है।

. इध न कँचि जीवँ आराभित्पा प्रजूहितव्यं।
यहां किसी भी जीव की हत्या या आहूति न दी जाये।

. न च समाजो कतव्यो।
और ना ही राज्य में कोई सामाजिक कार्यक्रम हो


. बहुकँ हि दोसँ समाजह्मि पसति देवानँप्रियो प्रियदसि राज।
क्योंकि सामाजिक कार्यक्रमों को देवनमप्रिय प्रियदर्शीन राजा बहुत ही ज्यादा दोषपूर्ण देखते हैं।


. अस्ति पितु एकचा समाज साधुमता देवानँ प्रियसि प्रियदसिनो।
परंतु देवनमप्रिय प्रियदर्शन राजा के अनुसार कुछ एक सामाजिक कार्यक्रम सात्विक भी होते हैं।


. पुरा महानसे जामा देवानँप्रियस प्रियदसिनो राञो अनुदावसँ बहूनि प्राण सतसहसानि आरभिसु सूपाथाय।
पहले देवनमप्रिय प्रियदर्शिनी राजा के रसोईघर में कई सौ हजारों प्राणियों को सूप बनाने के लिए प्रतिदिन वध किया जाता था।

. से अज यदा अयँ धँमलिपि लिखिता ती एव प्राण आरभरे सूपाथाय द्वो मोरा एको मगो सो पि मगो न ध्रुवों।
लेकिन अब जब यह धर्म लिपि लिखी जा रही है, सूप बनाने के लिए केवल 3 प्राणी मारे जाते हैं, उनमें दो मोर एक मृग है, तथापि मृग को प्रतिदिन नहीं मारा जाता।


. एते पात्री प्राणा पछा न आरभिसँरे।
अतैव ये प्राणी भी भविष्य में नहीं मारे जाएंगे।




समाज का अर्थ राजा के राज्य से हैं। कतव्यो का अर्थ राज्य के अन्दर होने वालों समाजिक कार्यक्रमों से हैं। सूपाथाय का अर्थ सूप या करी से हैं। आश्चर्यजनक हैं कि सूप अँग्रेजी भाषा का भी शब्द हैं। सतसहासिनी का अर्थ शतसहास्त्रिणी हैं मतलब सौ-हजारों। पुरा का अर्थ पहले, आरभिस का अर्थ वध करना हैं और महानसे का अर्थ रसोईघर हैं। ये शब्द आज भी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रचलन में हैं।




प्रश्न: सारनाथ स्तम्भ अभिलेख को संक्षिप्त में समझाये।

सारनाथ

सारनाथ का यह स्तंभ वाराणसी के उत्तर में मृगदाय नामक उद्यान में स्थित था, (इसीपतन)
माना जाता है कि बुद्ध ने अपना सबसे पहला उपदेश इस जगह पर दिया था। अशोक ने इस स्तम्भ की स्थापना कारवायी थी।
यह स्तंभ अब अब ध्वस्त हो चुका है लेकिन पूर्व में इसके शीर्ष पर चारों तरफ मुख किए हुए सिंहमूर्ती विराजमान थी। अभिलेख की भाषा प्राकृत हैं तथा लिपि ब्राह्मी हैं।

अभिलेख में आरंभ की तीन पक्तियां बुरी तरीके से नष्ट हो चुके हैं और चौथी पंक्ति आंशिक रूप से नष्ट है। इसी प्रस्तर स्तंभ पर दो और अभिलेख भी मौजूद हैं, पहला की राजा अश्वघोष का है और दूसरा गुप्त काल में एक बौद्ध अभिलेख हैं।

1. अशोक के अनुसार संघ को किसी व्यक्ति के द्वारा विभाजित नहीं किया जा सकता।
2. लेकिन वास्तव में यदि कोई व्यक्ति अवैध रूप से बौद्ध संघ को विभाजित करने का प्रयास करता हैं तो उन्हें सफेद वस्त्र धारण कराकर निर्जन क्षेत्रों (जंगल, गैर रिहायशी) में भेज दिया जाएगा।
3. इस आदेश को भिक्षु संघ एवं भिक्षुणी संघ को उपलब्ध करवाया जाए।
4. अशोक अपने अधिकारियों को आदेश देता है के इस आदेश की एक प्रति आप के कार्यालय में भी होनी चाहिए दूसरी प्रति अन्य अनुयायियों लोगों के बीच होनी चाहिए।
5. अनुयाई प्रत्येक उपवास के दिन आए और इस आदेश पर विश्वास रखते हुए, प्रेरणा ले।
6.महामात्य भी उपवास के दिन आए और इस उद्घोषणा पर विश्वास करते हुए प्रेरित हो एवं इसे समझें।
7. महामात्रौं का राज्य (आहार) जितने हिस्से में फैला हुआ है सभी जगह अपने अधिकारियों को आदेश का पालन कराने हेतु भेजना सुनिश्चित करें ।
8. इसी प्रकार अपने राज्य के अन्तर्गत आने वाले प्रशासकों को प्रेरित करे कि वे कोट (दुर्ग) एवं विषयों (जनपद) में मेरे अध्यादेशों का पालन करवाने हेतु निम्न-अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति सुनिश्चित करिए।


महत्व

इस शिलालेख से एक बात साबित होती है कि अशोक के काल में भी बौद्ध धर्म में विभिन्न मतभेद होने लगे थे, और इस प्रकार बौद्ध संघों में परस्पर विभाजन दिखने लगा था। हालांकि अशोक ने इसे रोकने के लिए प्रयास किए थे और इसी चरण में उसने इस अध्यादेश को जारी किया जिसमें कि संघ में भेद प्रकट करने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों को संघ से निष्कासित कर दिया जाता। यहाँ गौर करने वाली बात यह हैं कि अशोक का बौद्ध संघों की कार्यवाही पर पूरा नियंत्रण था।

निष्कासन के जिस तरीके का वर्णन अशोक ने किया है वह उस समय में एक प्रचलित परंपरा थी जिसमें कि बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों को सफेद वस्त्र पहना कर संघ एवं समाज से बाहर कर दिया जाता था।
घोषणा का कडाई से पालन कराने हेतु अशोक ने अपने राज्याधिकारियों (आहार) को महामात्रों को उपवास के दिन सार्वजनिक रूप से एकत्र होने वाले अनुयायियों वाले स्थान पर पहुंचकर इस अध्यादेश को प्रसारित करने एवं लोगो में विश्वास के साथ प्रेरित करने का आदेश दिया है, साथ ही प्रशासकों को अपने नीचे कोट (दुर्ग) एवं विषय (जनपद) स्तर पर भी ऐसे अधिकारियों को नियुक्त करने का आदेश दिया है जो उपवास के दिन एकत्र होने वाले लोगों के बीच इस अध्यादेश का प्रसार कर सकें।


प्रश्न: रुम्मिनदेई स्तम्भ अभिलेख के ऊपर प्रकाश डालिए

रूम्मिनदेई
रुम्मिनदेई स्तभ की खोज ए फ्यूरेर ने 1896 में की, बुहलर ने 1898 में इस पर लिखे अभिलेख का अनुवाद किया था।
रूम्मिन देई का अभिलेख, नेपाल की तराई में रूम्मिन देवी मंदिर के अंदर स्थित है। अपने अभिषेक के 20 वर्ष में अशोक यहां आया था एवं बुद्ध के प्रति समर्पित इस रूप में पूजा अर्चना भी की थी इस अभिलेख के अनुसार बुद्ध शक्यमुनी का जन्म यहीं हुआ था इसलिए यह पवित्र स्थान था। अशोक ने यहां एक पत्थर की दीवार का निर्माण कराया एवं शिला स्तंभ भी स्थापित करवाया था। बुद्ध का जन्म स्थान होने की वजह से अशोक ने इस क्षेत्र में भूमिकर को कम करके उपज का केवल 1/8 हिस्सा कर दिया था।


महत्व -
इस अभिलेख के बारे में सातवी सदी के चीनी यात्री वर्णन करते हुए कहते हैं कि यहाँ के शिलास्तम्भ के शीर्ष पर धोड़े की आकृति थी जो कि आकाशीय बिजली गिरने के कारण ध्वस्त हो गई।

सबसे महत्वपूर्ण जानकारी मौर्य काल के कृषि पर लिए जाने वाले कर(उबलिक)के बारे में मिलती हैं, जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिए गये करमूल्य 1/6 भाग की पुष्टि करती हैं, यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था, इसीलिए इस क्षेत्र में बुद्ध के प्रति समर्पण के कारण कर को 1/6 से घटाकर 1/8 कर दिया गया था

प्रश्न : गुजर्रा शिलालेख के महत्व को बतलाईए

गुजर्रा

पाँच पंक्ति का छोटा सा अभिलेख, मगधी प्राकृत का हैं। और ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ हैं। गुजर्रा स्थान दतिया जिले में स्थित हैं। इसकी खोज काफी बाद में 1970 के दशक में की गयी थी।

1=
अशोक पहले 2.5 वर्ष तक बौद्ध धर्म का उपासक (अनुयायी) रहा। इस काल में उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कुछ खास नहीं किया।

2=
अब फिर एक वर्ष से अधिक समय से वह पूर्ण रूप से बौद्ध संघ में सम्मिलित कर लिया गया है, जहाँ वह पूरी ऊर्जा के साथ योगदान दे रहा हैं।

3=
एक तरफ जहाँ जम्बूद्वीप में, सामान्य जन देवताओं से दूर थे (मिश्रित नहीं हुए थे) अब देवताओं, संतों, मुनियों के नजदीक आ गये हैं। यह सब अशोक के प्रयासों (पराक्रम) से सफल हो सका हैं।

4=
प्रयास करने, धर्माचरण करने एवं प्राणियों से आदरपूर्ण व्यवहार करने पर क्षुद्र व्यक्ति भी विपुल स्वर्ग को प्राप्त कर सकता हैं।

5=
अत: क्षुद्र (निर्धन) और उदार (धनी) व्यक्ति सभी धर्म का आचरण करे और योग को (इहलोक और परलोक कल्याण को) प्राप्त हो, इस प्रायोजन के लिए सुनाया गया।

6=
सीमावर्ती लोग भी यह जाने कि क्या धर्माचरण चिरस्थाई बन सकता हैं। अवश्य यह धर्माचरण अत्यंत बढेगा।

7=
श्रावण मास के 256 वे पड़ाव पर यह सुनाया गया।


महत्व -
गुजार्रा का यह लघु स्तंभ दतिया जिले में मिला है जो कि अशोक के काल का है इस लघु स्तंभ पर सर्वप्रथम हमें मौर्य सम्राट अशोक का नाम देखने को मिलता है जहां उसे "देवनांप्रियस अशोक राजस" के तौर पर दर्शाया गया है, अभिलेख के आरंभ में अशोक बौद्ध संघ में अपने को दर्शाता है। और यह भी बताता है कि उसके प्रयासों से लोग धर्म की ओर अग्रसर हुए, (देवो को जानने लगे)
अशोक यह बताता है कि धर्म आचरण करने संयम रखने और धर्म प्रसार करने से निर्धन एवं शुद्ध व्यक्ति भी स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है शूद्र या निर्धन व्यक्ति और धनी अथवा उदार व्यक्ति दोनों धर्म का आचरण करें इससे यह लोग और परलोक दोनों में कल्याण होगा अशोक सीमावर्ती लोगों को भी धर्म आचरण करने की सीख देता है अंत में सबसे महत्वपूर्ण यह है के अशोक इसमें लेख को लिखवाने का समय भी बताता है जोकि श्रावण मास में अपनी लम्बी तीर्थयात्रा के 256 दिन इस क्षेत्र में आने का होता हैं।


प्रश्न : पनगुड़रिया अभिलेख की उपयोगिता स्पष्ट करिए


पनगुडरिया अभिलेख

यह अभिलेख मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में स्थित अंगुरिया नामक गांव से प्राप्त हुआ है इसकी भाषा मागधी-प्राकृत है और लिपि ब्राह्मी हैं, अभिलेख की खोज 1978 ईसवी मे हुयी थी। इस अभिलेख में कुल 8 पंक्तियाँ हैं।

यह लेख अशोक द्वारा उपनीथ विहार की यात्रा करते हुए, माणेम देश के राजा कुमार संवस (शायद राजूका) को उद्बोधन स्वरूप दिया जाता है।

यह आदेश मेरे द्वारा तब जारी किया जब मैं धर्म यात्रा पर था और राजधानी से 256 दिन बाहर रह चुका था।

1= अब तक मुझे धर्म का उपासक हुए ढाई वर्ष हो गए, आरंभ में मैं धर्म के प्रति पूर्ण सक्रिय नहीं रहा अब लगभग 1 साल से अधिक समय से मेरा बौद्ध धर्म के साथ आत्मीय संबंध हो गया है अब मैं धर्म के प्रति पूर्ण सक्रिय हूं।
पहले जम्मू द्वीप के लोगों का देवों के साथ संबंध नहीं था लेकिन मेरी सक्रियता और प्रयास से अब जम्मू द्वीप के लोग देवों से संबंध हो चुके हैं।
यह इस कारण संभव नहीं हुआ है कि मैं एक बड़ा समृद्ध व्यक्ति हूं यदि कोई क्षुद्र निर्धन व्यक्ति भी धर्म का सक्रियता से पालन करे तो उच्च स्वर्ग को पा सकता है।

यह आदेश इसलिए जारी किया गया है कि छोटे तथा बड़े समृद्ध लोग धर्म आचरण करें।
सीमांती प्रदेशों में रहने वाले लोगों को यह पता होना चाहिए कि धर्म का पालन करने से वह अत्याधिक उन्नति करेगा।
उसकी मृत्यु हो गई और वह स्थाई हो जाएगा
जहां भी शिलाये हैं और शिला स्तंभ है सभी जगह इस कथन को उत्कीर्ण किया जाए।


महत्व - पानगुडरिया का महत्व गुजर्रा की तरह ही हैं।

अभिलेख के आरंभ में अशोक बौद्ध संघ में अपने को दर्शाता है। और यह भी बताता है कि उसके प्रयासों से लोग धर्म की ओर अग्रसर हुए, (देवो को जानने लगे)
अशोक यह बताता है कि धर्म आचरण करने संयम रखने और धर्म प्रसार करने से निर्धन एवं शुद्ध व्यक्ति भी स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है शूद्र या निर्धन व्यक्ति और धनी अथवा उदार व्यक्ति दोनों धर्म का आचरण करें इससे यह लोग और परलोक दोनों में कल्याण होगा अशोक सीमावर्ती लोगों को भी धर्म आचरण करने की सीख देता है अंत में सबसे महत्वपूर्ण यह है के अशोक इसमें लेख को लिखवाने का समय भी बताता है जोकि अशोक अपनी धर्म यात्रा के 256 वे पड़ाव पर होता हैं।











-: अध्याय 3 :-


प्रश्न : हेलिओडोरस का बेसनगर गरुड़ स्तम्भ अभिलेख के आधार पर तत्कालीन राजनैतिक धार्मिक इतिहास पर विवेचना कीजिये

बेसनगर गरूड़ ध्वज

यह विदिशा के समीप, बेसनगर में ब्राह्मी-संस्कृत प्रभावित प्राकृत में दूसरी सदी ईसा पूर्व का हैं।


1=देवताओं के देवता वासुदेव का यह गरुड़ध्वज डियस पुत्र हेलियोडोरस द्वारा स्थापित किया गया।
जो कि एक भागवत अनुयायी एवं तक्षशिला के इन्डो ग्रीक शासक अन्तिलिकितस (antialkidas) का दूत था।

2=यह अभिलेख राजा काशीपुत्र भागभद्र के अभिषेक के चौदहवें वर्ष में स्थापित किया गया।

3=इसके बाद दूसरा पद महाभारत का श्लोक हैं, जिसका अर्थ
तीन अमृत पदों का यदि पालन किया जाये तो स्वर्ग ले जाते हैं - दम, त्याग एवं अप्रमाद।।


राजनैतिक महत्व


1. उस काल में जब यह अभिलेख लिखा गया तब भारत के उत्तर पश्चिम में इंडो ग्रीक शासकों का आधिपत्य था और मध्य भारत में शुंग राजाओं का अधिपत्य था इस प्रकार इस का समय काल पहली शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास हो माना जाता है।

2. अभिलेख यह दर्शाता है कि भारतीय राजाओं के दरबार में उस काल में इंडो ग्रीक शासकों द्वारा दूतों की नियुक्ति की जाती थी यह तत्कालीन सौहार्दपूर्ण संबंध के बारे में भी इंगित करता है।

3. तत्कालीन समय में एन्टियालकिडस के नाम से इन्डो ग्रीक शासक, तक्षशिला राजधानी से उत्तर पश्चिम भारत पर राज्य करता था। इस बात की पुष्टि तत्कालीन इन्डौग्रीक शासकों के पंजाब के क्षेत्र में मिले सिक्कों से होती है।

4. जबकि विदिशा समेत, काशी मगध पर शुंग शासक भागभद्र का शासन था। कालिदास द्वारा लिखित मालविका अग्निमित्र इस बारे में और प्रकाश डालती है कि उस काल में इस क्षेत्र में शुंग शासकों का राज था।

हालांकि पुराणों की सूची में इस नाम से किसी शुं शासक का वर्णन नहीं मिलता।
ब्राह्मण पुराण में "भद्रक" तथा भागवत पुराण में "भद्रक" का नाम आता है जिससे वसुमित्र का उत्तराधिकारी माना जाता है। परंतु इस का शासनकाल दो अथवा 7 वर्ष ही उल्लेखित है। जबकि हमारे अभिलेख में भागभद्र के 14 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस प्रकार यह कोई ऐसा शासक रहा होगा जिसने कम से कम 14 वर्ष शासन किया होगा। पुराणों की जानकारी के अनुसार पुष्यमित्र शुंग के बाद केवल "भागवत" ही ऐसा शासक रहा है जिसने 32 वर्ष शासन किया है। अतः डॉ भगवतशरण उपाध्याय डॉक्टर जयसवाल डॉक्टर भंडारकर डॉक्टर राजबली पांडे इत्यादि भागवत को ही भागभद्र के नाम से जोड़कर देखते हैं। डॉक्टर राय चौधरी ने हालांकि इसे उचित नहीं माना है क्योंकि बेसनगर से ही एक-दूसरे गरु स्तंभ की प्राप्ति हुई है जो महाराजा भागवत के नाम से उत्कीर्ण है अतः वे यह कहते हैं कि एक ही स्थान से प्राप्त दो अभिलेखों में राजा के दो अलग-अलग नाम अंकित हो ऐसा संभव नहीं है इसीलिए काशी पुत्र भागभद्र कोई भी भिन्न शासक रहा होगा यह भी हो सकता है कि वह विदिशा का स्थानीय शासक हो।

5. इस अभिलेख से हमें यूनानी शासक अन्तिलिकितस (antialkidas) एवं भागभद्र के तिथि निर्धारण में सहायता मिलती है।

6. अभिलेख में भाग भद्र को त्रातारस (संकटमोचक) यानि की यूनानी सोटेर की उपाधि दी गई हैं। इस उपाधि को देने का कारण यह हो सकता है के भारतीय शासक ने यूनानी राजा की किसी विदेशी हमले से सहायता की हो तभी उसे संकटमोचक या रक्षक की उपाधि दी गई है।

7. उपरोक्त अभिलेख ने भारत एवं Indo-Greek शासक के बीच में सांस्कृतिक संबंध का एक अनूठा उदाहरण मिलता है जहां एक र भारतीय शासक को त्रातारस (सोटेर) नामक यूनानी उपाधि मिलती है वही विदेशी शासक के लिए महाराजा नाम से भारतीय उपाधि की जानकारी मिलती हैं। यह दोनों संस्कृतियों में आपसी सांस्कृतिक लेनदेन की ओर इशारा करती हैं।


सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व

1. यह अभिलेख भारत में वैष्णव धर्म के विकास एवं इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश डालता है इससे स्पष्ट होता है कि उस समय भारतीय एवं विदेशी समाजों में वैष्णव धर्म का प्रचलन था।

2. यहां वैष्णव के प्रमुख देवता वासुदेव कृष्ण का उल्लेख है , जिन्हें देवताओं के देवता माना गया है। मेगस्थनीज ने भी अपने पुस्तक इंडिका में यमुना नदी के किनारे शौरसेन (मथुरा) में वासुदेव कल्ट के बारे में जिक्र किया है। स्तम्भ का जिक्र गरुड़ध्वज के नाम से अतः इस स्तंभ के शीर्ष पर गरुण की आकृति स्थापित होगी। पौराणिक स्त्रोतों में गरुड़ का संबंध वैष्णव धर्म से दिखाया गया है।

3. वैष्णव धर्म इन्डो ग्रीक में भी काफी लोकप्रिय था, इसके साथ ही साथ विदिशा जो कि पारम्परिक रूप से बौद्ध स्थलों का केन्द्र था, वहाँ पर वैष्णव धर्म का प्रचार भारतीय संस्कृति में निहित सहिष्णुता का परिचायक हैं।

4. वैष्णव धर्म के समर्थन स्वरूप इसी अभिलेख में सबसे नीचे महाभारत के उद्योग पर्व का श्लोक भी दिया गया हैं जिसका भावार्थ दम, त्याग एवं अप्रमाद की सिद्धि करके स्वर्ग में अपना स्थान सुनिश्चित करना हैं। ये वैष्णव धर्म के आदर्शों को अभिव्यक्त करते हैं।




प्रश्न : खारवेल का हाथीगुम्पा अभिलेख से खारवेल की राजनैतिक उपलब्धियों पर निबंध लिखिए

हाथीगुम्पा खारवेल चेदी अभिलेख


उदयागिरी-खंडागीरी गुफाओ, भुवनेश्वर से लगभग प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व चेदीवंशी राजा खारवेल की उपलब्धियों राजनैतिक एवं लोकमंगल के कार्यों का उल्लेख मिलता हैं, लिपि मौर्योत्तर ब्राह्मी हैं, तथा भाषा पश्चिमी-मगधी हैं। अभिलेख जैन धर्म के मंगल कार्यो के बारे में भी जानकारी उपलब्ध करवाता हैं।
लेख में कुल 17 छंद हैं

- खारवेल, महान महामेघवाहन का उत्तराधिकारी और चेदी वंश का था, एक प्रतापी शासक था जिसकी प्रसिद्धि चारों दिशाओं में फैली।

- खारवेल, आरम्भ में 15 वर्ष धूलधूसरित होकर सामान्य प्रमोद के कार्य खेल इत्यादि में रहे। फिर इन्हे युवराज घोषित कर दिया गया अगले नौ वर्ष तक युवराज ने लेख रूप गणना व्यवहार विधि पर विशारद हासिल किया और लेखन विद्या, मुद्रा परिचय, गणित, विवाद मीमांसा इत्यादि धर्मशास्त्रों का निष्पादन किया। इस प्रकार चौबीस वर्ष की आयु पूरी होने पर शैशव से वर्धमान पृथु के समान विजय करने वाला यह युवा हुआ एवं यह तीसरा कलिंग राज हुआ।

1. अभिषेक के प्रथम वर्ष में ही उसने नगर द्वार, प्राचीर एवं गोपुर का पुनर्निर्माण करवाया।
जो कि तूफान में नष्ट हो गये थे। खिबिर ऋषि के नाम पर एक झील के बाँध का निर्माण पक्का करवाया। सभी उद्यानों का निर्माण करवाया। शीतल जल युक्त ताडाग (तालाब) बनवाए, कलिंग नगरी दुर्गों का जीर्णोद्धार करवाया। इन सब पर 35 लाख खर्च किये। और लोगो को सन्तुष्ट किया।

2. द्वितीय वर्ष में कलिंग नरेश ने शतकर्णी को अनदेखा करते हुए, पश्चिम की दिशा में घोड़ों, हाथियों, पैदल सैनिकों तथा रत्नों से युक्त बहुत बड़ी सेना को भेजा यह सेना कान्हा वेंणा (कृष्ण नदी के पार) नामक स्थान तक पहुंची और वहां मुसीकाओ की नगरी को आतंकित एवं नष्ट कर दिया।

3. तीसरे वर्ष में गंधर्व संगीत शास्त्र के ज्ञाता खारवेल ने दप (मल्ल) प्रदर्शन, नृत्य, गीत वादन प्रदर्शन, उत्सव, सभा (समाज) के द्वारा जनता का मनोविनोद किया।।

4- अपने राज्यकाल के चौथे वर्ष में कलिंग सम्राट ने अपने पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा बनवाए गए विद्याधर नगर के निवासियों के अनुरोध पर उन्हे परेशान करने वाले रथिको और भोजको से इस नगर को दुबारा छीन लिया, उनके भव्य इमारतों के किरीट, शिखर, छतरी और भिन्गारा का इत्यादि जोकि रत्नों से बने थे, गिरा दिये एवं उन्हें चरण वंदना करने को मजबूर कर दिया।

5- पांचवें वर्ष में कलिंग नरेश ने 300 वर्ष पूर्व नंद राज द्वारा खुदवाई गई तनसूलीय नहर को मरम्मत करवाया एवं अपने नगर तक आगे बनवाया।

6- छठे में वर्ष में अपने राज्य के ऐश्वर्य एवं वैभव का प्रदर्शन करते हुए सभी वर्णों के बीच 1 लाख मुद्रा को पौर-जनपद में व्यय किया।

7- सातवे वर्ष में वाजिरघर की रानी से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ।

8- आठवीं वर्ष उसने विशाल सेना के साथ गोरधगिरी (बिहार) पर हमला कर ध्वस्त कर दिया। राजगृह को उत्पीड़ित करके दबाव बनाया। वीरता के इस प्रदर्शन की रिपोर्ट जब यवन राजा डिमित तक पहुंची तो वह हतोत्साहित सेना एवं वाहन त्याग कर मथुरा भाग गया। उसे पल्लव, कल्प वृक्ष, हाथी, सारथी युक्त रथ, गृह, निवास एवं आरामगृह इत्यादि मिलता हैं, और इसे स्वीकार करने हेतु होम यज्ञ, ब्राह्मणों एवं अरहतों को करमुक्त दान देता हैं।

9- वह एक राज महल बनवाता है जिसका नाम महाविजय महल होता है इसकी कीमत 38 लाख रुपए होती है।

10- अपने 10वे वर्ष में वह त्रि-नीति अपनाता हैं जिसमें दण्ड, संधि, साम(सुलह) से पूरे भारतवर्ष की विजय पर निकलता हैं। और अनेक राज्यों को विजित करके हुए बहुमल्य रत्न, एवं वस्तुओं को पराजित राज्यों से प्राप्त करता हैं।

11 - ग्यारहवे वर्ष व्यवसायिक नगर पिथुण्ड(तमिल) पर हमला करके वहाँ गधों के हल से धरती जोत देता हैं। (अर्थात अत्यधिक धन सम्पदा को लूट कर अपने साथ ले जाता हैं)

वह 130 वर्षों से चली आ रही, त्रैमीर देशों की संयुक्त सेनाओं के गठबन्धन को, जो कि उसके राज्य के लिए खतरा बन चुकी थी, तोड़ देता हैं।


12- 12वे वर्ष में वह उत्तरपथ के शासक को हजारो हाथियों से भयभीत कर देता हैं। मगध की जनता में कोलाहल मच जाता हैं। वह अपने हाथियों को मगध के महल में घुसा देता हैं। और मगधराज वृहस्पतिमित्रा को उसके चरणों में वन्दना करने को मजबूर कर देता हैं। वृहस्पति मित्र उसके चरणों में कलिंग जिन की प्रतिमा को जो कि नन्द राजा द्वारा पहले ले जा चुकी थी, को समर्पित करता हैं।
वह मगध एवं अंग देश की सम्पदा को उनके राजसी लोगों (बंदी बनाकर) के साथ कलिंग ले आता हैं।

13- वह एक बहुत शानदार इमारत बनवाता है जिसमें बेहतरीन नक्काशी होती हैं। सौ मिस्त्रियों का एक गाँव बनवाता हैं, उन्हे भूमि राजस्व में रियायत देता हैं, हाथियों, घोड़ों, इत्यादि के लिए एक मार्बल के बने अहाते का निर्माण करवाता हैं।
घोड़े, हाथी, असंख्य मणियां एवं मुक्ता मणि पांड्या राजा की तरफ से आई हैं। जिसे खारवेल ने अपने 13 वर्ष में हराया था।

14- कुमारीपर्वत (उदयागिरी खण्डागिरी) जहां विजय का धर्म चक्र घूमता रहता है वहां उसने आदर पूर्ण रखरखाव हेतु धन अर्पण किया, चीनी वस्त्र एवं श्वेत वस्त्रों को औरतों को अर्पण किया जो कि जीवन के चक्र को खत्म करते हैं और धार्मिक जीवन एवं आचारों पर उपदेश देते हैं ।
यह स्मृति चिन्ह जैन धर्म के उपासक एवं पूजक खारवेल द्वारा लगवाया गया हैं जिसने जीव और देह की प्रकृति का मर्म जान लिया हैं। और ज्ञानी, सन्यासियों, साधुओं के संघ को सैकड़ो की सभा का आयोजन करवाया।
उसने 64 अक्षरो एवं सात वर्गो के अंग का लेखन कार्य सम्पन्न करवाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई हैं। वह

क्षेमराज (शान्ति का राजा हैं)
वृद्धराज (समृद्धि का राजा हैं)
भिक्षुराज (भिक्षुओ का राजा हैं)
धर्मराज (धर्म का राजा हैं)
गुणविशेष कुशल (जो देख, सुन एवं वरदान सार्थक करता हैं)
सर्वपार्षद पूजक (अद्वितीय गुणो को साधने वाला हैं)
सर्वदेवायनसंस्कार कारक (सभी सम्प्रदायो, सभी मंदिरो का जीर्णोद्धार करने वाला)
अप्रतिहत चक्रवाहिनीबल (जिसके रथ, सेना रोके न जा सके हो)
चक्रधर
गुप्त चक्र
प्रवृतचक्र
राजर्षि वसु कुल (राजर्षि वसु के कुल का हैं)

the Great conqueror, the King, the illustrious Kharavela.










प्रश्न : पतिक का तक्षशिला ताम्र पत्र अभिलेख के बारे में बताइये


Taxila copper plate Inscription of Pattika


तक्षशिला गांधार क्षेत्र में मिली यह ताम्रपत्र खरोष्ठी लिपि में है इस ताम्रपत्र में बुद्ध शाक्यमुनि के रेलिक (अवशेष) को एक बौद्ध मठ को दान देने का वर्णन है

दान कर्ता का नाम पतिक कुशुलक पुत्र लियाक कुसुलक, चुक्ष क्षेत्र के सत्रप के तौर पर दिखाया गया। चुक्ष क्षेत्र तक्षशिला के समीप हैं।


ताम्रपत्र में यूनानी माह पेनेमोस एवं शक राजा मोगा के वर्ष का संदर्भ दिया हुआ है ।


1. भारतीय शक शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।
2. पतिक कुशुलक नामक शासक का वर्णन मथुरा के सिंह कैपिटल में भी एक महान शासक के तौर पर मिलता हैं।

3, पतिक एक शक भाषा का शब्द हैं जिसका अर्थ होता हैं नेतृत्वकर्ता, जबकि कुशुलक शब्द शक भाषा के शब्द कुजुलक से आया हैं जिसका अर्थ होता हैं प्रयास करने वाला। इससे ज्ञात होता हैं कि पतिक एक शक व्यक्ति था।



प्रश्न : कनिष्क-II का आरा (पंजाब) अभिलेख से कुषाण इतिहास लेखन पर प्रकाश डालिए

आरा पंजाब कनिष्क तृतीय का अभिलेख

महाराजा राजति राजा देवपुत्र कैसर कनिष्क पुत्र वजेष्क (वशिष्क) अपने राज्य के 41 वे वर्ष में
यह कुआं दशव्हार, पोशापुरपुत्र ने अपने माता पिता के सम्मान में अपने एवं अपने परिवार, और सभी लोगों के लिए खुदवायाँ।


महत्व -

  1. इस अभिलेख में हमे पहली बार क़ैसर शब्द देखने को मिलता हैं, क़ैसर शब्द, रोमन उपाधि सीजर से आया हैं, इसका अर्थ हुआ कि कुषाण सम्राट उस दौरान रेशम मार्ग के एक हिस्से पर नियंत्रण रखते थे। जिसकी वजह से उन्हे रोमन-चीन व्यापार के माध्यम से रोमन संस्कृति और उसके राजनीतिक उपाधियों के बारे में भी जानकारी मिली होगी, यह जानकारी रोमन सिक्को से प्राप्त हुयी होगी, जिसे उन्होने भी अपना लिया। कुषाण राजा ईरानी शहँशाह, भारतीय महाराजदिराज और चीनी देवपुत्र जैसी उपाधियों को पहले से ही धारण करते थे।

  2. इसमे कनिष्क का नाम पता चलता हैं। संवत 41 लिखा गया हैं। अनुमान के अनुसार 41 संवत दरअसल 141 हैं, अभिलेख लिखते समय उस काल में स्थान बचाने हेतु संवत के अंतिम दो अक्षर ही लिखे जाते थे। यह संवत कुषाण सम्राट कनिष्क प्रथम के राज्याभिषेक से आरम्भ होता हैं अत: 115 ईसवी के आस पास आरम्भ होना चाहिए। पहले के अनुमानो में कनिष्क प्रथम का काल 78 ईसवी लगाया जाता था, उसे अनुसार अभिलेख का काल 209 ईसवी होना चाहिए था, वंशावली देखने से यह काल कनिष्क द्वितीय का आता हैं परन्तु अभी हाल की खोजो से कनिष्क प्रथम का काल 115 ईसवी से आरम्भ माना जाता हैं, अत: उपरोक्त अभिलेख की सही तिथि 266 ईसवी होगी, यह काल कनिष्क-III का माना जाता हैं।


कनिष्क तृतीय - 265-270 ईसवी (कनिष्क संवत 141)



प्रश्न : वाशिष्ठी पुत्र पुलुमावी के वर्ष 19 का नासिक अभिलेख के आधार पर सातवाहन इतिहास पर प्रकाश डालिए


वशिष्ठी पुत्र पुलुमावी के 19वे वर्ष का अभिलेख

यह लेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में हैं, अभिलेख पुणे जिले में पंडवालेनी गुफा में उत्कीर्ण करवाया गया था।

1- यह अभिलेख गौतमीपुत्र सातकर्णि की माता गौतमी बालाश्री द्वारा लिखवाया गया जब उसने त्रिरश्मि पर्वत शिखर पर महिढीक गुफाओं को निर्मित करवा के भद्रायणी भिक्षु संघ को दान दिया।

2-अभिलेख में सातकर्णि की तुलना हिमालय मेरु और मंदार पर्वत के समान बलवान के तौर पर की गई है।

3- उसका राज्य अत्यन्त विशाल था।
असिक - गोदावरी और कृष्णा के बीच
असाक-गोदावरी तटीय क्षेत्र
मूलक - पैठन के आसपास का क्षेत्र
सुरथ- सौराष्ट्र
कुकुर- उत्तरी काठियावाड़
अपरान्त- मुम्बई का उत्तरी क्षेत्र
अनूप- नर्मदा का आसपास महिष्मति
विदर्भ- बरार, पूर्वी महाराष्ट्र
अकरावन्ती-पश्चमी मालवा

ये पर्वत इसके आधीन क्षेत्रों में आते थे
विन्ध-विन्धाचल पूर्वी भाग
छवत-विन्ध का मध्य भाग
पारिचात- पारियात्र पर्वत विन्ध्य उत्तर पश्चिम
सह्याद्रि - उत्तर पश्चिम घाट
कन्हागिरी - कान्हेरी
मच्च - मत्स्य
सिरिटन - ?
मलय - दक्षिण पश्चिम घाट
महेन्द्र - पूर्वी घाट (आन्ध्रा-उडीसा)
सेटगिरी-सप्तगिरी (तिरूमाला रेन्ज)
चकोर - पूर्वी घाट दक्षिण आन्ध्रा

इसका राज्य दक्षिण में कृष्णा उत्तर में मालवा, पश्चिम में कोंकण से विदर्भ तक
बंगाल की खाड़ी और अरब सागर, हिन्द महासागर तीनो तट तक साम्राज्य विस्तार था।।


गौतमी पुत्र शतकर्णी की विशेषताएं -
चेहरा सूर्य की किरणों से प्रस्फुटित कमल की पंखुड़ियों के समान सुन्दर एवं निर्मल था।
पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान उज्जवल था।
उसका तेज किसी स्वतंत्र मदमस्त हाथी के समान था।
बलिष्ठ भुजाओ का आकार एवं सौष्ठव शरीर नागराज की कुण्डली की तरह था। निर्भीक भुजाएं , निर्भयता प्रदान करने वाले दैवीय जल में मिश्रित हो चुकी थी।
प्रजा के दुख एवं कष्टों से सहानुभूति रखने वाला,
क्षत्रियों (क्षत्रपों) का दम्भ तोड़ने वाला।
शकों, यवनों और पहलवो को नष्ट करने वाला।

जनता पर न्यायोचित एवं यथेष्ट कर लगाने वाला।
अकारण ही जीव जंतुओं पर कष्ट न देने वाला फिर चाहे वह शत्रु ही क्यो न हो।

निर्धन कमजोर वर्गों एवं द्विजों सभी का समान रूप से पोषण करने वाला।

क्षत्रिय वर्ग का नाश करने वाला। खतिय दप मान मंदनस
सातवाहन वंश की ख्याति को फैलाने वाला।
जिसके चरणों में सभी राज्य वंदना करते हैं।
वर्ण संकर के प्रदूषण को रोकने वाला।
जिसने शत्रुओं के झुंड को कई युद्धों में हराया।
जिसका अजेय ध्वज कभी भी पराजित नहीं हुआ।
जिसकी राजधानी पर कभी भी शत्रु हमला न कर पाए हो।

राम, केशव, अर्जुन, भीमसेन की तरह प्रभाववान
नाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति राम, अम्बरीष के समान


पुलुमावी को दक्षिणापथेश्वर स्वामी कहा गया हैं, उसने पिसाजिपदक नामक ग्राम जो त्रिरण्हु त्रिरस्मि पर्वत के दक्षिण पश्चिम में था इस भिक्षु संघ को दान किया था।

प्रश्न : रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख से शक क्षत्रपो के इतिहास लेखन में क्या सहायता मिलती हैं , विचार रखिए

जूनागढ़ का रूद्रदामन अभिलेख


उपरोक्त अभिलेख का सर्वप्रथम अनुवाद जेम्स प्रिंसेप ने किया था। अभिलेख उसी शिला पर लिखा हुआ हैं जिस पर अशोक के गिरनार अभिलेख हैं। इसकी भाषा संस्कृत हैं और लिपि शाक-क्षत्रप ब्राह्मी हैं, अभिलेख रुद्रदामन के काल हैं (151 ईसवी), इस पर रुद्रदामन के अनिर्दिष्ट संवत 72 लिखा हुआ हैं जो संभवत: महासत्रप चष्टण के राज्याभिषेक से आरंभ हुआ शक संवत ही हैं। इसका अर्थ हुआ कि यह अभिलेख 150 ईसवी का हैं।


1-अभिलेख का आरंभ, महाक्षत्रप चष्टण के पौत्र राजा महाक्षत्रप रुद्र दामन द्वारा 72 वें वर्ष में गिरीनगर (गिरनार) में सुदर्शन झील के चारों तरफ बांध बनाने से होता हैं।
रुद्रदमन के पिता का नाम क्षत्रप जयदामन बताया गया हैं।

आगे लेख में बताया जाता हैं कि कैसे एक भयंकर वर्षा से भारी बाढ आ जाती हैं, ऊर्जायत पर्वत क्षेत्र की सुवर्णनासिकिटा और पलासिनि इत्यादि नदिया उफान पर चलती हैं, पर्वत शिखर ढह जाता हैं और सुदर्शन झील के बाँन्ध को नष्ट कर देता हैं।
इस झील का निर्माण मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गवर्नर (राष्ट्रीय) वैश्य पुष्यगुप्त द्वारा करवाया गया था। तत्पश्चात अशोक के काल में जल के प्रवेश एवं निकासी के लिए व्यवस्था यवन गवर्नर (अधिष्ठाया) तुषास्प ने करवाई।

अगले छंदों में रूद्रदामन की अलंकरण पूर्ण प्रशंसा की गयी हैं, और बताया गया हैं कि कहाँ कहाँ उसका साम्राज्य फैला था👇

पूर्व एवं पश्चिम अकरावन्ती - मालवा
अनूप - मान्धाता प्रदेश (महिष्मती के आस पास का नर्मदा नदी वाला हिस्सा)
आनर्त - द्वारिका
सौराष्ट्र - जूनागढ़ का पड़ोस का क्षेत्र
स्वभ्र - साबरमती का तटीय क्षेत्र
मरू - मारवाड़
अश्व-कच्छ - कच्छ
सिन्धु सौविरा - सिन्ध
कुकुर - उत्तरी काठियावाड़
अपरान्त - कोकंण
निषाद - सरस्वती और पश्चिम विन्ध का क्षेत्र

उसने अपने सामर्थ्य से यौधेयों को पराजित किया जिन्होंने समर्पण करने से इन्कार कर दिया। और जो अपने नेतृत्वकर्ताओ, महानपुरुषों इत्यादि के कारण अपने को गर्व से क्षत्रिय श्रेष्ठ कहते थे।

रूद्रदामन ने शतकर्णी दक्षिणपथ अधिपति को दो बार पराजित किया, परन्तु उसे नष्ट नहीं किया क्योंकि इनके साथ निकट सम्बन्ध थे। यह अवश्य ही वशिष्ठी पुत्र शतकर्णी रहा होगा क्यूंकि गौतमी पुत्र शतकर्णी के समय के अभिलेख उसकी शक-क्षत्रपों पर विजय के बारे में इंगित करते हैं।

रुद्रदमन, पराजित करने के बाद शासकों को सिंहासन पर पुनर्स्थापित करता था।

वह दान इत्यादि देकर धर्म के प्रति अत्यधिक जुडाव महसूस करता था।
व्याकरण, संगीत, तर्कशास्त्र, दर्शन के अध्ययन एवं स्मृति की वजह से ख्यातिप्राप्त हो गया था

वह अश्व, हाथी, रथ को भी चलाने में दक्ष था
तलवार, ढाल, मल्ल युद्ध इत्यादि में प्रवीण था
शत्रु सेना को कुशलता एवं तीव्रता से रोकने में सक्षम
जो दिन प्रतिदिन उपहार एवं सम्मान देता रहता था।
जिसका खजाना दिन प्रति दिन न्यायोचित तरह से राजस्व लगाकर अर्जित धन, सोना, मणिक, वैदूर्य (lapis lazuli) इत्यादि से भरा रहता था।

मधुर, बुद्धि मता पूर्ण, स्पष्ट सौंदर्य पूर्ण काव्यमय वाणी का मालिक है।

वह सुंदर काया, ऊँचाई, वाणी, चाल, रंग, तेजस्वता, ओजस्वता आदि से परिपूर्ण हैं।
उसने अपने कर्मों से अपने लिए महाक्षत्रप उपाधि को अर्जित किया हैं।
कई शासकों की पुत्रियों के स्वयम्बर में जयमाल से सुशोभित हैं।
ब्राह्मणो को गौ दान देकर महाक्षत्रप रुद्रदामन ने अपने लिए आदर और प्रसिद्धि का अर्जन किया हैं।


बिना किसी प्रकार के शुल्क या ‍अधिभार अपनी जनता पर डाले राजकीय कोष से इस झील का तीन गुणा मजबूती से निर्माण करवाया हैं।

अन्य मंत्रियों ने इस बाँध को बनवाने का विरोध किया परन्तु आम जनता के दुखों को कम करने के लिए सुविशाखा पुत्र कुलैप पहलवी, जिसे रूद्रदामन ने आनर्त और सौराष्ट्र का गवर्नर बनाया था ने इस झील का निर्माण करवाया।





महत्व - इस अभिलेख से दूसरी शताब्दी के दौरान शक साम्राज्य के विस्तार का विस्तृत विवरण मिलता हैं। अभिलेख में रुद्रदामन के राज्य विस्तार के बारे में बताया गया हैं, जिसमे तत्कालीन सिंधु, गुजरात, मालवा और कोंकण का क्षेत्र दर्शाया गया है, यह भी महत्वपूर्ण हैं कि गौतमी पुत्र शतकर्णी के द्वारा विजित प्रदेशों को उसके बाद के वशीष्ठी पुत्र शतकरणी, रुद्र दमन के हाथो हार गया था। अभिलेख में शतकर्णी की दो बार पराजय बताई गयी हैं, और शतकर्णी के साथ नजदीकी संबंधो पर भी प्रकाश डाला गया हैं।

अभिलेख में योधेयों के बारे में बताया गया है कि रुद्रदामन ने उनको भी हराया था। योधेयों का पारंपरिक क्षेत्र दिल्ली के आस पास का क्षेत्र माना जाता हैं, हो सकता हैं तत्कालीन योधेय शक्ति का प्रसार राजस्थान के क्षेत्र में भी हो गया हो और वे गुजरात-मालवा क्षेत्र के शकों के लिए खतरा बन गए हो जिसकी वजह से युद्ध आखिरी मार्ग रह गया हो। युद्ध के पश्चात उनकी शक्ति का विघटन होता हैं, लेकिन आश्चर्य जनक रूप से कुषाणों के बारे मे चर्चा नहीं की गयी हैं। इसका कारण शकों द्वारा कुषाणों की अधीनता स्वीकारना भी हो सकता हैं।

रुद्रदमन ने अपने शत्रुओ को पराजित करने के बाद उन्हे क्षमा दान देकर दुबारा सत्ता पर स्थापित किया था। कम से कम सातवाहनों के साथ तो ऐसा करने का झलक मिलता हैं।

रुद्रदामन एक शक्तिशाली और साहसी शासक था, उसके कई राज्यो से वैवाहिक संबंध होने की तरफ भी इंगित किया गया हैं। गुजरात में मौर्य काल से ही विदेशी व्यक्तियों को बड़े बड़े पद पर होने का उदाहरण मिलता हैं , अशोक के काल में यवन राजा तुषास्प वहाँ का गवर्नर था, रुद्रदामन जो स्वयं शक था का भी सौराष्ट्र क्षेत्र का गवर्नर एक पहलवी व्यक्ति सुविशाखा था, जिसने ही सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया एवं इस अभिलेख को स्थापित करवाया था।





















-:अध्याय 4 :-

प्रश्न : समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख (इलाहाबाद) के आधार पर समुद्रगुप्त की विजयों एवं उसके चरित्र पर चर्चा करिए


समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति

यह अभिलेख अशोक के शिला स्तम्भ पर उत्कीर्ण करवाया गया था, स्तम्भ मूल रूप से कौशांबी में रहा होगा जो बाद में प्रयाग के किले में स्थापित करवा दिया गया। अभिलेख 33 पंक्तियो में दिया गया हैं भाषा संस्कृत हैं तथा लिपि गुप्त कालीन ब्राह्मी हैं। अभिलेख में गद्य और पद्य दोनों ही प्रकार के छंदो पर प्रयोग हुआ हैं अत: इसे चंपू शैली कहा जाता हैं।


रचयिता हरिषेण- गुप्त साम्राज्य के कुमारमात्य, महादन्डनायक, संधिविग्रहिक
उत्कीर्णक - तिलभट्टक महादण्डनायक
काल – समुद्रगुप्त का काल (335-375 ईसवी)


अभिलेख में कोई तारीख नहीं हैं।
ऊपर की दो पंक्ति पढ़ने योग्य नहीं हैं, कुछ में शब्द मिट चुके हैं।

यहाँ हरेक पंक्ति को अंक दिया गया हैं, ऐसा पहली बार देखा गया।

राजनैतिक या ऐतिहासिक महत्व

1. इस अभिलेख में तत्कालीन भारतीय भौगोलिक स्थिति और राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार कई देशों, राज्यों, जातियों एवं शासको के नाम दिए गये हैं जो कि चौथी सदी के भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए एक बहुमूल्य स्त्रोत हैं।

2- इस अभिलेख के द्वारा हमें गुप्त वंश के आरंभिक शासकों एवं समुद्रगुप्त के सत्तारूढ होने के बारे में विशेष जानकारी मिलती है।

3- पंक्ति संख्या 17 और 18 में, उस दौरान युद्ध में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र शस्त्रों की प्रत्यक्ष जानकारी मिलती हैं। परसु, शर, शन्कु, शक्ति, प्रास, तोमर, भिण्डीपाल इत्यादि

4- चौथी सदी के मध्य में गुप्त साम्राज्य के भौगोलिक विस्तार के बारे में सटीक जानकारी मिलती है असल में इस अभिलेख का एक बहुत बड़ा हिस्सा समुद्रगुप्त की सैन्य विजय पर समर्पित है।

5- अशोक के काल में जैसे कि हमें उसके अभिलेख से ही पता चलता है उत्तर भारत के हिस्से को जम्बूद्वीप कहा जाता था। लेकिन इस अभिलेख में हमें उत्तर भारत के बारे में आर्यावर्त शब्द देखने को मिलता है।

6- छठवीं पंक्ति में समुद्रगुप्त के आर्यवर्त युद्ध के बारे में बताया गया है जिसमें वह अच्युत नागसेना और गणपति के गठबंधन को पराजित करता हैं।


7- दक्षिणापथ युद्ध (छन्द 20-21), इन छंदों में समुद्रगुप्त की दक्षिण विजय के बारे में जानकारी दी गयी हैं, और यह भी बताया गया हैं कि उसने अपने दक्षिण के अभियान में किस किस राज्य को पराजित किया,
1. कौशल के शासक महेन्द्र को पराजित किया (रायपुर-संभलपुर-बिलासपुर)

      1. महाकान्तार के शासक व्याघ्रराज (उड़ीसा कालाहण्डी जिला)

      2. कौरालक के शासक मन्टराज (_)

      3. पैष्टापुर के शासक महेन्द्रगिरी (पैष्टापुरम गोदावरी)

      4. कौट्टुरक के शासक स्वामीदत्त (दक्षिण उड़ीसा)

      5. एरण्डपल्ला के शासक दमन (श्रीकाकुलम-गंजम)

      6. काञ्ची के शासक विष्णु गोप (कांची तमिलनाडु)

      7. अवमुक्त के शासक नीलराज (_)

      8. वेन्गी के शासक हस्तीवर्मन (एल्लौर आन्ध्र)

      9. पलक्का के शासक उग्रसेन (नेल्लोर कृष्णा नदी के दक्षिण भाग)

      10. देवराष्ट्र के शासक कुबेर (येलामन्चिली-विशाखापत्तनम)

      11. कुस्थलपुर के शासक धनंजय (कुट्टालूर साऊथ अर्कोट)



        यहां समुद्रगुप्त ने "ग्रहण-मोक्ष-अनुग्रह" की नीति अपनाई .

        यह नीति भारतीय शास्त्रों में धर्म विजय की नीति है जिसके अंतर्गत शत्रु राज्य को हराने (ग्रहण) के बाद उसके द्वारा अधीनता स्वीकार कर लेने पर राज्य ससम्मान शत्रु को वापस (मोक्ष) कर दिया जाता है। और मित्र राष्ट्र बना (अनुग्रह) लेते हैं।

        दक्षिण के राज्यों के मामले में समुद्रगुप्त की कूटनीति कुशलता का भान होता है उसे यह पता था कि दक्षिणी राज्य उत्तर से काफी दूर थे और इसमें प्रशासन व्यवस्था को स्थापित करने में काफी कठिनाई महसूस होती है अतः उसने इन सुदुर राज्यों को विजित करने के पश्चात बजाएं गुप्त साम्राज्य में जोड़ने के सहायक राज्यों के रुप में स्वीकारा।

        विद्वानों में दक्षिण विजय के अभियान में मार्ग अनुसरण को लेकर मतभेद हैं, क्या वह पूर्वी तट से होकर दक्षिण पहुंचा और पश्चिमी तट से वापस आया अथवा पूर्व से होकर पूर्व की तरफ से ही वापस आ गया होगा ? इसी क्रम में कौरलक की पहचान केरल से एवं देवराष्ट्र की पहचान महाराष्ट्र से की जाती हैं। परंतु मत को स्वीकार करने में कुछ समस्याए हैं जैसे महाराष्ट्र के एक बड़े हिस्से पर उस काल में वकाटक शासकों का राज था, वकाटक इस क्षेत्र में गुप्तों से पहले से ही विद्यमान थे पर समुद्रगुप्त के दक्षिण अभियान में कहीं भी वकाटक का नाम नहीं हैं।

        8- उत्तर भारत का विजय अभियान (line – 21)
        उत्तर के अभियान में समुद्रगुप्त 9 राज्यों को पराजित करता है।
        इनके प्रति वह प्रसभोद् धरणोद्वत्त की नीति अपनाता है जिसका अर्थ होता हैं समूल नाश । इन राजवंशो का समूल नाश करने के बाद इन राज्यो को गुप्त साम्राज्य में समाहित कर लिया जाता हैं ।

        रुद्रदेव -
        मातिल -
        नागदत्त - मथुरा
        चंद्र बर्मन - पुष्करणा बंगाल
        गणपतिनाग - पद्मावती
        नागसेन - कान्तिपुर (भिण्ड के आस पास का क्षेत्र)
        अच्युत - अहिच्छत्र (बरेली)
        नंदिन -
        बालवर्मन -

  1. उत्तर भारत में जीत सुनिश्चित करने के बाद समुद्रगुप्त दक्षिण भारत की ओर बढ़ा होगा परंतु उससे पहले उसने आटविक (वन्य राज्यों) पर हमले करके उन्हे भी पराजित किया होगा । संक्षोप के एक अभिलेख में आटविक राज्यों में जबलपुर और उसके आसपास के 18 छोटे छोटे राज्यों का वर्णन किया गया हैं। अशोक के 13वे शिला लेख में इन्हे उपद्रवी-विद्रोही जातियों के तौर पर संबोधित किया गया हैं, समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के साथ परिचारिकीकृत की नीति अपनाई अर्थात उन्हे अपना परिचारक या दास बना लिया। कुछ विद्वानो के अनुसार समुद्रगुप्त की आटविक राज्यों पर विजय वन्य क्षेत्रो में सभ्यता का प्रसार कर कुछ नए राजवंश खड़े करने की थी जो कि हम गुप्त काल के अंत समय में देखते भी हैं जैसे उच्चकला, पांडव, परिव्राजक राजवंश

  2. सीमांत प्रदेशों पर विजय

    समुद्रगुप्त ने अपने सीमांत क्षेत्रो को विजित करने के पश्चात उन्हे गुप्त साम्राज्य की अधीनता स्वीकारने के पश्चात आंशिक रूप से स्वतंत्र ही रहने दिया गया। इसके लिए "सर्व्व कर दानाज्ञाकरण प्रणामागमन “ की नीति अपनाई गयी। इसके अनुसार गुप्त सार्वभोमिकता स्वीकार करके, उनकी अधीनता को मानते हुये, अपना सहयोग देना, और प्रत्येक बार गुप्त सम्राट को प्रणाम करने उसके दरबार में उपस्थिती दर्ज करवाना।

    इस नीति को अपनाने के पीछे समुद्रगुप्त का बुद्धिमत्तापूर्ण दूरदर्शी उद्देश्य यह था कि विदेशी शक्तियों के हमले से अपने देश को बचाने के लिए बीच में बफर राज्य की स्थापना करना, समुद्रगुप्त, गुप्त साम्राज्य को चारो ओर से छोटे छोटे कम शक्तिशाली मित्र राज्यों से घेरना चाहता था। जिससे बाहरी हमले के वक्त ये छोटे देश, हमलो को पहले झेले और गुप्तों को अचानक बाहरी हमले से तैयारी लिए आवश्यक समय मिल सके।

    1. समतट - दक्षिण पूर्व बंगाल

    2. ड़वाक - डबोका (नाओगोंग, आसाम)

    3. कामरूप - गुवाहाटी क्षेत्र

    4. नेपाल – नेपाल

    5. कार्तिपूर - कुमायूं जिला, उत्तराखंड

    6. मालव - राजस्थान और पश्चिम मालवा क्षेत्र

    7. अर्जुनायन - मथुरा क्षेत्र

    8. यौधेय - हरियाणा दिल्ली का क्षेत्र

    9. माद्रक – सियालकोट, पंजाब

    10. अभीर - उत्तरी कोंकण

    11. प्रार्जुन - नरसिंगपुर जिला, मध्य प्रदेश

    12. सनकानिक - पूर्वी मालवा क्षेत्र

    13. काक - सांची

    14. खर्परिक - ?

  3. बाहरी अथवा विदेशी राज्य (line 23-24)

    बाहरी/विदेशी देशो के लिए समुद्रगुप्त ने अनूठी नीति अपनायी। इसे "आत्मनिवेदन कन्योपायनदान गरुत्मद्कस्व विषय भुक्ति शासन याचन" की नीति कहते हैं।

    इस नीति के अंतर्गत, समुद्रगुप्त ने विदेशी शासकों को मजबूर कर दिया कि वे -

    आत्मनिवेदन - गुप्त सम्राट के चरणो में अपना आत्म समर्पण करे

    कन्योपायनदान - अपनी राजपुत्रियों का विवाह गुप्त राजकुमारों अथवा गुप्त शीर्ष अधिकारियों के साथ करे

    गरुत्मद्कस्व विषय भुक्ति शासन याचन - गुप्त सम्राट की चरण वंदना करते हुये याचना करे कि उनके सीमावर्ती राज्य/नगरो (विषय/भुक्ति) पर गरुड दण्ड से शासन किया जाये। अर्थात सीमावर्ती नगरों पर गुप्तो द्वारा शासन व्यवस्था संभालने के लिए याचना करे।


    इसमे जिन देशो के नाम लिए गए हैं वे निमन्वत हैं।

    1. दैवापुत्र - कुषाण राजा

    2. शाही - कुषाण सरदार

    3. शाहानुशाही - कुषाण सम्राट

    4. शक - सिथियन शक क्षत्रप

    5. मुरुण्ड - शक सरदार

    6. सिंहल - श्री लंका के निवासी

    7. सर्वा द्वीप वासी - सभी द्वीपो के निवासी



समुद्रगुप्त का चरित्र परिचय, प्रयाग प्रशस्ति के माध्यम से -

समुद्रगुप्त एक दान दाता था, गाय एवं आभूषण का दान करता था।

संगीत प्रेमी था, नारद के गुरु तुंबुरु को भी पराजित कर सकता था। वह संगीत का ज्ञाता था, इसके समर्थन में वीणाधारी सिक्के भी मिले हैं।

युद्ध प्रेमी था, उसके शरीर पर सैकडो अस्त्र शस्त्र के घाव थे।

करुणा और दया से परिपूर्ण था। दयालुता की प्रतिमूर्ति था।

भक्ति और भावपूर्ण समर्पण से उसका हृदय द्रवित हो जाता था।

कमजोर, दीन, दुखियो और जरूरतमंदों की हमेशा सहायता करता था।

देवताओ के बराबर जैसे धनद, वरुण, इंद्रा तुंबुरु, नारद

ख्याति चारो दिशाओ में फैली

अप्रतिरथ ( जिसका रथ पराजित न किया जा सके)

मानवता का त्रास हरने के लिए पृथ्वी पर निवास करने वाले किसी देवता के समान




प्रश्न : चन्द्र का महरौली लौह स्तम्भ अभिलेख, इस आधार पर चन्द्र की उपलब्धियों पर चर्चा करिए, महरौली का चन्द्र कौन हैं, इस पर प्रकाश डालिए।


चन्द्रा मैहरोली पिलर

1. यह अभिलेख मैहरौली स्थित कुव्वतउल इस्लाम मस्जिद के प्रांगण में स्थापित लौह स्तम्भ पर उत्कीर्ण हैं। ऐसा माना जाता है कि पहले यह स्तम्भ कहीं और स्थापित होगा जिसे तोमर शासक अनंगपाल के शासन में दिल्ली लाया गया होगा।

2. इस की लिपि गुप्तकालीन-ब्राह्मी (उत्तरी) है। लौह धातु पर उत्कीर्ण होने की वजह से अभिलेख बहुत अच्छी अवस्था में हैं।

3. यह अभिलेख 6 पंक्तियो में हैं एवं एक प्रकार का प्रशस्ति अभिलेख हैं जो किसी वैष्णव शासक चन्द्र की प्रशंसा करता हैं। (भूमिपतिना भावेन विष्णों मति)

4. अभिलेख अवश्य ही चंद्र के स्वर्गारोहण होने के पश्चात लिखाया गया था। इसमे उनकी कोई वंशावली नहीं दी गयी हैं। (मूर्त्या कर्म्मजितावनि “गतवत:” कीर्त्या स्थितस्य क्षितौ: )

5. अभिलेख बहुत ही शुद्ध संस्कृत में लिखा गया।

6. अभिलेख दर्शाता है कि उस काल में ब्राह्मण धर्म बहुत अच्छी तरह से स्थापित हो चुका था।


7. अभिलेख पर किसी प्रकार की तिथि नहीं दी गयी हैं, अभिलेख के अनुसार यह स्तम्भ एक ध्वजा (विष्णु ध्वज) है और विष्णुपाद गिरि नामक पर्वत पर स्थापित किया गया था। इसके शीर्ष पर शायद विष्णु का प्रतीक के रूप में गरुड की आकृति शोभायमान थी।


ऐतिहासिक (राजनैतिक)

1. राजा चंद्र ने पूरे भारत पर अपने शक्ति एवं सामर्थ्य के बल पर राज्य स्थापित किया

2. चंद्र ने बंग राज्यों की संयुक्त सेना को पराजित किया। अपनी भुजा पर खड़ग ने कीर्ति लिखी

-यह दर्शाता हैं कि चन्द्र का शासन पहले से ही कम से कम बिहार तक तो रहा होगा। इस युद्ध में चंद्र का हाथ शत्रु शास्त्रो से घायल भी हुआ होगा, तभी भुजा पर खड़ग से कीर्ति लिखने का जिक्र आया हैं।

3. अभिलेख के अनुसार चंद्र ने सिंधु नदी एवं इसकी 7 सहायक नदियों को पार करके बहिलिका (बैक्ट्रिया) राज्य को पराजित किया।

- इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि चंद्रगुप्त के पास उत्तर भारत और उत्तर पश्चिम भारत में पहले से ही एक बहुत बड़ा हिस्सा नियंत्रण में था हो सकता है यह उसे अपने पिता या पूर्ववर्ती शासकों से विरासत में मिला हो।

4. अभिलेख में मृत्यु परंतु गुणगान के तौर पर बताया जाता है कि उसके भुजबल के शौर्य की पवन दक्षिण के समुद्र को सुगन्धित करती हैं।
अर्थात् चंद्र का आधिपत्य की दक्षिण के राज्यों पर स्थापित हो चुका था

5. चौथी पंक्ति में समुद्रगुप्त की प्रसिद्धि की किसी जंगल में फैले दावानल से तुलना की जाती है जिस तरह दावानल पूरे जंगल के हरैक वस्तु को अपने ग्रास में समा लेता हैं वैसे ही चन्द्र ने अपने शत्रुओं का ग्रास कर लिया। और इसके बाद जिस तरह दावानल की अग्नि शांत हो जाने के पश्चात भी धुए और गर्म धधकती राख के रूप में रह जाती हैं वैसे ही स्वर्गारोहण होने के पश्चात भी चन्द्र पृथ्वी वासियों की स्मृतियों में जीवित हैं।

6. चंद्र को चक्रवर्ती सम्राट के तौर पर दिखाया गया है जो कि भारत की एक प्राचीन परंपरा है जिसमें महान राजाओं को जिनका शासन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर होता है चक्रवर्तिन कहा जाता है।


क्या चन्द्र ही महान सम्राट चंद्रगुप्त II - विक्रमादित्य हैं ?


चन्द्र कौन था और कैसे चन्द्र को उस काल के किसी ऐतिहासिक शासक से जोड़ा जाये आज भी विद्वानो के बीच बहस का मुद्दा हैं, इस कारण से चन्द्र की पहचान के ऊपर विद्वानों के बहुत सारी राय हैं, और लगभग गुप्त कालीन या उससे पहले के प्रत्येक चन्द्र नाम वाले शासक से इसकी पहचान को जोड़ा गया हैं।


  1. कुछ इतिहासकारों जैसे डॉ हरीशचन्द्र सेठ इत्यादि ने चन्द्र की पहचान को मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से जोड़ा हैं क्यूंकि वह एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व था। साथ ही उसने सम्पूर्ण भारत में कई युद्धा जीत कर मौर्य साम्राज्य को संगठित किया था, सेठ के अनुसार उसी ने इस लौह स्तम्भ की स्थापना की होगी, और लगभग 600 वर्ष पश्चात गुप्त काल में किसी ने उनके सम्मान पर इस प्रशस्ति को उत्कीर्ण करवाया होगा। यह विचार सच्चाई से कोसो दूर हैं, जैन रेकॉर्ड साफ साफ कहते हैं कि चंद्रगुप्ता मौर्य अपने अंतिम समय में जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इसलिए वे वैष्णव नहीं हो सकते जैसा कि अभिलेख में लिखा हुआ हैं।

  2. डॉ आर सी मजूमदार के अनुसार खोतानी पांडुलिपियों का अध्ययन करने के पश्चात पता चलता हैं कि कनिष्का को चन्द्र कनिष्क के तौर पर संबोधित किया गया हैं। उनके अनुसार अभिलेख वाला चन्द्र, कनिष्का भी हो सकता हैं। लेकिन इस विचार को स्वीकार करने में कुछ समस्याए हैं। जैसे -

    i) कनिष्क स्वयं बौद्ध था, वह वैष्णव धर्म का मानने वाला कैसे हो सकता है

    ii) कुषाण तो स्वयं बहिलिका क्षेत्र से आए थे तो वे बहिलिका को दुबारा क्यो जीतेंगे

    iii)जहाँ तक पुरातात्विक और साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध हैं, कुषाणों ने दक्षिण की

    तरफ कभी हमला नहीं किया, बंगाल पर भी कभी गए हो ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं।

  3. तीसरा दावा डॉ रायचौधरी की तरफ से हैं, वे नाग राजा चंद्रहास का उदाहरण देते हैं, जिनका पुराण में जिक्र मिलता हैं। हालाँकि, इस राजा के किसी प्रकार के सिक्के या अन्य पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिले हैं। अभिलेखीय चन्द्र के इस राजा के साथ सम्बन्ध को मनाने में भी कुछ समस्याए हैं। जैसे - अभी तक की जानकारी के अनुसार नाग राजाओ का राज्य विस्तार बहुत छोटे क्षेत्र तक ही सीमित था, ऐसा कोई नागसाम्राज्य नहीं ज्ञात हैं जिसकी सीमाए बहुत दूर तक फैली हुयी हो। इसीलिए ऐसा संभव नहीं की कोई नागराजा बंग के ऊपर हमला करे और फिर सुदूर पश्चिम स्थित बहिलिका राज्य को पराजित करे।

  4. कुछ अन्य विद्वान जैसे स्मिथ, भट्टशाली, आर डी बनर्जी एवं एच पी शास्त्री इत्यादि क्षेत्रीय शासक चंद्रवर्मन का भी नाम लेते हैं जिसे प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। सिसुनिया बंगाल से मिले एक और शिलालेख से पुष्करणा क्षेत्र के शासक सिंहवर्मन के पुत्र चंद्रवर्मन का उल्लेख मिलता हैं वह बाँकुरा, बंगाल के पास छोटे से क्षेत्र का शासक था, ऐसा प्रतीत होता हैं कि समुद्रगुप्त ने उसे पराजित किया था। यह सोचने वाली बात है कि यदि चंद्रवर्मन ही अभिलेख वाला चन्द्र हैं तो उसने कैसे इतने बड़े गुप्त राज्य को पार करने के पश्चात पश्चिम के बहिलिका को पराजित किया होगा। इस प्रकार यह दावा भी सही प्रतीत नहीं होता हैं।

  5. राधागोविंद बस्साक एवं एस के अयंगर गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त-प्रथम को लौह स्तम्भ वाला चन्द्र मानते हैं। लेकिन पुरातत्व स्त्रोत के आधार पर चन्द्रगुप्त-I का राज्य प्रयाग से बिहार और वैशाली तक ही माना गया हैं, समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त-I कभी भी सिन्धु नदी के उस पर पश्चिम में नहीं गया था।

  6. एस आर गोयल के अनुसार समुद्रगुप्त भी अभिलेख के चन्द्र के लिए योगी विकल्प हो सकते हैं परन्तु समुद्रगुप्त के किसी भी पुरातात्विक अभिलेख, सिक्के, साहित्यिक स्त्रोत में उसे चन्द्र उपाधि नहीं दी गयी हैं, ना ही प्रयाग प्रशस्ति में हमे बहिलिका पर उसकी विजय के बारे में कोई उल्लेख मिलता हैं।

  7. कुछ विद्वानों के अनुसार हुण वंश के शासक मिहिरकुल के भाई चन्द्र से भी इस अभिलेख का सम्बन्ध जोड़ा जाता हैं, लेकिन हूणों कभी भी बंगाल तक नहीं पहुँच सके थे। और उपलब्ध जानकारी के अनुसार सभी हूण शैव मत को पूजने वाले थे, किसी वैष्णव हूण के बारे में कोई जानकारी नहीं हैं।

  8. उपलब्ध साक्ष्यों और काल इत्यादि स्थितियों के अनुसार, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ही महरौली वाले चन्द्र के सबसे योग्य उम्मीदवार स्वीकार किए जा सकते हैं, वे एक शक्तिशाली शासक थे, उन्हे अपने पिता से विरासत में बहुत विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था। उन्होने, पश्चिम और पूर्व में अपने राज्य का विस्तार भी किया था। गुजरात में शकों की शक्ति को लगभग नष्ट कर दिया था। तथा वे विष्णु के भी अनन्य भक्त भी थे, उदयागिरी में कई मंदिर विष्णु को समर्पित हैं ।



प्रश्न : प्रभावती गुप्त के पूना ताम्र पत्र के आधार पर गुप्त-वाकटक संबद्धों पर प्रकाश डालिए।


प्रभावती गुप्त का अभिलेख वाकटको के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं। यह अभिलेख पूना से मिला हैं परन्तु ऐसा समझ में आता हैं कि इसका पूना से कोई सम्बन्ध नहीं हैं यह एक पसेरा (Pawn shop) से मिला हैं, जो प्राचीन सामग्री को खरीदने बेचने का काम करते हैं। अभिलेख के अनुसार जिस दान दिये हुये स्थान आदि कि चर्चा हैं वह स्थान पूना से बहुत दूर वर्धा जिले में स्थित हैं। जिसमे हिंगड़घाट के ग्रामो के दान दिये जाने के सम्बन्ध हैं, इस अभिलेख में 22 पंक्तियाँ दी हुयी हैं। भाषा संस्कृत हैं, माध्यम ताम्र पत्र हैं है तथा लिपि दक्षिण भारतीय वर्गाकार वकाटक ब्राह्मी हैं। तथा 2 ताम्रपत्रो में उपलब्ध हैं।


इस अभिलेख में वैष्णव सन्त चनालस्वामी को दान स्वरूप ग्राम देने का प्रशासनिक आदेश दिया गया हैं।



इस तरह से हम देखते हैं है कि यह अभिलेख रुद्रसेन की प्रधान रानी द्वारा लिखवाया गया, इसमे वे अपने पुत्र दिवाकर सेन की संरक्षिका के रूप में शासन करते हुये दिखाई गयी हैं। पिता कि जल्दी मृत्यु हो जाने एवं पुत्र की अल्पायु होने के कारण राजमहिषी प्रभावती गुप्ता द्वारा शासन व्यवस्था चला रही थी, इस ताम्र पत्र में वैष्णव सन्त चनाल स्वामी को दंगुल नामक ग्राम को दान दिया जाता हैं। जब वे पर्वत पर चनाल स्वामी की चरण वंदना करने जाती हैं। अभिलेख में दंगुल ग्राम के चारो तरफ की सीमा का निर्धारण भी किया जाता हैं। दानपत्र में कुछ विशेष बाते भी बताई जाती हैं जो गुप्तों के समय में एक सामान्य अभ्यास था।

जैसे 1 - इस दान का किसी भी प्रकार से अतक्रमन कोई नहीं कर सकता जो करेगा वह नर्क का भागी बनेगा

2- कोई भी राजकीय अधिकारी कुछ भी प्राप्त नहीं करेगा चाहे सैनिको को भोजन, पशुओ के लिए चारा हो कोई नहीं ले सकेगा

3- इस ग्राम से जो भी आय होगी वह दान दिये गए व्यक्ति के पास जाएगी।


महत्वपूर्ण राजनैतिक जानकारी

1 - इसमे जो विवरण दिखाई दे रहा हैं, उसके अनुसार प्रभावती गुप्त वकाटक राज्य की राजमहिषी हैं परन्तु इसमे जो वंशावली दिख रही हैं वह गुप्त शासको की दी गयी हैं। यह बहुत अनूठी बात हैं जहाँ एक महरानी अपने ससुराल पक्ष की वंशावली देने की बजाय अपने मायके पक्ष का पूरा इतिहास देती हैं।

2 - गुप्त इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी इस अभिलेख मे मिलती हैं, इसमे प्रभावती गुप्त अपने को धारण गोत्र को दर्शा रही हैं, यह हमे पहले से ज्ञात है कि वकाटक का गोत्र विष्णुवृत्त हैं । निश्चित रूप से प्रभावती गुप्त ने यहाँ पर अपने मायके पक्ष वालों का गोत्र दिया हैं। धारण गोत्र आज भी मिर्जापुर जिला के ब्राह्मणो का होता हैं। इस प्रकार गुप्त राजवंश ब्राह्मण था।

3- इस अभिलेख में गुप्तों का वंश घटोत्कच से आरम्भ दिखाया गया हैं जबकि समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति में श्री चन्द्र से गुप्त वंश आरम्भ माना जाता हैं। यह प्रभावती गुप्त की अधूरी जानकारी को दर्शाते हैं।

4-चंद्रगुप्त प्रथम के लिए यहाँ पर महाराज की उपाधि दी गयी हैं।

5-जो विशेषताये प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के लिए वर्णित हैं वे सारी की सारी विशेषताये प्रभावती गुप्त ने अपने पिता चंद्रगुप्ता द्वितीय के लिए दिखाई हैं।

6- हालाँकि समुद्रगुप्त ने ज़्यादातर नाग राजाओ को पराजित कर दिया था लेकिन फिर भी वे नाग राजाओ की शक्ति को समझते थे, इसीलिए इनहोने अपने पुत्र चंद्रगुप्ता II का विवाह अपने नागा सेनापति की पुत्री कुबेरनागा के साथ किया था। प्रभावती देवी इसी कुबेरनागा की पुत्री थी।

7- लिच्छवि उस समय भी बहुत शक्तिशाली राज्य रहे होंगे इसी वजह से समुद्रगुप्त को लिच्छवि दौहित्र कहा गया हैं, यह इतना महत्वपूर्ण घटना थी, कि तीन पीढ़ी पहले हुयी घटना को गुप्तों और वकाटको के अभिलेखों में इसे स्थान दिया गया हैं।

8- इस अभिलेख से पता चलता हैं कि समुद्रगुप्त ने अनेकों अश्वमेध यज्ञों को करवाया हैं।

9- चंद्रगुप्त-II ने वकाटक राज्य के युवराज से अपनी पुत्री का विवाह करके, वकाटको के शक्तिशाली राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखे, प्रभावती देवी के समय में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने निसन्देह वकाटक की सैन्य सहायता से शकों का सफाया किया होगा।




प्रश्न : कुमारगुप्त - बंधुवर्मा का दशपुर स्तम्भ अभिलेख की चर्चा करिए


मंदसौर दसपुर अभिलेख - रचयिता वत्समाही, पट्टवाय समुदाय के द्वारा सूर्य मंदिर निर्माण


दसपुर, मंदसौर का प्राचीन नाम हैं, बंधुवर्मा का अभिलेख मंदसौर के तक्षण समुदाय (जुलाहा श्रेणी) द्वारा सूर्य को समर्पित मंदिर बनवाने के बारे में हैं। इसका काल कुमारगुप्त के समय का हैं मालव संवत 493 (436 ईसवी) तथा 529 ( 472 ईसवी)। इसकी लिपि गुप्तकालीन ब्राह्मी और भाषा संस्कृत काव्य शैली हैं। इस अभिलेख में प्राकृतिक दृश्यो और मौसम का बहुत मनोरम वर्णन दिया गया हैं।

मंदसौर से हमे और भी अभिलेख मिले हैं, ऐसा प्रतीत होता हैं कि गुप्त काल के दौरान मंदसौर एक महत्वपूर्ण नगर था।


मंदसौर के इस अभिलेख की प्राप्ति शिवना नदी के किनारे, महादेव घाट की दीवार पर लगे काले पत्थर पर उत्कीर्ण हैं, अभिलेख के अनुसार पहले यह एक सूर्य मंदिर के प्रांगण में अवस्थित था।



राजनीतिक महत्व

1 - अभिलेख के आरंभ में लाट नामक स्थान (गुजरात) के विशिष्टताओ के बारे में बताया गया हैं, इसी नगर से तक्षण कला में प्रवीण (रेशम के कारीगर) समुदाय का एक दल दशपुर (मंदसौर) नगर में आया।
यहा के प्राकृतिक दृश्यो का बड़ा ही मनोरम वर्णन संस्कृत काव्य के माध्यम से किया गया हैं, धीरे धीरे यह नगर समृद्ध विख्यात होता गया।

ऐसा प्रतीत होता हैं कि लाट प्रदेश जो कि अपने रोमन साम्राज्य से व्यापारिक संबंधो के लिए जाना जाता था, वहाँ रोम के पतन के पश्चात रेशमी वस्त्रो की मांग घट गयी हो, इसके अलावा यूरोपीयन लोगो द्वारा चीन से रेशम बनाने की तकनीक सीख ली थी। इन सभी कारणो से भारत के रेशम निर्यात को बढ़ा धक्का पहुँचा एवं भारतीय रेशम व्यापारी/कारीगर बेरोजगार हो गए। अत: काम की तलाश में उन्होने भारत के अंदरूनी हिस्सो में पलायन करना चालू कर दिया। कुछ अन्य अभिलेखों से हमे गुजरात क्षेत्र से पलायन दिखता हैं । गुजरात से बहुत तेजी से पलायन हुआ था। दशपुर नगर, लाट के विकल्प के रूप में अच्छा स्थान लगा, यहाँ की प्रकृतिक स्थिति भी अच्छी थी, यह तक्षक समुदाय को इतना अच्छा लगा कि वे मार्ग में मिलने वाले कष्टो को भी भूल गए और शासन व्यवस्था भी आदर्श थी। अत: तक्षक समुदाय ने यही बसना उचित समझा


2- इस नगर में आकर तक्षक समुदाय ने भिन्न-भिन्न व्यवसाय अपना लिए जैसे, धनुर्विद्या में कुशल लोगो ने धनुर्धारी का काम आरंभ कर दिया, कुछ अच्छे मृदुल वाणी वाले वक्ता कथाकार बन गए, कुछ ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता बन गए, तथा कुछ कलाकार बने एवं कुछ युद्ध कला में पारंगत होकर योद्धा बन गए।
तथैव कुछ लोग अपने पैतृक व्यवसाय रेशम के वस्त्र बनाने से जुड़े रहे। ये सभी ऊंचे कुल के थे उनकी स्त्रियाँ अत्यंत सुंदर थी। सत्यवादी, मैत्रीपूर्ण संबंध रखने वाले थे।
इस समुदाय के लोगो द्वारा विभिन्न अलग अलग व्यवसाय अपना लेना दर्शाता हैं कि दशपुर में रेशम के काम की उतनी मांग नहीं रही होगी, अत: माँग के अनुसार उन्होने अलग अलग व्यवसाय अपना लिए। आश्चर्य की बात है कि कुछ कारीगर वर्ग सैन्य कलाओ में भी निपुण हो गए और सैन्य सेवाओ में भर्ती हो गए।

यह दर्शाया गया है कि उनके द्वारा बनाए गए रेशम के वस्त्र इतने उच्च कोटी के थे कि

तुलनात्मक रूप से यदि स्त्रियाँ सभी तरह के साज श्रंगार एवं आभूषण भी पहन ले तब भी बिना रेशम के वस्त्र के अधूरी दिखती हैं। यह उनकी रेशम के कार्य में कुशलता को दर्शाता हैं।

3- अभिलेख में ऐसा दर्शाया गया हैं कि दशपुर की समृद्धि इन कारीगरों की वजह से थी, जिन्होंने अपने श्रम एवं कौशल के बल पर दशपुर को एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित कर दिया था। स्वयं यह वर्ग एक शक्तिशाली आर्थिक समुदाय के रूप में उदित हुआ


4- उस काल में कुमारगुप्त शासक था एवं विश्वकर्मा नामक गोप्ता अधिकारी वहाँ का गवर्नर था। वह एक दयालु, दुखी एवं असहायों का आश्रयदाता था। इसी विश्वकर्मा का पुत्र बंधुवर्मा शासक बना, अभिलेख में उसके अनेक गुणो की वाख्या की गयी हैं। उसके काम में दशपुर नगर अत्यंत समृद्ध उन्नत बन गया।
ऐसा प्रतीत होता हैं कि शासन व्यवस्था बहुत अच्छी रही होगी और व्यापारी/ओदद्योगिक वर्ग के लिए आदर्श रही होगी, इसीलिए इस अभिलेख में शासको के भूरीभूरी प्रशंसा की हैं।

5- बंधुवर्मा के काल में वस्त्र उद्योगीयो की श्रेणी ने वस्त्र उद्योग से प्राप्त धन से एक अत्यंत सुंदर सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर का निर्माण 493 मालव संवत (436) में पट्टवाय (वस्त्रउद्योग श्रेणी) ने करवाया । अपनी शोभा के कारण यह मंदिर पूरे पश्चिमी भारत का सर्वश्रेस्था मंदिर माना जाता था।

6 - कुछ समय के पश्चात मंदिर का एक अंग जीर्णशीर्ण हो गया, अत: उस समय इसी श्रेणी के लोगो ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण बड़े उदारतापूर्वक करवाया। 592 मालव संवत (472) में करवाया गया। आश्चर्य की बात है कि उस समय भी गुप्त शासक कुमारगुप्त थे, इस तथ्य से विद्वानों ने परिकल्पना की हैं कि 472 ईसवी में कुमारगुप्त-II शासन कर रहे होंगे।

7 - इसके रचयिता वत्समही थे। उत्कीर्णक का नाम नहीं है

सांस्कृतिक महत्व
1 सूर्य पुजा
2 कुमारगुप्त के समय भारत में धार्मिक स्थिति, राज्य की भोगोलिक स्थिति
3 सामाजिक आर्थिक जीवन - स्त्रियो के साज श्रिंगा, संयुक्त परिवार, सामुदायिक परिवार, पलायन, पलायन के साथ कर्मो में बदलाव
4 वास्तु , नगरो, भवनो, सरोवर, वटिकाओ, महलो का वर्णन
5 श्रेणी सिस्टम - श्रेणियों के कार्य प्रशासनिक, आर्थिक
6 मालव संवत

7 कुमारगुप्त प्रथम एवं कुमारगुप्त द्वितीय का काल निर्धारण,



-:अध्याय 5 :-


प्रश्न : ग्वालियर का चतुर्भुज मंदिर अभिलेख (वैलाभट्ट स्वामिन) पर संक्षिप्त लेख लिखिए

चतुर्भुज बैलाभत्ता स्वामीन मंदिर ग्वालियर (EPIGRAPHICA INDIA – I)

ग्वालियर के किले की तरफ जाने वाली रोड, पर एक ही शीला में बने मंदिर के अंदर दो अभिलेख हैं, यह अभिलेख ही बैलाभट्ट स्वामीन मंदिर के अभिलेख कहलाते है, जिसे कनिंघम ने खोजा था, से वर्तमान में चतुर्भुज मंदिर के नाम से जाना जाता हैं।

पहला अभिलेख मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक ऊपर हैं जबकि दूसरा मंदिर के अंदर बाई दिशा की दीवार पर है

1 - 27 छंदो संस्कृत वाला अलंकृत युक्त अभिलेख हैं। अभिलेख के अनुसार यह मंदिर, संवत 932 ( 875 ईसवी) में बनवाया गया था। इसका निर्माण ऐल्ला पुत्र वैल्लाभट्टा पुत्र नागरभट्ट ने करवाया था। नगरभट्ट वरजार परिवार से संबन्ध रखता था जो की लाटमण्डल (गुजरात) के आनंदपुर (वाड़नगर) इलाके से आए थे। नगरभट्ट के पुत्र वैल्लाभट्ट को मर्यादादूर्य (सीमा अधिकारी) के तौर पर तत्कालीन राजा रामदेव ने नियुक्त किया था।
वैल्लाभट्ट की तुलना युद्ध में युधिष्ठिर से की गयी हैं जबकि वह नकुल (निम्न वर्ग के लोगो) से मित्रता नहीं रखता जबकि महाभारत में तो युधिष्ठिर का भाई ही नकुल था। अभिलेख में आगे भी वैल्लाभट्ट के लिए अलंकरण का प्रयोग किया गया हैं।
वैलाभट्ट का विवाह कासरकीय विष्णु की पुत्री जज्जा से होता हैं और उनके एक पुत्र होता हैं जिसका ऐल्ला होता हैं।
ऐल्ला, बाद मे अपने पिता के कार्यालय को संभालते हैं। और गोपाद्री (ग्वालियर किले) के प्रभारी के तौर पर राजा श्रीमद आदिवराह द्वारा चुने जाते हैं। मंदिर विष्णु को समर्पित किया जाता हैं, और इसका नाम ऐल्ला के पिता जी का नाम पर वैल्लाभट्ट स्वामी रखा जाता हैं।


ऐल्ला, बहुत गंभीरता और सुचिता से अपना कार्य करते हैं, उनके बारे में अभिलेख में बहुत अलंकरण वाली काव्य भाषा का प्रयोग होता हैं तथा उन्हे विभिन्न गुणो से युक्त एक आदर्श व्यक्ति के तौर पर प्रस्तुत किया जाता हैं। ऐल्ला का विवाह कनहुका की पुत्री वव्वा से होता हैं, जिससे सोमता नमक पुत्री पैदा होती हैं। भट्ट की पुत्री गोग्गा से विवाह होता हैं। महादेव की पुत्री गौरी से विवाह होता हैं। गोवर्धन की पुत्री सिल्ला से विवाह होता हैं। नन्नक की पुत्री ईशता से विवाह होता हैं।

वह इस मंदिर के निर्माण को अपने एवं अपने पूरे परिवार पर समर्पित करता हैं।


द्वितीय अभिलेख

यह अभिलेख इतना साफ संकृत काव्य नहीं हैं, तिथि 933 विक्रम संवत दी गयी हैं ( 876 ईसवी), स्थान श्री गोपगिरि (ग्वालियर किला), परमेश्वर भोजदेव के काल में हैं। ऐल्ला को यहाँ पर सीधे तौर पर गोपगिरि का कोट्टपाल कहा गया हैं। यह अभिलेख दो मंदिरो को कुल चार दान देने के बारे में हैं। पहला दान नवदुर्गा मंदिर को हैं, जो की वृश्चिकला नदी के पार है (सुबंरीख नदी) । अगले दो दान भी नवदुर्गा मंदिर को दिये गए । एक दान विष्णु मंदिर जिसे वैल्लाभट्ट स्वामीन मंदिर भी कहते हैं को दिया गया हैं। जिसे ऐल्ला ने बनवाया था। यह चार दान वही ग्वालियर के निवासियो ने ही दिये थे।

अभिलेख में विभिन्न महत्वपूर्ण पदो पर आसीन व्यक्ति जैसे तत्तक - सेनापति, वव्वियाक – सौदागर, इच्छुवाक – व्यापारी इत्यादि का वर्णन हैं। इसके अलावा वृश्चिकला नदी के उस पार नव दुर्गा मंदिर के बारे में भी बताया गया हैं जिसे ऐल्ला ने बनवाया था। चूड़ापल्लिका ग्राम इसी के अधिकार क्षेत्र में आता था। और फिर इसी ग्राम को वैल्लाभट्ट को दान देने का जिक्र भी आता हैं।


इस दान के अनुसार, भूमि का एक हिस्सा फूल के उद्यान के लिए तथा दो मैदान दान देने का जिक्र हैं सभी के नाम और विस्तृत वर्णन दिया गया हैं। एक महीने में एक बार तेल की आपूर्ति तेली व्यापारियो के संघ द्वारा, और एक महीने तक फूलमाला की आपूर्ति मालियो के संघ द्वारा जो ग्वालियर किले में ही रहते थे। अभिलेख में कई दान दाताओ और उपासको के नाम दिये गए हैं।

इस काल में भूमि माप की राजकीय इकाई, परमेश्वरीय हस्त थी। गोपरिया मापयेणा

पहले अभिलेख में दो शासको के नाम हैं, एक रामदेव, और दूसरा श्रीमद आदिवराह,
परमेश्वरा भोजदेवा का एक अभिलेख देवगढ़ से मिला हैं जिस पर संवत 919 और शक 784 लिखा हैं, इस प्रकार कनिघम को विश्वास हो गया कि दूसरे ग्वालियर अभिलेख पर संवत 933 अवश्य विक्रम संवत हैं।

पहवा से मिले एक और भोज के अभिलेख से जिस पर 276 श्रीहर्षा संवत हैं, से कनिघम का अनुमान सही निकला, महोदया के दो ताम्रपत्र अभिलेख से महाराजा परमेश्वर भोजदेव ही रामभद्रदेवा का पुत्र बताया गया हैं।
ग्वालियर के प्रथम अभिलेख में रामदेव शासक का नाम हैं। अत: रामदेव ही परमेश्वर भोजदेव के पिता थे, श्रीमद आदिवराह अवश्य ही भोजदेवा का बिरुड रहा होगा
मतलब ऐल्ला के श्रीमद आदिवराह स्वयं परमेश्वर भोजदेव थे।


रामदेव = परमेश्वर रामभद्रदेव (भोज के पिता जी पेहेवा अभिलेख के अनुसार)
परमेश्वर भोजदेव = श्रीमद् आदिवराह (देवगढ़ और पेहेवा अभिलेख)


Vaillabhatta

1. He was Kubera (Liberal in donate money), Not Varuna (inattentive).
2. Garuda (destroyer of all snakes), Not bird shape (ugly)
3. Mine of jewel (or ocean) but not fool (or cold).
4.An ashoka tree (free from sorrow) but not Red (not impassioned).
5. In service of duty under King Rāmdeva he never transgressed duty of chief of boundaries.
6. Proclaimed his name like his ancestors in battles.

As Vishnu took Laxmi
As Shiva took Mountain daughter.
As Indra took Shachi
He took noble and virtuous Jajja, daughter of Kāsarkiya Vishnu.

These two had son called Ailla.




प्रश्न : मिहिरभोज का ग्वालियर अभिलेख के आधार पर गुजर प्रतिहारो की उपलब्धियों और वंशावली लिखिए


ग्वालियर प्रशस्ति - गुर्जर प्रतिहार राजा भोज ( EPIGRAPHICA INDIA XVIII-18 PAGE 107-114)
यह अभिलेख आर सी मजूमदार द्वारा अनुवाद किया गया हैं, इसकी खोज सर्वप्रथम 1896 ईसवी में हुयी, अभिलिखित शीला फ़लक सागर ताल वाले इलाके से प्राप्त हुआ हैं।

इस अभिलेख में 17 पंक्तियाँ बहुत ही सुरक्षित स्थिति में प्राप्त हुये हैं।


संस्कृत काव्य रचना बहुत ही उम्दा हैं, इसके रचयिता बालादित्य हैं । शैली क्लिष्ट हैं और भाषा प्रांजल हैं। अलंकारणों का बहुतायत से प्रयोग हुआ हैं।

लिपि 9वी सदी की नागरी लिपि हैं।

यह अभिलेख प्रयोजन राजा मिहिरभोज द्वारा अपने रनिवास में विष्णु को समर्पित एक मंदिर के निर्माण पर है


यह अभिलेख प्रतिहार वंश के राजनीतिक इतिहास के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। मिहिर भोज तक सम्पूर्ण वंशावली मिलती हैं।


दूसरी छंद में सूर्य एवं सूर्य वंश के उत्पत्ति के बारे में बताया गया हैं।

तीसरी छन्द राम और रावण के मध्य भयंकर युद्ध का वर्णन करती हैं, मिहिरभोज का वंश अपनी उत्पत्ति राम के छोटे भाई लक्ष्मण से जोड़ता हैं। जिस प्रकार रामायण युद्ध में लक्ष्मण ने अपने बड़े भाई राम के लिए प्रतिहार की भूमिका निभाई थी। इसी कारण से भोज का वंश गुर्जर प्रतिहार कहलाया।

Verse 4 : गुर्जर प्रतिहार वंश का पहला शासक नागभट्ट प्रथम हुआ, जिसने मलेच्छ सेना को पराजित किया। वह नारायण की प्रतिकीर्ति के रूप में उत्पन्न हुआ। यह मलेच्छ, अरबी सेना थी।

Verse 5: नागभट्ट के भाई के पुत्र कुकुस्थ ने राज संभाला, मृदु भाषी होने कारण कुक्कुक (हसने वाला) के ना से विख्यात हुआ। उसका भाई देवराज हुआ जिसने कई अन्य राजाओ को पराजित किया


Verse 6,7: देवराज का पुत्र वत्सराज शासक बना, उसने सभी को अपने अधीन बना लिया। उसने भण्डीकुल को पराजित किया और उनका साम्राज्य कब्जा लिया। भण्डीकुल के पास भयंकर हाथी थे, जिसके कारण वे अविजित थे। .

Verse 8-11: वत्सराज के बाद उसका बेटा नागभट्ट द्वितीय शासक बना, वह एक प्रतापी राजा था उसने चक्रायुद्ध के संरक्षक पाल शासक देवपाल को पराजित किया। आंध्र, सिंध, कलिंग, विदर्भ को उसी प्रकार नष्ट किया जिस प्रकार पतंगे अग्निशिका में नष्ट हो जाते हैं। शत्रु बंग देश को पराजित किया, जिसमे विशाल हाथी और रथो की वजह से शत्रु का शिविर बिलकुल अंधकार मय हो गया था। आनर्त, किरात, तुरूक्ष, मालव, वत्स, मत्स्य, आदि राजाओ के दुर्ग पर कब्जा कर लिया

Verse 12-15: नागभट्ट द्वितीय के पश्चात उसका पुत्र रामभद्र सत्तारूढ़ हुआ जिसने भगवान राम कि भांति सेतुबंध श्रेष्ठ बंदरो कि सहायता से राक्षसो का संहार किया, हालाँकि अन्य स्त्रोतों के अनुसार वह एक दुर्बल राजा था और उसके प्रांतीय शासको ने विद्रोह कर दिया था। उसने अपनी पत्नी और कीर्ति को प्राप्त किया। इसके बाद उसके मिहिर भोज नाम का पुत्र हुआ

Verse 16-26: मिहिरभोज ने पृथ्वी के अनेक राजाओ को पराजित करके उन पर शासन किया। अगस्त मुनि की तरह विध्याचल को रोक दिया, मतलब दक्षिण प्रदेश के शासको को रोक दिया था।
वह मद रूपी कालिमा से कलंकित था। भोज ने बंगाल नरेश धर्मपाल के पुत्र देवपाल को हराया, उससे धन संपदा को लूट लिया, शुद्ध बुद्धि वाले लोगो के सत्कार्यों से उसके यश में वृद्धि होती हैं।

राष्ट्रकूट शक्तिशाली शत्रुओ को अपने क्रोध में प्रज्वलित कर दिया । अपने प्रताप से समुद्र की रक्षा की, अर्थात समुद्री हमलो से भी रक्षा की।

अपनी राजरानियों के लिए अंतपुर में विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया


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1. This is one important Inscription which gives detail insight of Gurjar Pratihar dynasty.
2. This solves chronological problems of many kings of the dynasty. And along with other Inscriptions accurately set the Gurjara pratihara history.
3. It puts rest to the debate of many kings of the similar name.
4. The inscription is important since it gives detail of repulsion of Arab and Turkish invasion.
5. V. A. Smith definately assigned Kannauj royal dynasty with Gurjar pratihara clan on the basis of this Inscription.
6. Its explains the conspicuous role played by Gurjar pratihara in the polity of 9th century India.


प्रश्न : ग्वालियर के महिपाल का सास बहू मंदिर अभिलेख (पद्मनाथ मंदिर), के आधार पर कच्छपघातों के बारे में बताइये



(INDIAN ANTIQUARY VOL. XV-15) 1886 page 33-46 (F KIELHORN) TOTAL 42 LINES


1150 विक्रम संवत (1093 ईसवी) में दी गयी हैं, ग्वालियर किले के अंदर प्रवेश द्वार पर दोनों तरफ अभिलेख लिखा हुआ हैं, ग्वालियर क्षेत्र में केंद्र बनाकर शासन करने वाले कच्छपघात यहाँ के क्षेत्रीय शासक थे।

मुख्य रूप से मुरैना जिले में सीहोनिया नामक ग्राम से कच्छपघात राजवंश का उदय हुआ।

इन कच्छपघातों की तीन शाखाये थी, एक ग्वालियर में था, दूसरा शिवपुरी दूबकुंड और तीसरा नरवरगढ़ से शासन कर रहा था।

यह अभिलेख मुख्यत: विष्णु मंदिर को बनवाने और निर्माण कार्य से संबन्धित हैं। अभिलेख की भाषा संस्कृत हैं और लिपि नागरी हैं।

यह कच्छपघातों के राजवंश की जानकारी मिलती हैं

मंदिर के रखरखाव की विस्तृत जानकारी मिलती हैं।


कच्छपघात में पहला शासक

लक्ष्मण - सामान्य उपलबधिओ कि चर्चा कि जाती हैं, पृथु से तुलना की जाती हैं कि जैसे उसने पर्वतो को उखाड़ फेका वैसे ही लक्ष्मण ने शक्तिशाली शासकों को उखाड़ फेका


वज्रदामन - लक्षमन का पुत्र, आकाशीय बिजली (वज्र) को शस्त्र की तरह चलाने वाला, उसने गाधिनगर (कान्यकुब्ज) के शासक से ग्वालियर (गोपद्रि) नगर को अपने मजबूत भुजबल से जीता अपनी राजधानी के रूप में ग्वालियर को स्थापित किया, क्यूंकि यहाँ एक प्रतिस्थित किला पहले मौजूद था। शुद्ध स्वर्ण में तुला दान किया।


मंगलराज - वज्रदामन का पुत्र, जिस प्रकार सूर्य अपनी हजारो किरणों से अंधेरे का नाश करता हैं, उसी प्रकार मंगलराज ने अपने शत्रुओ का नाश किया।



कीर्तिराज - मंगल राज का पुत्र, जब वह अपनी सेना सहित प्रस्थान करता था तब धूल के चादर सूर्य को ढ़क लेती थी। उसने मालव के शासक की सेना जो युद्ध करने के लिए आई थी। उसे परास्त किया, बहुत बुरी तरह से परास्त किया, कि वे अपने सभी शस्त्र अस्त्र छोड़ कर भागे, इतने सारे भाले और नेज़ा बचे कि उससे गाँव के लोगो ने अपने गाँव के चारो ओर भाले बरछे से दीवार खड़ी कर ली, अलंकारित काव्य में बताया गया हैं

सिंहपानीय (सीहोनिया) नगर में पार्वती के स्वामी का एक विशाल मंदिर (ककणमठ) का निर्माण करवाया। आज भी मौजूद हैं।


कीर्ति राज द्वारा मालवा के शासक को पराजित करने की बात की जाती हैं। वज्रदामन का एक अभिलेख 1034 ईसवी में सीहोनिया से मिला हैं वहाँ उसे महाराजाधिराज कहा जाता हैं।

विद्वान कीर्तिराज के काल का परमार शासक भोज से मिलान करते हैं। भोज एक महान शासक था, उसने बहुत से युद्ध जीते थे और अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। हालाँकि अपने समय के अन्त में उसका चंदेलों से युद्ध हुआ था और उसमे शायद भोज पराजित हो गया था।

अत: ज़्यादातर विद्वानों का मत है कि कीर्तिराज ने भोज को अकेले पराजित नहीं किया होगा बल्कि चंदेलों के साथ मिल कर किया होगा।

यद्यपि अभी हाल में कुछ खोजो के आधार पर ऐसा माना जा रहा हैं कि कीर्तिराज का समय पहले का होगा। ककणमठ में संवत 1044 मिला हैं, यह वह समय है जब मालवा में परमार शासक सिंधुराज का शासन था। अत: कीर्तिराज का समकालीन सिंधूराज होगा और सिंधूराज को एक कमजोर शासक माना जाता हैं। कीर्तिराज ने अकेले ही सिंधूराज की मालव सेना को वापिस जाने को मजबूर किया होगा।


सीहोनिया की ककणमठ की जगती पर अगल-बगल सिंह की मूर्ति लगी थी, इस के पीठ के ऊपर 2 पंक्ति का लेख लिखा हुआ हैं, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की एपिग्राफी शाखा ने इसका काल दसवी शताब्दी का रखा है । अत: कीर्ति राज का काल अवश्य 10वी शताब्दी का रहा होगा।



मूलदेव (भुवनपाल) - कीर्तिराज का पुत्र, मनु के बराबर कीर्ति वाला, इसे त्रैलोक्यमल्ल भी कहा गया हैं , जिसने पूरी पृथ्वी के शासकों को समाप्त कर दिया। मूलदेव की पत्नी का नाम देवव्रता नाम था, जिसके गर्भ से भूअधिपति देवपाल का जन्म हुआ।


देवपाल - मूलदेव का पुत्र, दानवीर कर्ण से भी ज्यादा दानशील, पृथा पुत्र अर्जुन से भी ज्यादा बेहतर धनुर्धारी, धर्मराज से भी ज्यादा सत्यवादी, सौम्य स्वभाव का था। उसकी धार्मिक प्रवत्ति एक प्रतापी ओजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुयी। उसके सैनिक एक दिशा में युद्ध में विजयी होकर दक्षिण की तरफ बढ़े।



पद्मपाल - देव पाल का पुत्र, पद्मपाल ने सासबाहु मंदिर की आधार शिला रखी थी। जब वह युवा था तभी मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका था, उसने मंदिर के देखभाल करने के लिए 8 ब्राह्मणो की नियुक्ति कर दी थी, लेकिन फिर उसकी मृत्यु हो गयी। पद्मपाल का कोई पुत्र नहीं था, अत: मन्दिर का निर्माण कार्य रुक गया, फिर उसके बाद सूर्यपाल का पुत्र महिपाल शासक बना।


महिपाल - यह सूर्यपाल का पुत्र था, जो पद्मपाल के चाचा थे। उसे अभिलेख में सूर्यजनिता, सूर्यनृप नन्दन, कच्छपारीकुलभूषण - कच्छपारी कुल का आभूषण, भुवनैकमल्ल, गन्धर्वो के राजा को हराया, बताया गया हैं।

यह सबसे पहले दो शपथ लेता हैं, एक कि जो मंदिर का निर्माण कार्य अपूर्ण रह गया हैं उसे शीध्रता से पूरा करवाया जाये। और दूसरा अपनी पुत्री का उचित वर से विवाह करवाया जाए।

उसने अभिलेख के अनुसार उसने मंदिर में कुछ संशोधन भी करवाए थे। अभिलेख की भाषा कहती हैं कि यह मन्दिर पद्मपाल के नाम से बन रहा था। और यह मन्दिर विष्णु (पद्मनाथ) को समर्पित था। महिपाल ने गर्भ गृह को दो भागो में बाँट दिया, एक में बैकुंठ की स्थापना की और दूसरे में पद्मनाथ की स्थापना की। अभिलेख के अनुसार न केवल पद्मनाथ और बैकुंठ की मूर्ति स्थापित थी, बल्कि वामन, अनिरुद्ध, अच्युत की मूर्तियाँ भी स्थापित की गयी थी। वर्तमान में दोनों के गर्भगृह नष्ट हो चुके हैं।

मूर्तियों की स्थापना के अलावा, बचे हुये शेष ब्राह्मण थे जिनकी नियुक्ति की गयी, एक ब्रह्मापुरी का निर्माण करवाया गया।

धर्मशाला का निर्माण करवाया, जिससे भोजन इत्यादि की व्यवस्था हो सके।

परिचारक, स्त्रियों, संगीतज्ञ, गायक, नृत्यवाटिका, कलाकार आदि की व्यवस्था भी राजा ने कारवाई।

रख रखाव के लिए, मन्दिर के पुजा इत्यादि की व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहे उसके लिए पाषाणपल्ली नामक ग्राम को दान दिया गया, इस ग्राम की वर्तमान स्थिति ज्ञात नहीं हैं। इस पाषाणपल्ली ग्राम से मिलने वाली आय को 30 हिस्सो में बाँटा गया, 5.5 भाग देवता के नाम पर बाकी 24.5 भाग ब्राह्मणो को उनकी स्थिति के अनुसार बाँट दिया गया।

इसके साथ-साथ पुजा अर्चना, साज सज्जा के लिए भी दान दिया गया। मणि आदि रत्नों से जड़ित, सोने से बने मुकुट, चाँदी की मूर्ति, मूर्ति स्नान के लिए तांबे के पात्र, तांबे के बर्तन, आरती के लिए तांबे के बर्तन, चंवर, पुजा- नैवैध इत्यादि सारे सामग्री राजा द्वारा दान किए गए थे।


इस अभिलेख के रचनाकार मणिकण्ठ पुत्र गोविंद पुत्र राम - भारद्वाज गोत्र (मीमांसा और न्याय के जानकार)

लेखक - यशोदेव दिगंबरा,

उत्कीर्णक शिल्पी - पद्म पुत्र देवस्वामिन, सिंहवाज़, माहुल (इन्ही अभिलेखों के उत्कीर्णक विभिन्न पत्थरों पर भी खुदे हुये हैं।)










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