Kaise Gaya Buddha Dharma
भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म, पृष्ठ : 400, वर्ष: 2024, लेखक : चन्द्र भूषण, सेतु प्रकाशन (पुस्तक समीक्षा) दिनाँक 20-04-2024
- सौरभ@HistoryHumanity
उपरोक्त पुस्तक की ओर मेरा ध्यान व्हाट्सअप ग्रुप पर मुस्लिम आक्रांताओ द्वारा हिन्दू मंदिर विध्वंष की चर्चा के दौरान श्री मुदित जी के द्वारा करवाया गया। पुस्तक का शीर्षक बड़ा ही आकर्षित करने वाला हैं, ऊपरी कलेवर और आवरण को देखकर यह पुस्तक रोचक प्रतीत हुयी और हमने यह तय किया कि पुस्तक को अवश्य पढ़ेंगे, जल्द ही वह समय भी आ गया जब इस पुस्तक को खरीदने का मौका भी मिल गया, फरवरी 2024 में दिल्ली प्रगति मैदान में लगे अन्तराष्ट्रिय पुस्तक मेले में सेतु प्रकाशन के स्टॉल पर यह पुस्तक हमे दिखी और हमने बिना किसी देरी के इसे खरीद लिया।
मैंने कुछ अन्य पुस्तकों के बाद इसका विधिवत अध्ययन आरंभ किया। शुरुआत में कुछ हिस्सा पढ़ने के बाद आगे किसी अन्य कार्य की वजह से अध्ययन में कुछ देरी हुयी लेकिन दूसरी बार में हमने यह पुस्तक पूरी पढ़ ली । “पुस्तक के बारे में लिखना हैं” यह हमने पुस्तक पढ़ने से पहले ही तय कर लिया था, अत: किसी शोधार्थी के तरह हमने इस पुस्तक के कमेंट, उल्लेख इत्यादि सभी बारीकी से नोट किए थे।
आगे शुरू करने से पहले बता दूँ कि मेरा उक्त लेखक से कोई परिचय नहीं रहा हैं, और यह उनकी लिखी पहली पुस्तक हैं जो मैं पढ़ रहा हूँ, पुस्तक की प्रस्तावना से मुझे यह ज्ञात हुआ कि लेखक एक प्रशिक्षित और अनुभवी पत्रकार हैं, जिनकी हिन्दी साहित्य शैली पर गहरी पकड़ हैं। हिन्दी भाषा लेखन के मामले में भी उनकी शैली अत्यंत सरल और उत्तम हैं। लेखक को हिन्दी साहित्य, बौद्ध साहित्य तथा इतिहास के बारे में गहरी जानकारी हैं। लेखक ने अपनी दक्ष लेखन शैली से पुस्तक में बुद्ध के धर्म से जुड़े कठिन और गूढ प्रश्नो के उत्तर देने में एहतिहात बरता हैं, अन्य किसी नवबौद्धवादी की तरह भावनाओ में नहीं बहे है, तथा इस बात का बड़ी सजगता से ध्यान रखा हैं कि बुद्ध के धर्म के अवसान कर आरोप किसी पर ना आए। हालाँकि लेखक ने पृष्ठ संख्या 210 पर यह स्पष्ट कर दिया हैं कि वे रत्तीभर भी इतिहासकार नहीं हैं और इतिहासकार न होना उनकी खोज के लिए एक समस्या हैं।
जिस प्रकार शीर्षक दिया गया हैं उस जिजीविषा और लगन से पढ़ने पर पाठक को आरंभ में केवल निराशा ही हाथ लगेगी। अगर आरंभ के कुछ पृष्ठ छोड़ दिये जाए तो पुस्तक दो बराबर भागों में विभक्त हैं, पहला भाग एक यात्रा वृतांत की तरह हैं जिसमे लेखक ने बौद्ध मतांबलम्बीयों और बौद्ध संस्कृति की खोज के लिए नेपाल के शहरों की यात्रा का विस्तृत विवरण दिया हैं। एक आध जगह उसने वहाँ के बौद्ध निवासियों से बुद्ध के धर्म के अवसान से संबन्धित प्रश्न पुछे हैं पर कही भी संतुष्टिपरख उत्तर सुनने को नहीं मिले। पुस्तक में बुद्ध धर्म के पलायन के कारण जानने वालों के लिए यह भाग निराशाजनक और बोरिंग भी हो सकता हैं, क्यूंकी इसमे कोई भी विशेष जानकारी नहीं हैं। वस्तुत: पृष्ठ संख्या 144 पर लेखक स्वयं कहता हैं कि काठमाण्डू के समाज में हिन्दू बौद्ध टकराव कभी नहीं सुना गया।
हमारे लेखक, जगह जगह यायावर लेखक राहुल सांकृत्यायन का उद्घृण देकर प्रश्न करते रहते हैं, इससे प्रतीत होता हैं कि वह राहुल जी की नेपाल-तिब्बत यात्रा वृतांत से बड़ा ही प्रभावित हैं और उनके पद-चिन्हो पर चलने का प्रयास कर रहे हैं। दरअसल यह तरीका बिलकुल सही हैं, जब आपको नहीं पता की खोज कहाँ से शुरू की जाये तो आपसे पहले आए खोजियों के संदर्भ लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए। और राहुल जी का कार्य इस मामले में अनोखा और सराहनीय रहा हैं।
असली हिस्सा भाग दो में हैं जिसमे लेखक ने निश्चित रूप से कुछ ऐतिहासिक, धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथो को खंगाला हैं और उससे अपने प्रश्नो का हल करने का प्रयास किया हैं।
पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने भारतीय इतिहास के अध्ययन(हिस्टोरीओग्राफी) तथा साहित्यों के अध्ययन पर चर्चा की हैं और यह बताने का प्रयास किया हैं कि भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म का अध्ययन कैसे आरंभ हुआ। हालाँकि इस अध्ययन में थोड़ी त्रुटि रह गयी हैं, चूँकि लेखक हिन्दी भाषी क्षेत्र का हैं तो उसने केवल हिन्दी या यों कहे ही उत्तर भारत में हो रहे अध्ययन के संदर्भ उठाए हैं बाकी भारत में क्या शोध चल रहा था उसका कोई विवरण नहीं दिया, और अपने अध्ययनों से हमे पता हैं कि भारतीय इतिहास पर हिन्दी भाषा में लेखन कार्य बिल्कुल नगण्य ही हैं, लेखक ने कुछ एक नवबौद्धवादी लेखकों का भी संदर्भ दिया हैं, जिनका इतिहास लेखन अतिरेकपूर्ण हैं और उनमे पूर्वागृह की भावना बहुत स्पष्ट रूप से झलकती हैं।
लेखक का ज्यादा ध्यान साहित्य परंपरा वाले हिन्दी इतिहासकारो पर ही रहा हैं, इस कड़ी में लेखक ने कुछ इतिहासकार या पुरातत्वविदों को भी शामिल किया हैं जैसे कनिंघम, जेम्स प्रिंसेप, फूहरर इत्यादि । वह अपनी खोज में लेखक दिनकर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्या नरेंद्र देव, डीडी कोसाम्बी आदि का भी जिक्र करता हैं। आगे लेखक प्रश्न करता हैं कि क्या कारण हैं कि बुद्ध 13वी सदी के हर एक सम्प्रदाय के ग्रंथो से नदारद हैं। भक्ति आंदोलनो में भी बुद्ध के नाम को पूरी तरह भुला दिया जाता हैं, जबकि वैदिक कर्मकांडो के विरुद्ध खड़ा होने वाला पहला संगठित आंदोलन बौद्ध धर्म ही था।
अपनी पुस्तक में लेखक ने नेपाल के नेवार और तमाड़ बौद्धो के बारे में जिक्र किया हैं और यह बताया हैं कि मध्यकाल से अब तक उनके ऊपर हिन्दू शासको द्वारा उत्पीड़न हुआ हैं और विभिन्न तरीको से बौद्ध धर्म को दबाने की कोशिशे हुयी हैं। जिसकी वजह से नेवार बौद्धो के बहुत से कर्मकांड हिन्दुओ जैसे ही हो चुके हैं। यहाँ कुछ बौद्ध मूर्तियों की हिन्दू देवता समझ कर पुजा होती हैं जैसे बद्रीनाथ, हणोल के महासू मंदिर। यहाँ लेखक ने कुछ लंबी लंबी लोककहानियों का भी जिक्र किया हैं
अपने यात्रा वृतांत के अंत में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँच पाया हैं कि बौद्ध धर्म सीधे तौर हिन्दू धर्म में नहीं समा गया। बल्कि इसका पहले बदलाव नाथ संप्रदाय में हुआ और फिर नाथ संप्रदाय धीरे धीरे हिन्दू धर्म में विलीन हो गया।
दूसरे भाग में लेखक ने बुद्ध धर्म के अवसान से जुड़े इतिहास को खंगालने का प्रयास किया हैं। हालाँकि लेखक इतिहासकार या शोधार्थी नहीं हैं लेकिन फिर भी अपनी खोज के लिए लेखक ने एक फ्रेमवर्क सेट किया हैं, तथा आरंभ में कुछ निश्चित और वाजिब प्रश्न रखे हैं जिनके उत्तर की उसको तलाश करनी हैं। यहाँ लेखक ने अपने कुछ तर्क भी दिये हैं, और बौद्ध धर्म के भारत में अपने अंतिम समय के स्वरूप पर भी चर्चा की हैं, यहाँ लेखक की वैज्ञानिक समझ के भी दर्शन होते हैं। जैसे पृष्ठ 212 पर लेखक ने अनुमानिक तुलना करते हुये कहा हैं कि अंतिम समय के बौद्ध धर्म का स्वरूप कुछ कुछ नेपाली बुद्ध धर्म से मिलता जुला होना चाहिए। आगे लेखक ने “खस” नामक अवैदिक समाज, हीनयान-महायान के आपसी टकराव और फिर वज्रयान के साथ विवाद पर भी चर्चा की हैं। आचार्य धर्मकीर्ति तथा शंकराचार्य के जीवन पर भी चर्चा की हैं। लामा तारानाथ के ग्रन्थ की भी समीक्षा की हैं । तत्पश्चात राहुल जी द्वारा सहरपा के दोहाकोश की समीक्षा को स्थान देते हुये कहते हैं कि आरंभिक अरबी हमलो में उत्तर पश्चिम में फैला पूरा बौद्ध धर्म नष्ट हो गया । फिर तुर्को के लेख का उदाहरण देते हुये लेखक इस्लाम मे निहित मूर्तिपूजा के प्रति घृणा को बौद्ध धर्म के नष्ट होने का एक कारण भी बताते हैं । “तालास” मध्य एशिया (751 ईस्वी) में चीन की हार और मध्य एशिया से उसके प्रभुत्व में कमी को भी बौद्ध धर्म के अवसान को एक कारण बताया हैं। हे-चो नाम के कोरियाई यात्री के यात्रा वृतांत के आधार पर यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि उनके आगमन पर पूरा उत्तर पश्चिमी इलाका अरबियो के हमले से त्रस्त था।
पुस्तक में आगे डॉ दामोदर सिंघल की पुस्तक “पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म” के आधार पर यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि कैसे खोतान में तुर्को ने जानबूझकर बुद्ध के धर्म को नष्ट कर डाला था।
फिर फारसी इतिहासकर मिनहाज-ए-सिराज का उल्लेख करके मुहम्मद गोरी और बख्तियार खिलजी आदि का जिक्र किया हैं और फिर लामा तारानाथ के ग्रन्थ से ऐसे हमलो की पुष्टि की हैं।
इसके बाद अन्तिम अध्यायों में लेखक ने मंजु श्री मूलकल्प, बुद्धचर्या, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की पुस्तक नाथ सम्प्रदाय का हवाला देकर कुछ अन्य घटनाओ का जिक्र किया हैं। साथ ही डी एन झा की बहुचर्चित पुस्तक “अगेन्स्ट द ग्रैन” में वर्णित एक घटना का जिक्र भी दिया जिसमे नालन्दा महाविहार को दो शरारती ब्राह्मणो द्वारा नालंदा पुस्तकालय जलाने की बात कही गयी हैं। इस घटना को रोमिला थापर समेत लगभग हर एक वामपंथी इतिहासकार ने अपने लेखो में जगह दी हैं। हालाँकि अगली ही पंक्तियो में लेखक ने डी एन झा के इस तर्क की हवा यह कहकर निकाल दी हैं कि इसका काल लामा तारानाथ की पुस्तक में 500 ईसवी का आया हैं इस दौरान और इसके बाद भी बौद्ध धर्म बहुत अच्छी तरह से फलता फूलता रहा था। फिर विभिन्न चीनी यात्रियो के संदर्भ देकर यह बताया गया हैं कि यद्यपि पुष्यमित्र शुंग, शशांग गौड़, मिहिरकुल आदि के हमले हुये और बौद्ध धर्म स्थल तोड़े भी गए पर ये घटनाए क्षणिक थी, और इनका कोई दूरगामी प्रभाव देखने को नहीं मिला था, बौद्ध धर्म अपनी गति से प्रगति करता रहा था। इन ब्योरो से बौद्ध धर्म के आस्तित्व पर संकट का कोई संकेत नहीं मिलता।
पृष्ठ सं 276 पर लेखक आरंभिक मध्य काल के शासको जैसे चालुक्य, बाप्प रावल, पाल वंश, यशोवर्मन तथा गुर्जर-प्रतिहरों के समय पर भी थोड़ा प्रकाश डालते हुये कहते हैं कि बौद्ध से हिन्दू धर्म में परिवर्तन इसी काल का घपला हैं।
पृष्ठ सं ० 277 पर ही लेखक यह कहता हैं कि भारत के अनेक स्थानों पर स्तूपों, चैत्यगृहो और अन्य बौद्ध धार्मिक स्थलों को तोड़कर हिन्दू मंदिर बना लेने के मामले रिपोर्ट हुये हैं पर यह जाँचने का कोई तरीका नहीं हैं कि जिस समय ये धर्म स्थल परिवर्तित किए गए क्या सच में उस समय वहाँ बौद्ध धर्म का कोई पुजारी या पढ़ाई करने वाला रह गया था? बस अनुमान ही लगाया जा सकता हैं अथवा इन धार्मिक स्थलों पर पुरातात्विक खुदाई से ही सच्चाई का पता चल पाएगा।
लेखक एक बार फिर से डी एन झा जी की लताड़ लगाने के अंदाज में कहता हैं कि “किसी भी इतिहासकार का शैवो और वैष्णवों के ऐसे बर्ताव की बराबरी गजनवी और गोरी के हमलो से करना ज्यादती हैं। बौद्ध धर्म से उतने सघन अपरिचय की गुंजाइए यहाँ नहीं थी। फिर भी लड़ाई के 2-250 साल बहुत होते हैं। पंद्रह पीढ़ियो के संचित किस्से धार्मिक पूर्वाग्रहों को जानलेवा बना सकते हैं। “
इसी में आगे लेखक ने पाल वंश और अन्य राज्यो से उसके विवाद के चलते (कन्नौज त्रिपक्षीय संघर्ष) को महाविहारों की देखभाल की अनदेखी का जिम्मेदार कहा हैं। फिर कुशीनगर के 8-9वी सदी में जला देने के पक्के प्रमाणो की ओर जिक्र होता हैं।
पृष्ठ सं ० 279 पर लेखक ने एक बार और जिक्र किया हैं कि हर्षवर्धन और शशांक गौड़ के बीच लंबे रक्तपात के बीच भी नालंदा को कोई फर्क नहीं पड़ा, विदेशी यात्री यहाँ आते रहे। लेकिन 8-9 वी सदी पर इस महाविहार पर दोहरी-तीहरी मार पड़ी। वहाँ पश्चिम एशिया की तरफ से बौद्ध यात्रियो का आना रुक गया, चीन से छात्रों का आना रूक गया। विश्वविद्यालयो की आमदनी का मुख्य जरिया ये विदेशी छात्र इस्लामी हमलो के उथल पुथल की वजह से रूक गए। और फिर 200 साल चले लंबे त्रि-पक्षीय युद्ध ने नालंदा की हैसियत घटाकर केवल एक बौद्ध तीर्थ की तरह कर दी थी। राज्य की तरफ से बड़े अनुदान मिलना बंद हो गए । बख्तियार खिलजी के हमले तक बौद्ध धर्म केवल एक कंकाल के रूप मे ही जिंदा था। उसके हमले के बाद भी लगभग 40 वर्षो बाद भी 70 छात्र आचार्य श्री राहुल भद्र के साथ वहाँ शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
इसके बाद लेखक यह प्रश्न करने लगता हैं कि आखिर क्या कारण हैं कि भारत में वज्रयान ने महायान को चलन से बाहर क्यो कर दिया?
अगले अध्याय में लेखक ने 8वी सदी के भारत के राजनैतिक स्थिति का विवरण दिया हैं। फिर हजारी प्रसाद द्विवेदी के ग्रंथ “हिन्दी साहित्य की भूमिका” का हवाला देते हुये बुद्ध धर्म के वज्रयान के रूप में बचे होने की ओर संकेत करते हैं। कैसे वज्रयान नाथपंथ में समा गया और सहजयान वैष्णव धर्म का हिस्सा बन गया और फिर 400 सालो तक चले नाथपंथ का खत्मा भी वैष्णव और शैव धर्मो मे विलय के कारण हो गया। जाते जाते नाथपन्थ - कबीर, रैदास और नानक जैसे भक्ति कवियों की रचनाओ में नकारात्मक रूप में रह गयी, और इसीलिए बच भी गयी लेकिन वज्रयान और सहजयान, कालचक्रयान आदि सब पहले ही समाप्त हो चुके थे।
आगे लेखक ने भारत में व्यापार के अंधकार युग को भी एक कारण माना हैं बुध के धर्म के विलुप्त हो जाने का और उस व्यापार के बंद होने के कई संभावित कारण गिनवाए हैं जिसमे एक तो चीन का अरबों के हाथ पराजय, महान ईरानी साम्राज्य का ध्वस्त होना, समुद्री व्यापार भी अरबियो द्वारा रोक देना और रेशम के मार्ग पर सोग्दियन व्यापारियो और उनकी संस्कृति का तुर्की मुस्लिम आक्रांताओ द्वारा खत्मा। नवी-दशमी सदी के अन्तिम वर्षो में चीनी तांग वंश और अब्बासी खिलाफत ने व्यापार दुबारा शुरू किया लेकिन तब तक भारत को भारी नुकसान हो चुका था। स्वर्ण मुद्राओ के चलन खत्म हो गया। सोने की कमी के चलते ही सामंतों और सैन्य अधिकारियों को जमीन के स्थायी अधिकार देने की परंपरा शुरू हुयी। और बड़े पैमाने पर स्थायी खेती और अन्य खेती से जुड़े उद्योगो की शुरुआत भी हुयी। कई इलाको में जोतों के आरंभिक प्रमाण इसी दौर से मिलने चालू होते हैं। लेखक के अनुसार ब्राह्मणो को भी बड़ी मात्रा में जमीनो के स्थायी अधिकार भी इसी दौर में मिलने चालू हुये थे। कई लड़ाकू वर्गो द्वारा ब्राह्मणो से जमीन के मोलभाव से क्षत्रिय वर्ण में प्रवेश पा लेने का जिक्र लेखक ने यहाँ पर किया हैं।
पृष्ठ सं० 297 पर लेखक ने सहरपा तथा अन्य महा सिद्धों के जीवन के बारे में बतलाया हैं और महायान से संभावित वज्रयान में परिवर्तन के दौर पर चर्चा की हैं, उसके बाद सबरपा और लुईपाद आदि का नाम लिया हैं। जिनकी जालंधरीनाथ और मछन्दरनाथ जैसे आरंभिक नाथ आचार्यो से तुलना भी की हैं । लेखक ऐसा मानता है की आरंभिक सिद्धों और बौद्धाचार्यों में कोई खास अंतर नहीं था। दोनों परस्पर एक दूसरे की शिक्षा ग्रहण करते रहते थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जालंधरनाथ को आखिरी सिद्ध और पहला नाथ कहा हैं। मतलब सिद्ध परंपरा का अंत नाथ संप्रदाय के रूप मे हुआ।
अपने अन्तिम अध्याय में लेखक ने उन पूर्व बौद्ध जनो की असल स्थिति जानने का प्रयास किया हैं जो वर्तमान में हिन्दू अथवा मुस्लिम धर्म में विलय हो चुके हैं, इसके लिए उसने बिहार, उत्तर प्रदेश के लोगो का सर्वेक्षण भी करने का प्रयास किया हैं।
भारत में बौद्ध धर्म की जड़ सबसे पहले दक्षिण में टूटी जहाँ कुमारिल भट्ट के नेतृत्व में मीमांसकों ने इसे खत्म किया। तिब्बती स्त्रोतों में इसे दार्शनिक शास्त्रार्थों में पराजय से जोड़कर देखा जाता हैं।
दूसरा कारण गजनवी और गौरी के दौर में सूफी आन्दोलन के रूप में भी बताया गया हैं।
तीसरा कारण तिब्बत में जा बसे भारतीय बौद्ध अध्यापको और छात्रों के लेख से पता चलता हैं कि उस समय उनके लेखो में कालचक्रयान की प्राथमिकता दिखती हैं, तंत्र-मंत्र को सही काल निर्धारण ही उनका मुख्य मूल बन चुका था सहजयनियों का अलगाव आपसी बौद्धो से बढ़ रहा था और वे बड़ी मात्र में नाथपन्थ से जुड़ रहे थे। लेखक ने बृहतकथा और कथासारित सागर का हवाला देते हुये कहा हैं कि उस दौर के लेखो में हिन्दू और बौद्ध दोनों ही धर्मो के देवी देवताओ का उल्लेख रहा करता था।
पृष्ठ सं ० 336 में लेखक नालंदा विषविद्यालय से तिब्बत जाने वाले विद्वानों के दल की एक सूची देता हैं जिसमे नालंदा के तत्कालीन कुलपति भी थे यह काल 1203-04 हैं जो बख्तियार खिलजी के काल से मिलता हैं। लेखक ने नामथार (जीवन कथा) नमक तिब्बती बौद्धयात्री भिक्षु चोर्जेपाल (धर्मस्वामी) का जिक्र किया हैं जिन्होंने 1234 ईसवी में भारत की यात्रा की थी, इस पुस्तक का अंश प्रस्तुत हैं
“ फिर भी, जैसे तैसे करके धर्मस्वामी वज्रासन (बोधगया) पहुचते हैं और वहाँ का हाल देखकर सन्न हो जाते हैं। तुर्को के डर से मुख्य बुद्धमूर्ति को एक दीवार के पीछे छिपा दिया गया हैं। सामान्य उपासक नदारद हैं। मंदिर के बाहर मामूली बनावट वाली दूसरी बुद्धमूर्ति रखी हैं जिसकी पुजा-अर्चना इक्का दुक्का श्रीलंकाई हीनयानी भिक्षु ही कर रहे हैं। सुरक्षा के लिए मंदिर की बाहरी दीवार पर महेश्वर की एक तस्वीर भी बना दी गयी हैं। यह भी पता चला की यहाँ का राजा बुद्धसेन हैं जो कुछ दिन से तुर्को के डर से जंगल में छिपकर रह रहे हैं। वज्रासन में उस समय कुल चार भिक्षु ही मौजूद थे। पूछने पर बताया, ‘स्थिति ठीक नहीं हैं, तुरुष्क सैनिको के भय से सारे लोग भाग गए हैं।‘ शाम होने पर धर्मस्वामी भी वज्रासन से दूर कहीं अंधेरे में जाकर सो गए। अगले दिन लौटे तो पुजा पर बैठे श्रीलंकाई भिक्षु ने पूछा, तुम कौन हो? धर्मस्वामी ने जवाब दिया कि मैं भोट (तिब्बती) हूँ।“
तुर्को के लिए धर्मस्वामी ने कई जगह ‘गरलोग’ (कारलुक) शब्द का इस्तेमाल किया हैं, जो उनके समय तिब्बतियों के लिए तुर्को के एक सुपरिचित कबीले का नाम था। उसके चार सदी बाद हुये लामा तारानाथ और बाकी तिब्बती इतिहासकारो ने तुर्को के लिए ‘ताग-जिक’ (ताजिक) शब्द अपनाते हैं, जो तिब्बतियों का एक और पड़ोसी तुर्क कबीला हुआ करता था। मलेक्ष शब्द का प्रयोग भी यदा कदा आता हैं।
विक्रमशिला पर हमला सं 1200 ईसवी के बाद हुआ था, तुर्को ने इसके मूर्तियो और पत्थरो को उठाकर नदी में फेक दिया था। तथा उदान्तपूरी में हमले के बाद तुर्को ने वहाँ पर छावनी स्थापित कर ली थी। कुल 84 विहारो में से केवल 2 ही आबाद रह गए थे। और इस परिसर में 7 मंदिर हुआ करते थे, धर्मस्वामी के समय केवल 4 मूर्तियाँ ही बची हुयी थी।
90 वर्षीय पंडित राहुल श्रीभद्र अपने 70 छात्रों के साथ धर्मस्वामी को व्याकरण पढ़ाने के लिए राजी हो जाते हैं, इसके लिए वित्तीय सहायता धनी ब्राह्मण जयदेव करते हैं। इस बीच तुर्क फौज जयदेव को गिरफ्तार कर लेती हैं, जेल से ही वे आचार्य को संदेशा भिजवाते हैं कि तुर्को का दूसरा हमला होने वाला हैं। सभी गुरु और शिष्य समय रहते हुये महाविहार से भाग खड़े होते हैं, नालंदा के दूसरे महाविध्वंश का जिक्र धर्मस्वामी की पुस्तक में नहीं हैं।
बौद्ध धर्म के खात्मे के बारे मैने चर्चा करते हुये, लेखक ने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की रचना “चारु चन्द्रलेखा” या “बाणभट्ट की आत्मकथा” या “अनामदास का पोथा” या फिर “पुनर्नवा” का जिक्र किया हैं जिनकी कथावस्तु बौद्ध धर्म की समाप्ति के समय पर आधारित हैं। फिर लेखक एक एक करके इन ऐतिहासिक उपन्यासों की पृष्ठभूमि से बौद्ध धर्म के पतन संबंधी कारणो को जानने का प्रयास करता हैं। तत्पश्चात, ऐतिहासिक अभिलेखो और ग्रंथो के माध्यम से तत्कालीन हिन्दू राजाओ के तुर्को की मदद के घटनाओ पर चर्चा करता हैं।
लेखक वैष्णवों के एक संप्रदाय सहाजिया का उद्गम बौद्ध सहजयान से होने के आशंका व्यक्त करते हैं, तथा निम्न वर्ग के समाज जैसे जुलाहा, बुनकर और कुंभकार, लुहार आदि के इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने का उदाहरण देते हैं, इसके लिए नालंदा, उदान्तपूरी, और विक्रमशिला के आसपास रहने वाली बड़ी मुस्लिम आबादी के ओर इशारा करते हुये कहते हैं कि ऐसा संभव हैं कि वे पहले बौद्ध ही रहे हो।
निष्कर्ष : लेखक एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं, जिसकी साहित्य शैली पर गहरी पकड़ हैं। लेखक ने अपनी दक्ष लेखन शैली से कठिन प्रश्नों का उत्तर देने में बड़ा एहतियात बरता हैं तथा अपने पूरे शोध के दौरान, वे बौद्ध धर्म के पतन से जुड़े सारी मान्यताओ, लोककहानियों और ऐतिहासिक प्रमाणो को परखने का प्रयत्न करते हैं। वे हर संभव प्राचीन पुस्तकों, नए तथ्यों की खोजो, पुरातात्विक शोध और ऐतिहासिक उपन्यासों को खँगालते हैं और विभिन्न भ्रांतियों पर भी नज़र डालते हैं।
उनके शोध का लब्बोलुबाव यह हैं कि 7वी सदी के बाद बौद्ध धर्म अपने मूल रूप में नहीं रह गया था बल्कि भ्रष्ट रूप में बदल चुका था। नाथ नहीं, वैष्णव, शैव अथवा इस्लाम धर्म आदि किसी न किसी रूप में परिवर्तित होना उसकी परिणति बन चुका था। इसके अलावा 11वी सदी के आसपास बौद्ध धर्म का जो बचा हुआ रूप था भी वह इस्लामी विचारधारा से प्रेरित तुर्को द्वारा अफ़ग़ानिस्तान, सिंध, उत्तरी भारत समेत बंगाल तक बुरी तरह से मिटा दिया गया और अपनी अंतिम साँसे गिन रहा बुद्ध धर्म भारत से ऐसा मिटा कि अगले 700 वर्षो तक उसे याद करने वाला ही कोई नहीं बचा, बुद्ध भारतीय जनमानस की स्मृति से पूरी तरह से मिट गए। वो तो भला हो नेपाल, तिब्बत और श्रीलंकाई बौद्धो का कि उनकी कृतियो और स्मृतियो में प्राचीन भारतीय धर्म और उनके प्राचीन शहर जीवित रहे और उसी को आधार बनाकर कोलोनियल ब्रिटिश सरकारों के पुरातत्ववादियो ने खोजे करवायी, उत्खनन करवाए और और मृत धर्म को पुनर्जीवित किया और साथ ही साथ भारत की उस गौरवमयी संस्कृति को प्राचीन ग्रंथो और पुरातत्व के माध्यम से खोजा।
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