Historic Cities Series # 4
प्रभास पाटण, देव पत्तन, प्रभास पत्तन, पत्तन, सोमनाथ पत्तन भाग - 2 [भाग - 1 के लिए क्लिक करे]
Pabhas Patan, Dev Pattan, Prabhas Pattan, Somnath Pattan Part - 2 [click here for part - 1]
Somanatha and other medieaval temples - Henry Cousens (1931)
प्रभास पाटण की इस्लामिक धरोहरे
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प्रभास पाटन नगर का मानचित्र |
प्रभास पाटन न जाने कितने लोगो के हाथों में पड़ा हैं, जूनागढ़ के नवाब से लेकर, पोरबंदर के राणा और फिर मंगरोल के शेखो और फिर वापस जूनागढ़ के नवाब के हाथ में। अहिल्या बाई के छोटे सोमनाथ को बनने में करीब 5 वर्ष का समय लगा। उस दौरान यह नगर मंगरोल के शेखो के हाथ में था, जिसे उन्होने जूनागढ़ के हाथों 1788 ईसवी में खो दिया। जूनागढ़ के ब्राह्मण दीवान ने यहाँ एक प्रगतेश्वर महादेव के मंदिर की स्थापना की। इसी दौर में अन्य हिन्दू शासको ने प्रभास में कई मंदिरो का निर्माण और पुनर्निर्माण करवाया जैसे कामनाथ महादेव, जिसमे गोहिल और जेठवा शासको के अभिलेख उत्कीर्ण हैं, एवं प्रभास पाटन की सीमा पर स्थित केदारेश्वर महादेव (अब रुद्रेश्वर महदेव के नाम से जानते है) मंदिर। अधिकांश हिन्दू मंदिरों का निर्माण एवं पुनर्निर्माण इसी काल में आरंभ हुआ।
अलेक्जेंडर किनलोक फोर्बस, 1864 ईसवी में सोमनाथ आए थे, उन्होने नगर के बारे में अपने यात्रा वृतांत में लिखा हैं।
"साधारण तौर से पत्तन सोमनाथ देखने में किसी खण्डहरो और कब्रों का शहर लगता हैं। पश्चिम के तरफ का मैदानी भाग बहुत सी मुस्लिम कब्रों और मक़बरो से भरा पड़ा हैं और पूर्व का भाग हिन्दू पालिया (Hero Stones) और दाहस्थलों से घना बसा हैं। इस पुराने मंदिर के आसपास कोई चहल पहल या किसी तरह की आवाज़ भी नहीं हैं। "
पुरातत्व की दृष्टि से प्रभास पाटन में बहुत सी ऐसी ईमारते हैं जो प्राचीन हैं और इतिहास का एक अनछुआ अनदेखा पहलू जनता के सामने प्रस्तुत कर सकती हैं। प्रभास पाटन नगर और वेरावल में ऐसी हिन्दू एवं मुस्लिम संरचनाओ की संख्या 25 से भी ज्यादा हैं जिन्हे अपनी एक रिपोर्ट मे समाहित करना व्यावहारिक नहीं होगा इसलिए हम फिलहाल केवल प्रभास पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे, (वर्तमान में पाटण-वेरावल एक ही नगर महापलिका के अंतर्गत आते है, लेकिन पूर्व में दोनो अलग-अलग नाम से जाने जाते थे। दोनो ही स्थानो पर अनेकानेक मध्यकालीन ईमारते है, अपनी सुविधा के लिये हम यहाँ केवल प्रभास की मध्ययुगीन ईमारतो पर चर्चा करेगे, वेरावल नगर की ऐतिहासिक धरोहर का विस्तृत वर्णन अगले आलेख मे किया जायेगा।)
एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रभास में मध्ययुग की करीब 8 मस्जिदे, 5 मजारे और 2 ईदगाह पुरातत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में 2 ऐसी मस्जिदे थी जो अब पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं। अपने इस आलेख में हम उन इस्लामिक ईमारतों का अन्वेषण करने का प्रयास करेंगे, जिन्हे संभवत: हिन्दू मंदिरों के अवशेषों से/ऊपर बनाया गया था।
विलुप्त मस्जिदे
1. सुल्तान मुहम्मद बिन अहमद शाह (1442-51 ईसवी) की मस्जिद, जो अब नष्ट हो चुकी हैं। रेकॉर्ड के अनुसार मस्जिद 1940 ई० के आसपास, ध्वस्त हो गयी थी। लेकिन इसका प्रस्तर अभिलेख अभी भी संग्रहालय में सुरक्षित हैं। अभिलेख के अनुसार मस्जिद को सुल्तान अहमद शाह (1442-51 ईसवी) के काल में बनवाया गया था। और यह नगर से उत्तर दिशा में दरवाजे, के आस पास अवस्थित थी। वर्तमान में इस क्षेत्र में मस्जिद का कोई भी सुराग नहीं रह गया हैं। सम्पूर्ण स्थान पर आधुनिक ईमारते बन चुकी हैं।
अहमद पीर का छोरा, गुजराती विद्यालय के समीप, प्रभास पाटण अभिलेख
Epigraphia Indica Arabic & Persian Supplement (1953-54) Z. A. Desai pg. 74-75
यह अभिलेख असल में किसी मस्जिद में लगा हुआ था, जो शायद अब ध्वस्त हो चुकी है। इसमें एक मस्जिद बनवाने का वर्णन है। प्रस्तर खण्ड का आकार 1'6"x1'6" है। इस मस्जिद का निर्माण अल-मुतासिम बिल्लाह घियासुद्दीन अबुल महामिद अहमद शाह के समय में ईशाक सुलतानी द्वारा करवाया गया था। अभिलेख फ़ारसी और अरबी भाषा में है लिपि नक्श है ।
बिस्मिल्लाह उर-रहमान उर-रहीम, अल्लाह सुभानवहु ताला कहते है, ""वास्तव में, मस्जिदे केवल अल्लाह के लिए है, इसलिए अल्लाह के सिवाए किसी और ईश्वर को मत पूजों। (कुरान अल-जिन्न 72:18)
पैगम्बर, रहमतुल्लाह व बरख्तुल्लाह ने कहा, "जो भी अल्लाह के लिए मस्जिद बनाएगा, वह अपने लिए जन्नत में महल पाएगा"। (सहीह अल-बुख़ारी 450)
महान और शानदार शासक, अल्लाह के कृपापात्र, घियासुद्दीन अबुल महामिद अहमद शाह, महमूद शाह के भतीजे के शुभ शासन काल में इस मस्जिद का निर्माण एक पापी गुलाम ईशाक सुल्तानी द्वारा करवाया गया।
आगे
आप पायेंगे कि गुजरात के इस हिस्से में जहाँ हिन्दूओ का मुख्य धार्मिक स्थल था, कुरान
की उपरोक्त आयत का चुनाव पथ से भटके हुये हिंदुओ को सही मार्ग दिखाने के लिए किया गया
जान पड़ता है
2. एक और ध्वस्त मस्जिद जिसका उल्लेख हमे मिलता हैं। उसका नाम पंच बीबी का कोठा था और यह 1954 ईसवी से पहले प्रभास पाटन में थी। इसका भी प्रस्तर पर उत्कीर्ण अभिलेख सुरक्षित हैं लेकिन उस पर इस मस्जिद के स्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं हैं। इसके अभिलेख में 19 रजब, हिजरी 877 (20 दिसम्बर 1472) की तारीख लिखी हैं।
जब हेनरी कौसेंस अपनी सोमनाथ यात्रा पर आए तब यह ईमारत मौजूद थी, उन्होने अपनी पुस्तक में निम्न विवरण दिया हैं,
"कोठा एक और प्राचीन मन्दिर रहा होगा, लेकिन इस प्रकार पुनर्निर्मित कर दिया गया हैं कि अब इसे मन्दिर के रूप में पहचान पाना असंभव हैं। मुसलमानों के द्वारा, इसे पार्श्वनाथ जैन मन्दिर की तरह निवास स्थान बना लिया गया हैं। इसे कोठा कहते हैं, हो सकता हैं कि मध्ययुग के दौरान इसका प्रयोग कोठे के तौर पर किया जाता रहा हो। यह ईमारत पूर्वी दरवाजे के समीप सड़क के उत्तर मे हैं स्थित हैं।" पृष्ठ 31 पैरा 3
Corpus Inscriptionum Bhavanagari 1889, pg 37-38
यह अभिलेख सफ़ेद संगेमरमर पर बना है जो क़िबला दीवार पर लगा हुआ हैं। इसका आकार 24"x8" और फारसी एवं अरबी में पाँच पंक्तियाँ है। अभिलेख से ऐसा प्रतीत होता है कि सुल्तान महमूद शाह ने 1569-70 ईसवी के दौरान यहाँ किसी मस्जिद का निर्माण करवाया था।
बिस्मिल्लाह उर-रहमान उर-रहीम, अल्लाह सुभानवहु ताला कहते है, "वास्तव में, मस्जिदे केवल अल्लाह के लिए है, इसलिए अल्लाह के सिवाए किसी और ईश्वर को मत पूजों।" (कुरान अल-जिन्न 72:18)
पैगम्बर, रहमतुल्लाह व बरख्तुल्लाह ने कहा, "जो भी अल्लाह के लिए मस्जिद बनाएगा, वह अपने लिए जन्नत में महल पाएगा"। (सहीह अल-बुख़ारी 450)
This mosque was built by Budeh bin Gul bin Kamal bin Ladha bin Fateh (of) Gujarat, the sinful slave of the exalted God, one who hopes from God, the armsbearer to the great and magnificent Sultan, confiding in the beneficent God, the defender of the world and the faith, the father of victory, viz. Mahmud Shah bin Mahomed Shah bin Ahmed Shah bin Mahomed Shah bin Muzeffer Shah, the Sultan (may God perpetuate his kingdom, may his fortune be constant!). May everyone who comes here and sees this remember the name of this humble servant with the blessing of faith; so that its merit and profit be registered in his record! (supposed to be kept by the angels). Oh, the Nourisher of the world, be it so! Finished. This is done in the handwriting of Jemal bin Ismail bin Ahmed (may God pardon him and his progeny and all!) the feeble and insignificant slave, hoping for mercy from God, the beneficent! Dated Wednesday, the 29th of the month of Rajab A.H. 977
इस शहर के पश्चिम में विशाल क्षेत्र में मुस्लिम कब्रे फैली हुयी है, इतने बड़े स्तर पर मुस्लिम क़ब्रगाह देखने के पश्चात यह अंदाजा लग जाता हैं कि इस स्थान पर मध्यकाल से ही लगातार काफी संख्या में मुस्लिम जनसंख्या बनी रही हैं और आज भी मुस्लिम जनसंख्या यहा अच्छी खासी स्थिति में है और अपनी मुस्लिम धरोहर के बारे में काफी जागरूक हैं। इन कब्रगाहों में से कई कब्रे महमूद गजनी के सैनिको की भी बताई जाती हैं जो सोमनाथ पर हमला करते समय शहीद हो गए थे। महमूद गजनी ने सोमनाथ से वापस लौटते समय, संभावित हिन्दू हमले से बचने के लिए, कच्छ के रण वाला कठिन और दुर्गम रास्ता अख़्तियार किया था, इस मार्ग में उसके बहुत से सैनिक शहीद हो गए थे। लेकिन जाने से पहले महमूद ने अपने एक सिपहसालार को सोमनाथ का सूबेदार नियुक्त किया था। मंदिर का बाकी विध्वंस और मस्जिद का निर्माण इसी सिपहसालार के नेतृत्व में हुआ। उसके बाद के वर्षो में क्या हुआ इसकी कोई खास जानकारी मौजूद नहीं हैं। लेकिन हिन्दुओ द्वारा अगले 20 वर्षो के अंदर ही मुस्लिम राज इस क्षेत्र से खत्म कर दिया गया था। यह आश्चर्य की बात हैं कि हिंदुओं ने गम्भीरता का परिचय देते हुये मुस्लिमों की कब्रगाह और अन्य मकबरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, हाजी मंगरोल दरगाह, जफर मुजफ्फर की मजार एवं मस्जिद आज भी सुरक्षित हैं। यह हिन्दू सहिष्णुता का जीता जागता प्रमाण हैं।
: सोमनाथ मस्जिद :
इतिहास में सोमनाथ के मंदिर का विध्वंस सात-आठ बार होने का ज़िक्र आया हैं। हम अपने लेख में आगे देखेंगे कि सोमनाथ अकेला मंदिर नहीं था बल्कि आस पास कम से कम चार अन्य विशाल मंदिर इस इस्लामिक बुतशिकनी (प्रतिमाभंजन) का शिकार हुये हैं। मंदिर का पहला विध्वंस होने के पश्चात इस बात की संभावना काफी प्रबल हैं कि 9-10वी सदी में हिन्दू राजाओं ने एक और विशाल मंदिर समुद्र के तट पर बनवाया, क्योंकि मंदिर के स्थान पर सिन्ध के अरबी सेनापति ने एक मस्जिद का निर्माण करवाया होगा (ऐसी एक मस्जिद के अवशेष सिन्ध के मंसूरा में भी मिले हैं)। मंदिर का निर्माण समुद्र के तट पर करवाया गया, उसका कारण यह हैं कि इस नगर में समुद्र बहुत अशांत होने के कारण तट पर बन्दरगाह नहीं हैं, शांत तट करीब 3 किमी उत्तर में, वेरावल में हैं और इस प्रकार मंदिर की सुरक्षा के लिए एक तरफ से पथरीले समुद्र की अभेद्य दीवार मिल जाती थी। यही नया मंदिर बाद में महमूद गजनवी के द्वारा लूट लिया गया। इस विषय पर अगर हम अल-बिरुनी का संदर्भ ले जो कि इतिहास मे सबसे विश्वस्त माना जाता हैं, तो सोमनाथ का लिंग पहले मूल रूप से समुद्र तट पर ही स्थापित था, जिसे समुद्र स्वयं ज्वार-भाटे के रूप में जल अभिषेक कर पूजता था। अल-बिरुनी के अनुसार यह स्थान सुनहरे किले बारोई के पूर्व में सरस्वती नदी के मुहाने से तीन मील पश्चिम में स्थापित था। यह स्थान संगम से 4.5 किलोमीटर पश्चिम मे हुआ, ऐसी स्थिति तो बाण गंगा के आसपास बनती हैं।
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बाण गंगा मे समुद्र तट पर दो बडे शिवलिंग स्थित है, जिनका जलाभिषेक स्वयम समुद्री लहरे करती है |
सोमनाथ और गुजरात के अधिकांश नगरो में समुद्री व्यापारियों की भरमार थी, ये व्यापारी भारत के तटों से सस्ते दर पर माल खरीद कर भारी मुनाफ़े पर अपने गृहनगरो या अंतर्राष्ट्रीय केन्द्रो जैसे अलेक्जेंड्रिया, यरूशलम, दमिश्क, बगदाद और इस्तांबुल के बाज़ारो में जहां भारतीय माल की बड़ी माँग रहती थी बेचते थे। अरब से यहाँ व्यापारी, हिन्दू राजाओ एवं जमींदारो के साथ अरबी नस्ल के घोड़ों का सौदा करते थे, और भारतीय नगरों में बसे इन व्यापारियों को स्थानीय शासकों का बहुत सहयोग मिलता था। इन्हे अपने धर्म, संस्कृति, भाषा एवं परम्पराओ को मनाने की पूरी आज़ादी थी। स्थानीय जनता में भी इनका विशेष आदर था। संक्षिप्त में, यह व्यापारिक समुदाय भारत के तटीय नगरों में बड़ा शांतिपूर्ण जीवन बसर करता था। अल इदीरिसी अपने लेखो में हमे बताता हैं भारत के व्यापारिक नगरों में जो समुद्र के किनारे स्थित थे में काफी संख्या में मुस्लिम अप्रवासी भी मौजूद थे। महमूद गजनी के आक्रमण से पहले और उस समय भी सोमनाथ में अच्छी ख़ासी तादाद में मुस्लिम प्रवासी थे। जिन्होने स्थानीय राजा की आज्ञा से प्रभास पाटन क्षेत्र में छोटी मोटी मस्जिदे बनवाई जिनके अवशेष वर्तमान में सोमनाथ के पश्चिम में मंगरोल शाह की दरगाह के आसपास मिलते हैं। यहाँ दो मस्जिदे और एक दरगाह काफी पुरानी हैं।
जामी मस्जिद (या प्रभास पाटण संग्रहालय), सोमनाथ पत्तन
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जामी मस्जिद, शहर के बिल्कुल बीचोबीच स्थित है, यहाँ पहले कोई विशाल मंदिर रहा होगा |
प्रभास पाटन नगर का प्राचीन नक्शा लगभग वैसा ही हैं जैसा मध्ययुग के दौरान रहा होगा। इसमे बहुत कम बदलाव आए हैं, हालाँकि आधुनिक शहर, उत्तर और पूर्व में फैल गया हैं लेकिन पुराना प्रभास पाटन अभी भी ज्यो का त्यो बना हुआ हैं। जैसा की आमतौर पर प्राचीन भारतीय धार्मिक नगरों का शिल्प-शास्त्र होता था (वर्गाकार सर्वतोभद्रा, वृत्ताकार नांदियावर्ता संरचना/योजना), प्रधान देवालय हमेशा नगर के ठीक बीचोबीच स्थापित होते थे। पूरा नगर इस देवालय के चारो और फैला होता था। यह नगर वृत्ताकार या वर्गाकार रूप से होगा, और नगर के प्राचीन मार्ग उन्हे समकोण पर विभाजित करते होंगे। A. KINLOCH FORBES PUTTUN SOMNATH (Journal of the Royal Asiatic Society, Bombay Branch, 8, 1864-66)
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जामी मस्जिद का सैटेलाइट चित्र |
अगर हम उस पुराने नक्शे के अनुसार चले तो पाएंगे कि आज पुराने प्रभास पाटन नगर में, बीचों-बीच जामी मस्जिद स्थित हैं, जो इस ओर इंगित करता हैं कि पुरातन काल में मूल सोमनाथ मंदिर इसी ईमारत के आस-पास कहीं स्थित होगा। अत्याधिक पुरानी होने की वजह से यह ईमारत जीर्णशीर्ण हो गयी थी, जिसकी वजह से मुस्लिमों ने 19वी सदी के आरम्भ में इस मस्जिद का प्रयोग बंद कर दिया था, अत: तब से यह ईमारत उचित रख रखाव के अभाव में उपेक्षा का शिकार हो गयी थी। जामी मस्जिद को स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात राज्य सरकार ने प्रभास पाटन संग्रहालय में बदल दिया। वर्तमान में आप यहाँ पुराने मंदिरों के अवशेषों से निर्मित इस ईमारत के वास्तु का सूक्ष्मता से अध्ययन कर सकते हैं।
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हेनरी कौसेंस द्वारा निर्मित मस्जिद का प्लान, सौजन्य: Somanatha and other medieval temples |
मस्जिद में प्रवेश करने वाला द्वार (तोरण) हिन्दू मंदिर की सामग्री से बहुत बेहतरीन तरीके से बना हुआ हैं और साथ ही साथ मस्जिद के गुंबद की छत शानदार मण्डप से बनी हुयी हैं। देखने से ही प्रतीत होता हैं कि इस मस्जिद का निर्माण किसी विशाल और भव्य मंदिर की सामग्री से ही हुआ होगा।
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जामी मस्जिद का प्रांगण या आंगन काफी बडे क्षेत्र में है, हेनरी कौसेंस के अनुसार इस स्थान पर हिंदु जलकुंड रहा होगा, ठीक वैसा ही जैसा मोढेरा में है. |
मस्जिद के बीचोबीच विशाल प्रांगण का क्षेत्रफल 48 मीटर x 35 मीटर हैं। हेनरी कौसेंस के अनुसार इस ईमारत का निर्माण एक से अधिक मंदिरों के विध्वंस से निकली सामग्री से हुआ होगा। मस्जिद का वर्तमान प्रांगण, मन्दिर के सामने स्थित कुंड के ऊपर निर्मित हैं।
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सामने (पश्चिम) की तरफ मुसल्ले में पांच गुम्बद है, जिन्हे हिंदु स्तम्भो से सहारा दिया गया है, इन स्तम्भो को बाद में दीवारो द्वारा जोड दिया गया |
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मस्जिद के दक्षिणी तरफ, खम्भो की गली है, छत पर चढने की सीढीयाँ भी यही से है |
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पश्चिम से पूर्व की ओर देखने से प्रवेश द्वार दिखता है, बायी तरफ एक झोपडीनुमा संरचना दिखती है, यह असल में वजू करने के लिये कुण्ड था, जिसे समतल करके इस्तेमाल में लिया जा रहा है |
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मस्जिद में प्रवेश करते ही दाई तरफ वाली गली में केबिन बना दिये गये है जिनमे सोमनाथ मंदिर के उत्खनन से जुडे प्रमाण रखे हुये है |
मस्जिद के उत्तर पूर्व दिशा में वज़ू करने के लिए एक कुण्ड भी था जिसे एएसआई वालों ने ढ़क दिया हैं और बैठने के लिए व्यवस्था बना दी हैं ।
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मस्जिद के दक्षिण-पूर्व में गौरवमयी चंद्रप्रभास जैन मंदिर का शिखर दिखता है, हालांकि यह आधुनिक निर्माण है, अपने समय में निसंदेह मुस्लिम आबादी ऐसे बुतखानो को पसंद नही करती |
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कतार में लगे इन प्रस्तर खण्डो को देखिये, मौसम और धूप की मार भी हज़ार वर्षो में इनका कुछ नही बिगाड पाई |
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मस्जिद के उत्तर में दक्षिण की भांति स्तम्भो का गलियारा है,अपितु एक साधारण दीवार से ढका हुआ है. |
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इन स्तम्भो की गूढ और महीन कलाकारी देखिये, यह सूक्ष्म कार्य किसी साधारण मंदिर के लिये नही हो सकता, यह सच में एक भव्य और विशाल देवालय रहा होगा. |
मेहराब की बनावट देखकर ऐसा प्रतीत होता हैं कि मस्जिद का निर्माण दिल्ली सल्तनत के समय हुआ होगा। ऐसा संभव हैं कि मस्जिद का निर्माण उलुग खान या जफर खान के सोमनाथ हमले के दौरान किया गया हो। जफर खान ने कई अन्य नगरों में भी जामी मस्जिद का निर्माण करवाया था।
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क्या आप खम्भो की बनावट में फर्क देख सकते है, इन भारी भरकम स्तम्भो को हिंदु मंदिर से निकाल कर इस मस्जिद के प्रांगण में लगाया गया है, ऊपर कीर्तिमुखो के दर्शन करिये, जो विशुद्ध हिंदु संरचना है. |
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अत्याधिक कलात्मक आधार युक्त प्रस्तर खम्भ जिस पर विभिन्न देवी-देवताओ की आकृतियाँ उकेरी गई है साथ ही दीपक रखने के लिये आला भी बना है. ऐसी संरचनाये हम आम मंदिरो में नही देखते |
यह प्रभास पाटन की सबसे बड़ी मस्जिद हैं, इसके बारे में हेनरी कौसेंस ने अपनी पुस्तक Somnath and other medieval temples में जानकारी दी हैं
"अगली ऐतिहासिक संरचना जिसमे हमारी दिलचस्पी हो सकती हैं, वह इस नगर की जामी मस्जिद हैं। जो एक या एक से ज्यादा हिन्दू मंदिरों के अवशेषो से बनी हैं। मन्दिर की सामग्री को मुस्लिम मस्जिद की योजना के अनुसार पूरी तरह से व्यवस्थित किया गया हैं। ऐसा कहा जाता हैं कि इस मस्जिद के स्थान पर एक सूर्य मन्दिर था और मन्दिर के आस पास पड़ी प्रतिमाओ और सूर्य की मूर्तियों से यह अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि अवश्य ही इस नगर में सूर्य को समर्पित एक विशाल मन्दिर रहा होगा। शायद एक से भी ज्यादा मन्दिर भी रहे होंगे। जैसा कि हम मोधेरा के सूर्य मन्दिर में देखते हैं, बीच में एक सूर्य कुण्ड रहा होगा जिसे भरकर ही इस मस्जिद का प्रांगण बनाया गया हैं। यह काम शायद मुजफ्फर शाह या अहमद शाह के हुक्म से हुआ होगा। हमारे ज्यादातर प्रेक्षणों में जामी मस्जिद, नगर की पहली विधिवत बनाई गयी मस्जिदे होती थी और भिन्न भिन्न युगों में नगर की मुख्य सार्वजनिक मस्जिद ही रही हैं। इस ईमारत में अन्य मस्जिदों की तरह, अधिक ऊँचाई प्राप्त करने के लिए, हिन्दू स्तम्भो को एक के ऊपर एक लगाकर ऊँचा नहीं किया गया हैं। देखने में यह मस्जिद वास्तुकला की दृष्टि से तुच्छ और बेतरतीब लगती हैं। और सामने से देखने पर मस्जिद के प्रांगण में दोनों तरफ से झुकाव का आभास देती हैं। इस ईमारत का सबसे बेहतरीन हिस्सा इसका प्रवेश द्वार है। जो बाहर गली में खुलता हैं और दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि गुंबद सहित पूरा का पूरा भाग किसी मन्दिर का हिस्सा हैं जो किसी तरह मूर्तिभंजकों से बच गया। लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता हैं कि इसे भी मुहम्मदनों से अपनी आवश्यकता के अनुसार दुबारा से ही बनाया हैं। स्तम्भो के ऊपरी हिस्से में कोष्ठक (capital) पर बने अष्ट-दिगपालों के हाथ और सिर कटे हुये हैं जिन्हे स्तम्भो का स्तर समतल करने के लिए काट दिया गया होगा। इसके अलावा, यह मुहम्मदनों की आम परम्परा थी कि जितना संभव हो सके उतना मस्जिद की मुख्य मेहराब मूल मन्दिर के गर्भगृह के ठीक ऊपर बने। जिसमे मन्दिर का सौंदर्यपूर्ण छत वाला मूल सभा मण्डप ही मस्जिद की गुंबद का काम कर जाता था । जैसा कि हमारे चित्रो में प्रदर्शित हैं, कि इस गुंबद की छत उत्कृष्ट हिन्दू नक्काशी का एक बेहतरीन उदाहरण हैं, जिसमे बड़ी सावधानी से गुंबद के केन्द्र में पत्थर की झूमर (Pendent) उकेरी गयी हैं।" पृष्ठ 28 पैरा 3
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सामने की तरफ, बने इस आले को देखिये, यह दरअसल किबला दीवार है जिस पर बने मेहराब को बदल कर आले का रूप दे दिया गया है, जिससे आगंतुक इस मस्जिद के इतिहास के बारे में ना जान सके |
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बेतरतीब ढ़ंग से लगे इन साधारण खंभों और अलंकृत स्तम्भो में कोई मेल नहीं है, ऐसा इसलिए क्योंकि इन दोनों प्रकार के स्तम्भो को अलग अलग स्थानों से लाया गया होगा। |
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कोई भी प्रतिमा सही सलामत नहीं है, ये खण्डित प्रतिमाए स्वयं, बुत शिकनी के उस भयानक आलम की बानगी है। |
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विष्णु, मधु कैटभ वराह का वध करते हुये, (?) |
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सोमनाथ मंदिर की टूटी हुयी जलाधरी एवं खण्डित नंदी, क्या इनका विध्वंस सुल्तान महमूद गजनवी की सेना ने किया था। |
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खण्डित जलाधरी एवं नंदी, सोमनाथ मंदिर के उत्खनन से प्राप्त |
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इस मस्जिद के निर्माण में प्रयुक्त हुये स्तम्भो के आकार प्रकार में काफी भिन्नता है, एक तरफ अत्याधिक कलात्मकता युक्त स्तम्भ है वही उसी पंक्ति में साधारण स्तम्भो का भी प्रयोग किया गया है |
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संग्रहालय में मौजूद जैन मूर्तियाँ इस बात की प्रमाण है कि हिन्दू मंदिरों के साथ-साथ जैन मंदिरों का भी विध्वंस किया गया था |
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ग्यारहवी सदी का यह चतुर्विशांति पट्ट किसी जैनालय से संबन्धित लगता है। नीचे की तरफ किसी जैन मुनि का मस्तक भी दिख रहा है |
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उत्तर की तरफ की सबसे अंतिम गुंबद वाला कक्ष |
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गुंबद पर बनी यह छोटी कलात्मक संरचना किसी छोटे हिन्दू मंदिर की है, ऐसा प्रतीत होता है कि इसका कुछ हिस्सा दुर्घटना वश आग लगाने की वजह से काला पड़ गया है |
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यह गलियारा बाहर की तरफ है, यहाँ आप देश के कोने कोने से आई हुयी मूर्तियाँ देख सकते है। |
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गलियारे में लगे स्तम्भो को ध्यान से देखिये, स्तम्भो पर बने आलों के अंदर वास्तव में हिन्दू आकृतियाँ बनी हुयी थी जिन्हे बड़ी सावधानी से साफ कर दिया गया है |
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1951 ईसवी में सोमनाथ मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के समय, विभिन्न देशो की नदियो से जल एवं मिट्टी यहाँ लायी गयी थी, जिनके नमूने अभी भी प्रभास संग्रहालय में सुरक्षित रखे हुये है |
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नरबलि की परंपरा का जिक्र कुछ ऐतिहासिक यात्रियों की पुस्तकों में मिलता है, शायद हवेन साँग ने इस ओर इशारा किया था। |
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यह मस्तक विहीन स्त्री की प्रतिमा कक्षासन की स्थिति में है। बताने की अवश्यकता नहीं कि किसने इसका सिर धड़ से जुड़ा किया होगा। |
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काले बसाल्ट पत्थर पर उकेरी हुयी पार्वती की इस मूर्ति के चेहरे और वक्षस्थल को किसी नुकीले औज़ार की सहायता से रगड़ कर साफ कर दिया गया है, इतना विद्वेष एक निर्जीव मूर्ति के साथ क्यो? |
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खोरसागर सूर्य मंदिर का विक्रम संवत 1445 (1389 ईसवी) का प्रस्तर अभिलेख, क्या आप संवत पढ़ सकते है? |
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जैन तीर्थकर चंद्रप्रभास की प्रतिमा, यह प्रतिमा अवश्य ही चंद्रप्रभास जैन मंदिर में प्रतिष्ठित रही होगी, जिसे आतताइयों ने ध्वस्त कर दिया। |
चौगान मस्जिद
जामी मस्जिद (प्रभास पाटन संग्रहालय) से कुछ ही दूरी पर मुस्लिम बस्ती के बीचों बीच एक और मस्जिद हैं जो जामी से भी ज्यादा पुरानी हैं। यह मस्जिद आरंभ में काफी उचाई पर बनी होगी परंतु कालांतर में इसके आस पास मिट्टी जमा होने से अब यह धरती के तल पर आ गयी हैं। इस मस्जिद में किसी भी प्रकार का कोई अभिलेख नहीं मिला हैं। लेकिन मुसल्ला (प्रार्थना कक्ष) में मूल नक्काशी अभी भी बनी हुयी हैं। क़िबला करीब 20 मीटर चौड़ी हैं और इस पर तीन मेहराब बने हुये हैं। मेहराब पर बहुत साधारण नक्काशी की गयी हैं और इसका भाग पीछे की तरफ निकला हुआ हैं। मेहराब की आकृति गुजरात सुल्तानों के काल से पूर्व की हैं और बहुत हद तक खिलजी या तुगलकों के समय में हिन्दू मंदिर को गिरा कर निर्मित की गयी होगी।
मस्जिद मे अंदर तीन मेहराब बने हुये है, तीनों महराबों के ऊपर तीन गुंबद हैं और इन गुंबदो में बड़ी सावधानी से किसी हिन्दू मंदिर के मंडप के प्रस्तर लगे हुये हैं, इस बात का ध्यान रखा गया हैं कि कोई हिन्दू आकृति इन प्रस्तर खण्डों पर न बनी रहे। क़िबला दीवार की तरफ जहाँ मेहराब हैं वही कुछ खिड़कियाँ हैं जिनके चौखट और खिड़की के ऊपर की संरचना हिन्दू मंदिर की तरह हैं। मस्जिद के बाहर के स्तंभो पर महराबों का निर्माण काफी बाद में किया गया हैं और केवल सजावटी हैं इनका इस्तेमाल छत को साधने के लिए नहीं हुआ हैं।इस मस्जिद में हिन्दू मंदिर के ध्वस्त स्तंभो का प्रयोग किया गया हैं। आमतौर से मस्जिदों की छत (गुम्बद) अन्दर से हिन्दू मंदिरो की अपेक्षा ज्यादा ऊँची होती हैं। इसलिए दो हिन्दू खंबों को एक के ऊपर एक लगाकर वांछित ऊँचाई को पाने का प्रयास किया गया हैं। निचले वाले खंबों पर जो कोष्ठक लगे हुये वे सरदल(lintel) साधने के लिए होते हैं, परंतु यहाँ तो कोई सरदल(lintel) हैं नहीं अत: वे केवल दिखावे की तरह ही रह गए हैं। केवल ऊपर वाले स्तंभो पर ही जो सरदल(lintel) हैं उनमे सहतीर (धारणी) का प्रयोग हुआ हैं। इस तरह की वास्तु गुजरात सल्तनत से पहले के काल में थी।
स्तंभो को विभिन्न स्थानों से लिया गया हैं,
लेकिन इस बात का ध्यान रखा गया हैं कि कोई हिन्दू आकृति उन पर ना हो, अगर हो भी उन्हे सावधानी से साफ कर दिया गया हैं। थोड़ी बहुत हिन्दू आकृति बची भी होगी तो वर्षो से होती आ रहे रंगरोगन से छिप चुकी होगी। इसमे कोई दो राय नहीं हैं कि इन अलग अलग स्त्रोतों से मिले स्तंभो को इतनी कुशलता से लगाया गया हैं जिसकी वजह से यह सामंजस्य में दिखते हैं। कम से कम तीन तरह के स्तम्भो का प्रयोग किया गया हैं । बाहर आँगन में जो खम्भे प्रयोग में किए गए हैं उनका निचला भाग वर्गाकार और ऊपरी भाग अष्टकोणीय हैं। वही जो खम्भे मस्जिद के अंदर वाले कमरे में लगे हुये हैं उनका निचला भाग वर्गाकार,
मध्य भाग अष्टकोणीय और ऊपरीभाग बेलनाकार हैं। और मेहराब के बीच में स्थित गुंबद के स्तम्भ नीचे वर्गाकार और ऊपर बेलनाकार संरचना के हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं कि खंभों के चुनाव और उन्हे सावधानी पूर्वक व्यवस्थित करने में काफी समय लगाया गया हैं, और इस मस्जिद का निर्माण मे किसी प्रकार की जल्दीबाजी नहीं की गई हैं।
इदरिस मस्जिद
यह मस्जिद नगर के पश्चिम द्वार की तरफ अवस्थित हैं। यह द्वार हिन्दू राजाओ के समय से यहाँ स्थापित हैं और मुस्लिम काल में केवल इस द्वार को मेहराबनुमा बना दिया गया बाक़ी संरचना में यह 10 सदी की हिन्दू वास्तुकला का सजीव उदाहरण हैं। इस द्वार को वेरावल द्वार भी कहा जाता हैं।
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चौगान की भाँति ईदरिस मस्जिद में भी बाहरी हिन्दू खंभों पर कमानीदार मेहराबनुमा संरचना बना दी गयी है, सौजन्य - मेहरदाद शोकुही - लीगेसी ऑफ इस्लाम इन सोमनाथ (2012) |
मस्जिद की बनावट के अनुसार इसका निर्माण काल 14वी सदी का लगता हैं। इदरिस मस्जिद के समीप में ही कलंदरी नामक पुरानी मस्जिद भी मौजूद हैं। इस मस्जिद का वास्तु भी लगभग चौगान मस्जिद की तरह ही हैं। मस्जिद का प्रांगण चौगान से चौड़ाई में थोड़ा छोटा लेकिन गहराई में ज्यादा हैं। मस्जिद की बाहरी दीवार अपेक्षाकृत नयी बनी हैं लेकिन अंदरूनी दीवार काफी पुरानी हैं। मुसल्ला की दोनों दीवारों से होकर बगल में गली हैं जिसमें दक्षिण और उत्तर दिशा में नयी दीवारों का निर्माण किया गया हैं
जिसकी वजह से चार छोटे कक्ष बन गए हैं, जिनका प्रयोग केवल समान रखने के लिए स्टोर रूम की तरह होता हैं, हालाँकि यह नया निर्माण हैं और मूल निर्माण में मुसल्ला(prayer hall) में अंदर की तरफ कोई दीवार नहीं थी। इस मस्जिद का निर्माण भी मंदिर के ध्वस्त अवशेषों से किया गया था। मस्जिद के खंभे निसन्देह किसी मंदिर के ही लगते हैं। यहाँ कम से कम दो तरह के प्राचीन खंभो का इस्तेमाल किया गया हैं।इस मस्जिद मे गुंबद नहीं हैं और छत बिलकुल सपाट हैं। इस मस्जिद में महिलाओं के लिए एक अलग से वीथिका बनी हैं जिसे मकसूरा या जनानखाना कहते हैं, यहाँ से महिलाए नवाज़ पढ़ सकती थी।
मंगरोल शाह की दरगाह
मंगरोल शाह या हाजी मंगरोली बाबा की दरगाह सोमनाथ के कुछ सबसे पुराने मुस्लिम ईमारतों में से एक हैं। यहाँ एक फ़ारसी शिलालेख लगा हुआ हैं, लेकिन वह किसी और मज़ार या मस्जिद का लगता हैं। किवदंतियों के अनुसार हाजी मंगरोली मूलत: अरब के निवासी थे और 10 शताब्दी के आरंभ में ही गुजरात के मंगरोल शहर (मंगलपूरी) आकर बस गए थे। वहाँ उन्होने काफिरों को दीन और ईमान की शिक्षा दी और फिर प्रभास के लोगो को दीन की रोशनी से रूबरू करवाने, सोमनाथ के नगर आ कर बस गए।![]() |
मंगरोल शाह की दरगाह एवं मस्जिद का पुनर्निर्माण अभी हाल में ही हुआ लगता है |
वॉटसन के अनुसार इस गाथा की रचना का समय काल 1800-01 ईसवी हैं लेकिन इस कविता में ऐतिहासिक घटनाओं के कुछ तथ्य भी मौजूद हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी श्रुतियों में चले आ रहे हैं। इसे इतिहासकारों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। कविता में प्रभास पाटण (सोमनाथ) नगर में स्थित मंगरोल शाह की दरगाह, माई पूरी मस्जिद और जफर मुजफ्फर की मज़ार के इतिहास का भी वर्णन हैं। चूंकि गाथा एक कविता के स्वरूप में और बहुत लंबी हैं इसलिए हमने केवल उस कविता के सार और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्यों को ही इस लेख में शामिल किया हैं। पूरी कविता पढ़ने के लिए कृपया इंडियन एंटिक्वेरी के 8वे संस्करण का संदर्भ लीजिये। गाथा का एक और प्रकार कर्नल टोड ने अपनी पुस्तक "पश्चिम भारत की यात्रा" में भी वर्णित किया हैं।
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1895 ईसवी मे यह इलाका कुछ इस तरह से दिखाता था। चित्र में ढेरों कब्रे दिखाई पड़ रही है। |
इस लोकगाथा (Ballad) को पढ़ने के बाद, आप मध्यकालीन भारतीय मुस्लिम समाज में भारतीय पूजा पद्धति एवं धर्म के प्रति घृणा के स्तर को स्वयं महसूस कर सकेंगे, कविता में जगह-जगह मूर्तिपूजा, हिन्दू (काफिरों) के प्रति दुर्भावना और उनके अनिष्ट की प्रार्थना की गयी हैं। वही दूसरी ओर विदेशी मुस्लिम आक्रांताओ जिन्होने लाखों भारतीयो की नृशष हत्याए की, के प्रति श्रद्धाभाव एवं उन्हे किसी नायक की भाँति महिमामंडन किया गया हैं। इसकी रचना महमूद गजनी की मृत्यु के लगभग 700 वर्ष बाद हुयी, ज़ाहिर हैं कि इस समय महमूद या उसका खानदान तो क्या गजनी राज्य भी नहीं बचा था, तो फिर भारतीय मुस्लिम इस व्यक्ति का गुणगान करने में क्यो लगे हैं? इसका प्रश्न का मंथन पाठक स्वयं करे, उत्तर आपके सामने ही हैं।
प्राचीन काल की बात हैं, नाघेर क्षेत्र में प्रभास पाटण नगर स्थित था। इस नगर में कई ब्राह्मण और मूर्तिपूजक निवास करते थे, यहाँ कुछ मुसलमान भी निवास करते थे, जो कि स्थानीय राजा द्वारा उत्पीड़ित थे। इस राजा का नाम कुँवरपाल था और वह वाघेर समुदाय से सम्बन्ध रखता था, उसके पास पैदल और घुडसवारों की विशाल फ़ौज थी।
इस राजा की एक आदत थी, वह प्रतिदिन सोमनाथ की प्रतिमा के सामने एक मुसलमान का वध करके उसके रक्त से ही कटे हुये मस्तक पर तिलक लगाता था। जब राजा के अत्याचार की सीमा पार हो गयी तो पैगम्बर मुहम्मद, मक्का शहर के एक हाजी महमूद को दिव्य दर्शन देकर उसे सोमनाथ पाटण जाकर, इस अत्याचार को समाप्त करने के आदेश देते हैं। मुहम्मद ने आगे उससे कहा कि, "होदेदाह के बन्दरगाह पर जाओ जहाँ तुम्हें पाटण जाने वाला जहाज़ तैयार खड़ा मिलेगा। तुम्हें इस जहाज़ पर चढ़ना हैं, और पाटण नगर पहुँचने के पश्चात सुल्तान महमूद गजनी को पत्र भेजकर सोमनाथ मंदिर को नष्ट करके इस्लाम फैलाने के लिए आमंत्रित करना हैं"। पैगम्बर की आज्ञा मान हाजी होदेदाह बन्दरगाह पहुंचा और उस जहाज पर सवार हो गया, जहाज के नाविक उसे लेकर मंगलपुर (मंगरोल) के पत्तन पर पहुँचे, यहाँ उतरने के पश्चात पैगम्बर एक बार फिर हाजी के स्वप्न में आए और बोले कि," यहाँ के लोग तुम्हें बहुत पसंद करते हैं, यहाँ से तुम मंगरोल के संत (मंगलूरी शाह) के नाम से जाने जाओगे, अब तुम पाटण शहर की ओर प्रस्थान करो और वहाँ पर मूर्तिपूजा (बुतपरस्ती) को खत्म करो"। हाजी तुरन्त मंगरोल से पाटण के लिए निकल पड़ा और मार्ग में एक जगह रुका जहाँ कई ऊँट वाले कारवाँ अपने तम्बू लगाए हुये थे, इसी जगह को आज हम हाजी के नाम पर (मंगरोल शाह दरगाह) जानते हैं। यहाँ पहुँच कर हाजी ने उनसे कहा, "हे बंधुओ, राजा के पास जाओ और उसे मेरा यह संदेश दो जिसके लिए मुझे अल्लाह द्वारा यहाँ भेजा गया हैं, कि, 'मेरी नेक सलाह सुनो और मेरे शब्दों पर ध्यान दो, ईमान पर विश्वास लाओ, और मुहम्मद की जमात में शामिल हो जाओ"
हालांकि वे सारे ऊँटो के मालिक उसकी बात सुन कर ड़र गए और कहा, हाजी तुम जहाँ से आए हो वही पर लौट जाओ, यह राजा बहुत निर्दयी हैं, यह निरन्तर मुसलमानों का वध करता रहता हैं और लोगो का खून बहाने में उसे बहुत आनन्द आता हैं। हाजी बोला, "डरो मत और जाओ जाकर राजा को मेरा यह संदेश दो कि मेरी बात पर क्रोधित ना हो क्योंकि यह संदेश सर्वशक्तिमान की तरफ से हैं और उसके (राजा के) लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद रहेगा इसलिए वह इसका विरोध न करे"।
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दरगाह के दूसरी तरफ से लिए गए चित्र में मज़ारों के साथ वह छतरी भी दिख रही है, इसे वर्तमान में पूरी तरह से आधुनिक दीवारों से ढ़क दिया गया है। |
ऊँटो के मालिक राजा के पास पहुँचे और उसे पूरी कहानी सुनाई, वह काफी क्रोधित हुआ और दूसरे दिन उसने अपने सैनिकों को हाजी को मारने के लिए भेजा, लेकिन जब हाजी ने उन सैनिकों पर अपनी दृष्टि डाली तो सारे के सारे सैनिक जहाँ थे वही जड़वत हो गए। जब राजा ने यह सब देखा तो वह हाजी के चरणों में गिर पड़ा और अपने सैनिकों को दुबारा सही सलामत करने के लिए हाजी के सामने गिड़गिड़ाने लगा। तब हाजी को दया आ गयी और उसने दुबारा अपनी नज़रे फेरी और सारे सैनिक सजीव हो उठे। उसी समय अचानक मंदिर के घण्टियों की आवाज़े ज़ोर-ज़ोर से कानो में पड़ने लगी और हाजी ने राजा से इनके बारे में पूछा तो राजा ने कहा कि, "यह हमारे सोमनाथ मंदिर के घण्टियों की आवाज़े हैं आइए मेरे साथ चलिये मैं आपको मंदिर के दर्शन करवाता हूँ। "
तब राजा हाजी को नगर भ्रमण पर ले गया और उसे शानदार महल में रखा, जहाँ हाजी को बेहतरीन भोजन दिया गया परंतु हाजी ने एक हिन्दू के हाथ से बने भोजन को खाने से इंकार कर दिया और कहा कि यहाँ रहने से अच्छा कि मैं किसी निर्धन मुसलमान के साथ रहना पसंद करूँगा, राजा को यह बात चुभ गयी, लेकिन वहाँ उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, और हाजी वह स्थान त्याग कर आगे चल दिया। चलते चलते अंतत: हाजी को एक पुरानी घंचन (मुस्लिम तेली की विधवा) रोते हुये मिली, जिसके पुत्र को अगले दिन प्रात: सोमनाथ मंदिर में बलि दी जाने वाली थी। हाजी ने उसे सात्वना दी और कहा कि वह उसके पुत्र के स्थान पर बलि देने जाएगा, इस पर वह विधवा बहुत प्रसन्न हुयी और हाजी को अपने घर में स्थान दे दिया।
जब सुबह राजा के सैनिक घंचनी के पुत्र को लेने आए तो हाजी ने अपने आप को उस लड़के के स्थान पर प्रस्तावित किया जिसे उन सैनिकों ने मान लिया और हाजी को अपने साथ बलि के लिए सोमनाथ मंदिर ले आए। जब राजा ने उसे दुबारा देखा तो अपने आदमियों से हाजी को वापस भेजने और घंचनी के पुत्र को वापस लाने के लिए कहा। इस पर हाजी ने कहा, "क्या तुम अल्लाह से नहीं डरते जो इस अबला और निर्धन स्त्री के इकलौते पुत्र की बलि देना चाहते हो, मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ तुम्हें इसका बहुत बुरा परिणाम भुगतना पड़ेगा"। यह सुनकर राजा एकदम तिलमिला उठा और हाजी को पकड़ कर बलि देने का आदेश दे दिया।
हाजी बोला, "ए ज़ालिम, क्यो तू दूसरों को यातना देता हैं, तेरी यह मूर्ति झूठी हैं, अब तू देख अल्लाह ने अपने ऊपर ईमान लाने वालो को क्या गनीमत दी हैं।"
तब राजा बोला, "मेरी यह प्रतिमा सत्य हैं, आओ और अपने आप आकर देखों कि किस तरह युगो-युगो से यह प्रतिमा हवा में ऐसे ही अपने आप लटक रही हैं। सोमनाथ का नाम ही लेने मात्र से ओंठों में शीतलता आ जाती हैं।"
हाजी बोला, " ईमान पर विश्वास लाओ, कुफ़्र को छोड़ दो, इस्लाम की बुलन्दी अपनी ज़ुबान पर लाओ।"
तब राजा ने कहा, "ओ हाजी, यदि तुम्हारे पास कोई दैवीय शक्ति हैं तो हमे दिखाओ, अगर कोई गीत गाना या बजाना जानते हो या इस मूर्ति के ऊपर कोई जादू कर सकते हो तो दिखाओ"
राजा उसे सोमनाथ मंदिर के परिसर में ले गया जहाँ संगीत, गायन और नृत्य चल रहा था, कई ब्राह्मण और ब्राह्मणी गायन और नृत्य में मगन थे, संगीतवादक अपने-अपने वाद्ययंत्रों को चला रहे थे और अनगिनत काफिर इसे देख कर आनंदित हो रहे थे। राजा ने हाजी को एक सुंदर दीपदान दिखाया जिसके कई रंग थे इसकी कीमत 2 लाख थी। मंदिर को अद्वितीय सुंदरता से रंग रोगन किया गया था एवं हीरे जवाहरातों से सजाया गया था। इसे चारो ओर से सुंदर मूर्तियों से सुशोभित किया गया था। सोमनाथ की प्रतिमा के सामने फलों का भंडार लगा हुआ था, लेकिन यह सब कुछ सड़ रहा था क्यूंकी उस प्रतिमा ने कुछ भी नहीं खाया था। इस प्रतिमा के सम्मुख एक पत्थर का साँड था जिसके सामने फलों और मिठाइयों का ढेर लगा हुआ था। हाजी ने कहा, " यहाँ इतना सारा स्वादिष्ट भोजन पड़ा हुआ हैं, मिठाइयों का भी ढेर लगा हैं, यह साँड कुछ खाता क्यो नहीं?
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वर्तमान में ईदगाह से मंगरोल शाह और बाक़ी मज़ारों का दृश्य कुछ यो दिखता है |
इस पर राजा ने बोला, "हाजी, क्या आप पागल हो गए हैं? यह साँड पत्थर का बना हुआ हैं, यह भोजन नहीं करेगा। हमारी सारी मूर्तिपूजा एक तौर से प्रतीकात्मक हैं। और कटाक्ष की मुद्रा में कहा, "कि यदि आप इसे भोजन करा सके, तो यह भोजन, फल और मिठाईया अवश्य खिलाइएगा"।
इस पर हाजी ने उस साँड पर पीछे से चाबुक मारा और कान में कहा, "अल्लाह के आदेश से उठो और इन फलों, मिठाइयों को खाओ तभी इन लोगो के हृदय से कुफ़्र खत्म होगा, उधर जाओ और मन्दिर में बैठो"। तभी साँड हिला और जीभ बाहर निकाल कर फलों और मिठाइयों को खाने लगा, इसे देख सारे के सारे काफ़िर भयभीत हो गए और बोले की इस हाजी ने तो सच में एक बड़ा कारनामा अंजाम किया हैं।
साँड बोला, " मुझे और भोजन दो, मैं वर्षो से भूखा हू, मुझे इस पूरे नगर का भोजन, लोग और यहाँ का राजा भी दो, अगर हाजी आज्ञा दे तो मैं सभी का भोजन कर चाहता हूँ। हाजी ने उसे कुछ घास दी और अपने स्थान पर वापस जाने की आज्ञा दी।
राजा ने हाजी से कहा, " मैं सोमनाथ में विश्वास करता हूँ, वे हमारे सच्चे ईश्वर हैं, लेकिन तुम इस बात को नहीं समझ सकते, हमारे ईश्वर हमारे सारे दुखों का निवारण करते हैं और उनके समकक्ष कोई नहीं हैं।"
हाजी ने कहा, " हे राजा, सोमनाथ का तुमसे कोई वास्ता नहीं हैं, इस पर इतना गर्व करने की आवश्यकता नहीं हैं। मैं अभी तुम्हें इससे जुदा कर दूंगा। यह (मूर्ति) बेचारा तो स्वयं दोनों हाथो को जोड़कर खड़ा, अल्लाह के आदेशो का गुलाम हैं। देखों जब मैं इसे पुकारूँगा तो यह कैसे स्वयं बाहर आयेगा" ।
तब हाजी बोला, " सोमनाथ, बाहर आओ, देर न करो, सिद्दी के अवतार में आओ, मुझे तुमसे कुछ काम करवाना हैं।" सारे के सारे काफ़िर अपनी आंखे मलते हुये आश्चर्यचकित तौर से यह सब देख रहे थे। तभी अंदर से मूर्ति की आवाज़ आती हैं, "पीर हाजी, मैं आपकी सेवा में हाजिर हूँ, मैं आपके पास आ रहा हूँ, आप मेरे आध्यात्मिक मार्गदर्शक हैं, और मैं आपके आदेश पर कुछ करने को तैयार हूँ, वे सभी जो आपकी बात पर अविश्वास प्रकट करते हैं उन्हे शर्मिंदा होना पड़ेगा।"
तभी लिंग फट जाता हैं और उसमे से मानव के आकार में भूरे रंग का एक सिद्दी प्रकट होता हैं। वह हाजी के पास जाकर कहता हैं, "आप बहुत शक्तिशाली हैं, कृपया मुझे आदेश दे, मैं पालन करूँगा।" हाजी उसे एक चमड़े का डोलचा (मश्क़) देता हैं और कहता हैं कि, "तेजी से इसमे पानी भरो जब तक मैं अपनी प्रार्थना कर लूँ और फिर वज़ू करूंगा"। तब वह मूर्ति (सिद्दी) उस डोलचा को लेकर कुंड से पानी भरता हैं, कुंड का सारा जल उस डोलचा में भर जाता हैं और वह सिद्दी उस डोलचा को हाजी के सम्मुख रख देता हैं। अविश्वासी काफ़िर उस कुंड को खाली देख दंग रह जाते हैं और इसकी शिकायत राजा से करते हैं कि, पूरा नगर जल की कमी से बर्बाद हो जायेगा, हाजी के नौकर ने पूरे कुंड को सूखा दिया हैं। तब राजा हाजी से प्रार्थना करता हैं कि, "आपके सिद्दी ने पूरे नगर के कुंड को सूखा दिया हैं, जिससे मेरी प्रजा परेशान हो गयी हैं।"
तत्पश्चात हाजी अपने वज़ू के लिए थोड़ा सा पानी लेकर बाकी डोलचा मूर्ति (सिद्दी) को वापस देते हुये कहता हैं कि, "वापस जाओ और कुंड को दोबारा भर दो, और डोलचा वापस लाकर यही रख दो"। सिद्दी, हाजी के कहे अनुसार ही जलकुंड को दोबारा भर के डोलचा वापस रख देता हैं और समुद्र में कूद कर अदृश्य हो जाता हैं।
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पुराने चित्रो से तुलना करने पर हमे ज्ञात होता है कि वर्तमान में पीर हाजी के नाम से काफी बड़े क्षेत्र को घेर लिया गया है। |
इतना सब होने के पश्चात भी काफ़िर, हाजी पर विश्वास नहीं करते और जब वह नमाज़ पढ़ने के लिए मन्दिर में प्रवेश करता हैं तो चारों तरफ से उसके ऊपर पत्थर फेकते हैं, हाजी को इस पर क्रोध तो बहुत आता हैं परंतु वह किसी तरह अपना क्रोध नियंत्रण में करके उस स्थान को छोड़ देने में ही भलाई समझता हैं, लेकिन नगर छोडकर जाते हुये सुल्तान महमूद को पत्र लिखकर बुलाने और बुतपरस्ती को पाटण से समाप्त करने का निर्णय लेता हैं।
हाजी, नगर के बाहर स्थित मासूम शाह की मज़ार पर रहने लगता हैं, और यहाँ रहकर राजा को खत्म करने के तरीके सोचता रहता हैं। उधर हाजी के जाने के पश्चात राजा अपने आपको और कठोर बना लेता हैं, और एक बार फिर घंचनी (तेली की विधवा) के लड़के की बलि सोमनाथ के सम्मुख देकर उसके ही रक्त से तिलक लगाता हैं। हालांकि इस लड़के के वध से पूरे नगर में ड़र का वातावरण फ़ेल जाता हैं, सब शंकित हो जाते हैं कि अब राजा पर कोई भारी विपत्ति आने वाली हैं। घंचनी विधवा अपने लड़के को खोकर बहुत दुखी होती हैं और हाजी के पास आती हैं। हाजी उसे सात्वना देता हैं और प्रतिशोध लेने के लिए विधवा के हाथ में एक पत्र देकर सुल्तान महमूद के पास गजनी भेजता हैं। सुल्तान महमूद के पास पहुँचने पर वह महिला सुल्तान को हाजी का पत्र देती हैं। पत्र पढ़ने के बाद सुल्तान उससे पूछता हैं कि यह पाटण कैसी जगह हैं। इस पर बूढ़ी महिला कहती हैं कि, "पाटण नगर एक किले की चारदीवारी से घिरा हुआ हैं जिसकी चौड़ाई 1 कोस हैं, यह सोरथ (सौराष्ट्र) राज्य के अंतर्गत आता हैं। इसके दरवाजे लोहे के बने हुये हैं जिन पर लोहे की मोटी कीले लगी हुयी हैं। इसके चारों ओर पत्थरो से बनी हुयी गहरी खाई हैं एवं उनमे पानी भरा हैं। उसने आगे बताया कि यह किला महासागर के तट पर बना हुआ हैं और काफिरों की बहुत बड़ी सेना इसकी रक्षा करती हैं। जबकि राजा एक निर्दयी और निष्ठुर व्यक्ति हैं, जो सोमनाथ के सम्मुख प्रतिदिन एक मुस्लिम की बलि देता हैं। अंत में वह कहती हैं कि उसने सुल्तान को वह सब कुछ बता दिया जितना वह जानती थी, अब उसकी सुल्तान से दरख्वास्त हैं कि पाटण नगरी से काफिरों का जड़मूल से सफाया कर दिया जाये और वहाँ इस्लाम की रोशनी फैलाई जाये। सुल्तान उसकी बात सुनकर युद्ध की तैयारी करने का आदेश देता हैं और उसके हाथ में हाजी के लिए पत्र भी भिजवाता हैं जिसमे सुल्तान के पाटण आने और हाजी से मिलने की बात लिखी होती हैं।
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दरगाह में प्रवेश करने का द्वार एक आधुनिक निर्माण है |
सुल्तान महमूद भारत में दाखिल होता हैं, मार्ग में सबसे पहले जेसलमेर पड़ता हैं, यहाँ की रानी सुल्तान के सामने आत्मसमर्पण कर देती हैं और अपनी सुरक्षा हेतु सुल्तान को भेंट और उपहार अर्पित करती हैं, सुल्तान इस क्षेत्र से बड़े आराम से गुजर जाता हैं। यहाँ से महमूद, सोरथ (सौराष्ट्र) पहुंचता हैं और फिर सोमनाथ पाटण, जहां राजा कुँवरपाल अपनी विशाल सेना के साथ महमूद का सामना करने के लिए तैयार था। यहाँ के स्थानीय मुस्लिम उसे पहले मंगलपुरी (मंगरोल) पर हमला करने की सलाह देते हैं, यह राजा जयपाल के अधिकार में थी, राजा जयपाल, कुँवरपाल का जीजा था। सुल्तान, कामेश्वर (कामनाथ) कोतड़ी के रास्ते मंगरोल पहुचता हैं। इतनी विशाल सेना को सामने देख जयपाल घबरा जाता हैं और महमूद के सामने हथियार ड़ालने में ही भलाई समझता हैं। वह महमूद के सम्मुख आत्म समर्पण कर देता हैं। महमूद, जयपाल से फिरौती वसूल कर वापस पाटण पर हमला करता हैं, और माई हजत (Mai Hajat) नमक स्थान पर डेरा डालता हैं, इधर कुँवरपाल भालका तीर्थ पर मोर्चा संभालता हैं। दोनों के बीच यहाँ एक युद्ध होता हैं जिसमे महमूद की शक्तिशाली सेना पाटण राजा को पराजित कर देती हैं, मजबूरन पाटण राजा को पीछे हटना पड़ता हैं अब वे मोटा तालाब से मोर्चा बंदी करते हैं जबकि भालका तीर्थ महमूद के कब्जे में आ जाता हैं। यहाँ तक पाटण राजा के 24,000 और महमूद के 10,000 सैनिक वीरगति को प्राप्त होते हैं। अपनी दुर्बल स्थिति और पराजय को निश्चित देखते हुये पाटण के राजा अपने मंत्रियों के साथ विचार विमर्श करते हैं और सुल्तान के सामने आत्म समर्पण करने का निर्णय लेते हैं, इसके लिए वह अपना संदेश चारणों और दूतों के द्वारा सुल्तान तक भिजवाता हैं। परंतु सुल्तान उसके इस निर्णय पर तैयार नहीं होता और शर्त रखता हैं कि वह केवल तभी सहमत होगा जब राजा एवं उसके मंत्री इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। इसके अलावा वह यह भी कहता हैं कि उसे बदले में कोई धन नहीं चाहिए बस पाटण का किला अपनी तोपों के गोलों से उड़ाना चाहता हैं और सारे मंदिरो को मिट्टी में मिलाकर कुफ़्र खत्म करना चाहता हैं। उसकी यह शर्त राजा एवं प्रजा को नागवार गुजरती हैं, और वे आक्रांताओ से मृत्युपर्यन्त लड़ने का निर्णय लेते हैं।
राजा की सेना का मध्य भाग का नेतृत्व दो वीर भील हम्मीर और वेगड़ कर रहे थे, जिनकी वीरता के किस्से बहुत मशहूर थे। राजा की सेना मोटा तालाब पर मोर्चा संभाले हुये थी और महमूद की सेना भालका तीर्थ से लड़ रही थी। प्रतिदिन दोनों सेनाओ में झिटपुट मुठभेड़ होती थी। दोनों ही पक्ष वीरता से लड़ रहे थे। सुल्तान के मंत्रियो ने विचार विमर्श किया और यह निर्णय लिया कि एक मजबूत सेना को पाटण नगर और मोटा तालाब के बीच तैनात करना चाहिए जिससे कि शत्रु को नगर से सैन्य सहायता और रसद न मिल पाये, इसके लिए 10,000 सैनिकों की टुकड़ी को राजा कि छावनी और नगर के बीच के किसी भी आवागमन और संपर्क को रोकने के लिए तैनात कर दिया गया।
जब राजा को इस बात की सूचना मिली तो उसने हमीर और वेगड़ को भेजा जो कि रिश्ते में ससुर और दामाद थे। योजनानुसार भीलों ने अपनी पूरी सेना इकट्ठी की और रात के अंधेरे में मुस्लिम सेना की टुकड़ी पर हमला कर दिया। उन्होने बड़ी वीरता से लड़ाई लड़ी और हजारो मुसलमानों को काट डाला परन्तु इस मोर्चेबन्दी को जीत न सके। हमीर और वेगड़ को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। लेकिन बड़ी संख्या में मुस्लिम इस जगह शहीद हुये जिन्हे इस युद्धक्षेत्र के पास ही दफ्ना दिया गया, इस स्थान को आज भी गंज शहीदा के नाम से जाना जाता हैं। अपने इस नुकसान की स्थिति को देखते हुये वजीरो और अमीरों ने सुल्तान को सलाह दी कि हमारे काफी आदमी मारे जा चुके हैं अत: हमे अन्य मोर्चो से सैनिकों को हटा लेना चाहिए और यहाँ तैनात कर देना चाहिए, उनकी सलाह मानते हुये सुल्तान अपने पाँच से तीन मोर्चे खत्म कर देता हैं और केवल दो बहुत मजबूत मोर्चे तैयार करता हैं। एक गुल गुवारन और दूसरी तालूनीबाड़ा में, जिससे कि हिन्दू सेना का पाटण नगर से सम्बंध कट जाये और शत्रु सैनिकों को सैन्य सहायता न मिल पाये।
इस तरह से घेराबन्दी में 5 महीने का समय बीत जाता हैं। इस दौरान हाजी गंगा मन्दिर (गंगा थानक) में अपना निवास बना लेता हैं और यहाँ स्थापित गंगा की मूर्ति को फेंक देता हैं। गंगा की मूर्ति उससे कहती हैं कि," हे पीर हाजी, मैं कहाँ जाऊ?" इस पर हाजी जवाब देता हैं, "जहाँ जाना चाहो वहाँ जाओ परन्तु यहाँ वापस नहीं लौटना, जाओ जाकर किसी चट्टान पर बैठो लेकिन मुझे तंग करना बंद करो। "
गंगा कहती हैं, "मैं खुशी से उस जगह जा रही हूँ जहाँ तुम मुझे भेज रहे हो।"
कुछ समय के पश्चात इस जगह हाजी बीमार पड़ जाता हैं और उसकी मृत्यु हो जाती हैं। उनकी याद में इस जगह पर एक मज़ार बना दी जाती हैं। और इस प्रकार वह हाजी खत्म हो जाता हैं जिसने गजनी के सुल्तान महमूद को पाटण पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन महमूद कभी उससे मिलने नहीं आ सका। उसकी मृत्यु के तीसरे दिन सुल्तान महमूद, पाटण राजा पर बड़ा हमला करता हैं और राजा की सेना को चारों ओर से घेर लेता हैं। इस युद्ध में 9000 मुस्लिम और 16,000 हिन्दू सैनिक मारे जाते हैं और राजा की हार होती हैं, राजा को किले में भागकर शरण लेनी पड़ती हैं। दोनों तरफ युद्ध की तीव्रता अब बहुत तेज हो जाती हैं। इस दौरान सुल्तान को हाजी की याद आती हैं और वह उससे मिलने की इच्छा जताता हैं, लेकिन जब उसे पता चलता हैं कि हाजी की मृत्यु हो चुकी हैं, तो उसे बहुत दुख होता हैं। और वह पाटण से कुफ़्फ़ार (मूर्तिपूजा, गैर-इस्लाम) खत्म करने की कसम खाता हैं, और कहता हैं कि ब्राह्मणो की मूर्तिपूजा दण्डरहित नहीं रहेगी, वह उन सबों के सिर कुचल देगा जो इस्लाम को नहीं स्वीकारेंगे, और यह सब करने के बाद ही वह हाजी की मज़ार जाएगा"।
लेकिन किले का घेराव पड़े हुये 12 वर्ष बीत जाते हैं परन्तु कोई फ़ायदा नहीं होता हैं। वज़ीर उसे पहले हाजी की मज़ार जाने की हिदायत देते हैं और वहाँ जाकर हाजी का सानिध्य लेने की सलाह देते हैं। मज़ार पर हाजी उसे दिव्यदर्शन देता हैं और शुक्रवार को जुमे की नमाज़ के बाद राजा पर हमला करने की सलाह देता हैं। वह उसे उसकी सेना के दो जाबांज भाईओ जफर और मुजफ्फर के नाम बताता हैं और कहता हैं कि इन दो के द्वारा ही तुम जीत के द्वार पर पहुँच पाओगे।
वापस आकर सुल्तान दोनों भाइयों से मिलता हैं और उन्हे अपने हाथियों से नगर के समीप ही छिपकर, शत्रु पर हमले के लिए तैयार रहने का आदेश देता हैं, इधर वह गुरुवार को ही अपनी सम्पूर्ण सेना नगर से पाँच कोस दूर ले जाता हैं, यह देख कर पाटण राजा बहुत प्रसन्न होता हैं कि शत्रु सेना आखिरकार वापिस चली गयी। नगर के मूर्तिपूजक भी यह देखकर खुश होते हैं और नगर के द्वार खोल देते हैं।
रात्री को जब पूरी प्रजा आनंदित होकर नींद में मग्न होती हैं तो सुल्तान के सिपाही पूरी ताक़त के साथ नगर पर जबर्दस्त हमला कर देते हैं। दोनों भाई जफर और मुजफ्फर लोहे के कवच में सुसज्जित मीठा नमक हाथी पर सवार होकर नगर पर धावा बोल देते हैं, सबसे पहले वे द्वार के बाहर पहरा दे रही सेना पर हमला करते हैं और उन्हे नगर के अंदर भागने पर मजबूर कर देते हैं फिर मीठा अपनी मार से नगर का द्वार तोड़ने का प्रयास करता हैं, लेकिन उस द्वार पर लगी कीलों से घायल होकर पीछे हटने लगता हैं। तो दोनों भाई मिलकर ऊँटो के कटे सिर उन कीलों में फँसा देते हैं जिससे हाथी को नुकसान न पहुँचे, और अपने तीसरे प्रयास में हाथी उस दरवाजे को तोड़ देता हैं। फिर उसके बाद महमूद की पूरी सेना किले में "दीन, दीन" के नारे लगाते हुये प्रवेश करती हैं। तलवारों से तलवारे टकराती हैं और एक भयंकर संग्राम होता हैं। अल्लाह महमूद को जफर और मुजफ्फर के द्वारा विजय दिलवाता हैं हालाँकि दो में से एक भाई इस युद्ध में शहीद हो जाता हैं। सुल्तान आदेश देता हैं कि किसी भी तरह कि फिरौती नहीं वसूली जाएगी बल्कि मुहम्मदन के अलावा नगर के प्रत्येक व्यक्ति का कत्ल किया जाएगा। महमूद की सेना नगर के गली मुहल्लों में हरेक जगह जिस किसी भी व्यक्ति ने इस्लाम नहीं कबूला सभी का कत्ल करने लगती। हम्मीर और वेगड़ भी युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त होते हैं, अपने सभी बहादुर और प्रतापी योद्धाओ को मरते देख राजा का साहस भी पस्त पड़ गया। राजा अपने सभी सगे सम्बन्धियो, निकट सहयोगियों को लेकर सुल्तान के पास पहुंचता हैं और सुल्तान से रहम की भीख माँगता हैं, सुल्तान 40 लाख लेकर उन सभी को सुरक्षित जाने देता हैं। इसके पश्चात सुल्तान, सोमनाथ में प्रवेश करता हैं और सोमनाथ की उस प्रतिमा को देखता हैं जो बिना किसी सहारे के हवा में लटक रही थी। सुल्तान इसे देखकर आश्चर्य में पड़ जाता हैं, लेकिन वज़ीर उसे बताते हैं कि इस प्रतिमा के सिर में लोहा लगा हैं, और ऊपर एक शक्तिशाली चुम्बक हैं जिसकी वजह से मूर्ति लटक रही हैं। सुल्तान उस चुम्बक को मन्दिर की छत से हटाने का हुक्म देता हैं। चुंबक के हटते ही प्रतिमा धड़ाम से फर्श पर आ गिरती हैं।
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अन्य दरगाहों की भाँति यहाँ भी मुख्य कक्ष में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, वे केवल बाहर से ही दर्शन कर सकती है। |
उधर आधे रास्ते पर पहुँचकर पाटण राजा को याद आता हैं कि वह सोमनाथ मंदिर को तो बिना किसी सुरक्षा के आक्रमणकारी के हाथों में छोड़ आया हैं। वह तुरंत वापस सुल्तान के पास पहुँचता हैं और उससे सोमनाथ की प्रतिमा को नष्ट न करने का आग्रह करता हैं, इसके एवज़ में वह एक बड़ी रकम फिरौती के तौर पर देने की पेशकश भी रखता हैं। लेकिन सुल्तान तो गजनी से ही उस सोमनाथ की मूर्ति को तोड़ने की प्रतिज्ञा करके चला था। सुल्तान के वजीर उसे राजा द्वारा पेश की गयी बड़ी रकम को लेने की सलाह देते हैं और साथ ही राजा को धोखे से चूना पत्थर की बनी उस मूर्ति को पीस कर पान सुपारी में खिलाने की बात बोलते हैं। सुल्तान को उनकी यह राय पसंद आती हैं और राजा से मूर्ति के बदले 10 लाख की रकम तय की जाती हैं। इसके पश्चात राजा को नृत्य सभा में मनोरंजन के बहाने, धोखे से पान सुपारी में उस चूना पत्थर की मूर्ति से बना चूना खिला दिया जाता हैं। जब राजा 10 लाख की रकम चुका देता हैं और बदले में सोमनाथ की मूर्ति की माँग करता हैं तो सुल्तान कहता हैं कि, "मैं सोमनाथ तुम्हें पहले ही दे चुका हूँ, और तुमने इसे प्राप्त भी कर लिया हैं। मैंने पहले मूर्ति को तुड़वाकर इसका चूर्ण बनवा दिया फिर इसे अग्नि में जलाकर इसका चूना बनवाया और तुम्हें पान सुपारी में मिला कर दे दिया। तुमने न केवल इसे ले लिया बल्कि खा भी लिया हैं" अत: मैंने अपना वायदा पूरा कर दिया।
इतना सुनकर राजा और उसके अनुयायी मरने के लिए तैयार हो जाते हैं, कुछ अपने ही कटार अपने गले में घोप लेते हैं, कुछ अपने चाकू से अपनी जीभ काट लेते हैं और कुछ अपने हाथों से अपनी हत्या कर लेते हैं बाकी कुछ तलवार निकाल कर सुल्तान की तरफ़ लपकते हैं लेकिन सुल्तान के अंगरक्षकों द्वारा मारे जाते हैं बाकि अन्य को बंदी बना लिया जाता हैं, इस प्रकार सारे काफिर मारे जाते हैं ।
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समीप स्थित जफर-मुजफ्फर की दरगाह के चारो ओर आधुनिक निर्माण करवा दिया गया है, जिससे आम जनता को हिन्दू मंदिर सामग्री के दर्शन न हो जाये |
इस प्रकरण के बाद सुल्तान सन्त मंगलूरी शाह की बड़ी ही सुंदर मज़ार बनवाता हैं और समीप में ही दो योद्धा भाइयों जफर और मुजफ्फर की याद में मस्जिद बनवाता हैं इसके अलावा पूरी मस्जिद भी बनवाता हैं। इस घटना से यह साफ हैं कि यदि राजा, हाजी की बात मानकर इस्लाम को अपना लेता तो उसे इस तरह अपना राजपाट और देश नहीं खोना पड़ता।
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इस दरगाह में कुछ प्राचीन अभिलेख मौजूद है, हालाँकि वे इस ईमारत से संबन्धित नहीं है |
मंगरोल शाह की दरगाह में एक फ़ारसी शिलालेख प्राप्त हुआ हैं यह प्रस्तर अभिलेख किसी व्यक्ति की कब्र का था, जिसे यहाँ कालान्तर में मंगरोल शाह की दरगाह में लगा दिया गया।
इसका रूपान्तरण ज़ेड॰ ए॰ देसाई (Z. A. Desai, ASI) ने एपिग्राफिका इंडिका के अरेबिक और फ़ारसी सप्प्लिमेंट में दिया हैं,(Annual report of Indian epigraphy 1954-55, pg 168)
मुख्य व्यापारी, हसन बिन मुहम्मद बिन अली अल-इराक़ी का शिलालेख (बिना पढ़ा गया) के अनुसार दिनाँक 1 रबी उल-अख्र हिजरी 677 ( 26 दिसंबर 1278) (Malik al-akAbir)
पैगम्बर और उसके अनुयाई, जो कुछ भी उनके रब की तरफ से उन्हे बताया/दिखाया गया उस पर विश्वास करते है। वे सभी, अल्लाह, फरिश्तों, उसकी किताबों और उसके द्वारा भेजे गए पैगम्बरों पर विश्वास करते है। उनका कहना यह है कि, "वे किसी भी पैगम्बर के साथ भेदभाव नहीं करते"। और वे कहते है कि, "हम सुनकर, आज्ञा का पालन करते है", हमारे रब! हम तुम्हारे क्षमाप्रार्थी है, हमे आखिर में तुम्हारी ओर ही लौटना है"। (कुरान सुरा : अल-बकरा 2:284)
अल्लाह किसी जीव पर उतना ही दायित्व डालता है जितना कि वह सह सकता है। वह जितना अच्छा करेगा उसको उतना फायदा होगा और जितना बुरा करेगा उसका उतना ही नुकसान होगा। ईमान वाले (अनुयायी) प्रार्थना करते है, "हे अल्लाह, यदि हमसे भूल हो जाये या गलती हो जाये तो हमे दण्ड मत दीजिएगा"। हे ईश्वर, हम पर इतना बोझ मत डलिएगा जितना आपने हमसे पहले वालो पर डाला था। हे ईश्वर, हम पर हमारे सामर्थ्य से ज्यादा वजन मत डालना। हमे क्षमा करिए, हम पर रहम बनाए रखिए । आप ही हमारे एकमात्र संरक्षक है, इसलिए हमे काफिरों की कौम (अल-क़ौमी अल-काफ़िरीना) पर फतह पाने का आशीर्वाद दीजिये (कुरान सुरा : अल-बकरा 2:285)
ला इल्लाह इल्लील्लाह मुहम्मदुर्रासुल उल्लाह
यह प्रधान, सम्मानित, जो उसकी कृपा में लौट चुका है की कब्र है । वह क्षमाशील, सौभाग्यशाली, शहीद, जो अल्लाह की छाया में लौट चुका हैं, वह हमेशा बुलंद रहे, व्यापारियों और अमीरों के प्रधान, राज्यों और ईमान के सूरज, हसन बिन(सुत) मुहम्मद बिन(सुत) अल-इराक़ी, अल्लाह उस पर कृपा की छाया बनाए रखे और उसे जन्नत प्रदान करे। वह रबी अल-अखर के पहले दिन, हिजरी 677 को मृत्यु को प्राप्त हुआ
The Messenger believes in what was sent down to him from his lord, and the believers; each one believes in God and his angels, and in his Books and his messengers; we make no division between any on of his messengers. They say, "we hear, and obey, our lord, grant us they forgiveness; unto thee is the homecoming".
God charges no soul save to its capacity; standing to its account is what it has earned, and against its account what it has merited. Our Lord, take us not to task if we forget, or make mistake. Our Lord, charge us not with a load such us beyond what we have the strength to bear. And pardon us, and forgive us, and have mercy on us; Thou art our protector, and Help us against the people of the unbelievers. Quran 2:285-6
There is no God but Allah, Muhammad is his messenger
This is the tomb of the great chief, the venerable, the revered, [who] has returned to his mercy,
The forgiven, the blessed, the martyr who has returned to the mercy of god, may He be exalted, the chief of the merchants and nobles, the sun of the dominion and the faith, Hasan bin Muhammad bin Al of Iraq (al-Iraqi) May god cover him with mercy.....
and place him in the abode of paradise. He died on the first day of Rabi al-akhar in the year six hundred and seventy seven.
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गजनवी को सोमनाथ हमले का निमंत्रण देने वाले हाजी मंगरोली बाबा आज उसी सोमनाथ में हिन्दू और मुस्लिमो के बीच एक विशिष्ट और पुजयनीय शख्सियत है |
गजनी प्रस्थान करने से पहले सुल्तान अपने एक सेनापति मीठा खान को पाटण की फ़ौजदारी सौंपता हैं। और इस तरह से मीठा खान पाटण का हाकिम (राज्याधिकारी) बन जाता हैं। सुल्तान पाटण का काजी (न्यायाधीश, शरीअत का जानकार)) दो शैख भाइयों जलालउद्दीन और लुक़मान को बनाता हैं जो खलीफा अबु बकर के खानदान से थे। तत्पश्चात सुल्तान अपने बक्शी (वित्तलेखाकार) से पूछता हैं कि गजनी से यहाँ तक उसके कितने सिपाही शहीद हो चुके हैं। बक्शी बताता हैं कि 1,25,000 सैनिक अभी तक शहीद हो चुके हैं, यह जानकार सुल्तान गजनी रवाना हो जाता और गजनी पहुँच कर इस अभियान में अर्जित की गयी रकम को गरीबो के उत्थान, और दीन पर खर्च करता हैं, वह युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवारों को भी जागीरे और रकम बांटता हैं।
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यह हिन्दुओ की उदारता का एक बेहतरीन उदाहरण ही है कि मंगरोली बाबा की मज़ार अभी भी सही सलामत है |
उधर मीठा खान, सोमनाथ मंदिर का निरीक्षण करने पहुंचता हैं। ऐसी मान्यता हैं कि काफिरो में पहले से ही यह भविष्यवाणी हो चुकी थी कि इस मंदिर को मीठा द्वारा नष्ट होना तय था। पाटण के राजा को लगा कि भविष्यवाणी का अर्थ मिठू (नमक) से हैं, इसलिए मंदिर को बचाने हेतु दीवारों पर प्रतिदिन घी का लेपन करवाया करता था। मीठा खान ने अपने सैनिकों को मन्दिर को नष्ट करके ज़मींदोज़ करने का आदेश दिया, कुछ मूर्तिपूजक जो उस समय तक नगर में बच गए थे ने अंतिम बार मन्दिर को बचाने के लिए सशस्त्र विरोध किया परन्तु उनका प्रयास विफल हो गया, और मीठा खान के सैनिकों ने सभी को मौत की नींद सुला दिया, उनके घर लूट लिए गए और मुहम्मदन सैनिकों ने वहाँ से काफी धन अर्जित किया।
यहाँ पाटण की विजय गाथा समाप्त होती हैं, यह अल-हिजरी 470 (1077 ईसवी) में घटी, जब सुल्तान ने पाटण (प्रभास पाटण) पर चढ़ाई की और हाजी मंगलूरी शाह ने कई दैवीय कारनामे किये। इसकी सत्यता संदेह से परे हैं। इस कविता को शैखदीन ने अल हिजरी 1216 (1801 ईसवी) में तैयार किया और दादाभाई, जो की एक बेहतरीन लिपिक (शास्त्री, scribe) हैं ने इसे लिपिबद्ध किया।
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पूरी की पूरी दीवार आधुनिक टाइल्स से ढ़क दी गयी है |
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मस्जिद की सच्चाई जगजाहिर ना हो इसलिए दीवार को बाहर से भी टाइल्स द्वारा ढ़क दिया गया है |
जफर – मुजफ्फर दरगाह
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जफर-मुजफ्फर की मज़ार 1895 ईसवी में कुछ इस प्रकार दिखती थी |
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इसका मूल निर्माण हिजरी सन 463 (1070-71 ई०) में करवाया गया था, एवं हिजरी 1435 (2013-14 ई०) में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। |
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पुनर्निर्माण होने से मूल स्तम्भ एवं छतरी ढ़क चुकी है |
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आराम फरमाते हुये गजनवी के गाजी मुजाहिद जफर और मुजफ्फर जो सोमनाथ हमले में शहीद हो गए थे। |
Corpus Inscriptionum Bhavanagari 1889, pg 32
यह एक सफ़ेद संगेमरमर के पत्थर पर जिसका की आकार 21"x13" है पर उत्कीर्ण है, जिसमे अरबी और फारसी दोनों ही भाषाओ में 6 पंक्तियाँ उल्लेखित है । ऐसा माना जाता है कि ये मस्जिद सुल्तान महमूद बेगड़ा के शासन काल में सैय्यद जफर ने 1504 ईसवी में बनवाई थी।
बिस्मिल्लाह उर-रहमान उर-रहीम, अल्लाह सुभानवहु ताला कहते है, ""वास्तव में, मस्जिदे केवल अल्लाह के लिए है, इसलिए अल्लाह के सिवाए किसी और ईश्वर को मत पूजों। (कुरान अल-जिन्न 72:18)
पैगम्बर, रहमतुल्लाह व बरख्तुल्लाह ने कहा, "जो भी अल्लाह के लिए मस्जिद बनाएगा, वह अपने लिए जन्नत में महल पाएगा"। (सहीह अल-बुख़ारी 450)
यह मस्जिद, सुल्तान महमूद के तुच्छ गुलाम सैय्यद जफर द्वारा मिया हाकिम सैय्यद बिन साहिब के लिए रबी-उल-अव्वाल के महीने में सन 910 हिजरी में बनवाई गयी।
खंबात जिला के थानेदार
माईपुरी मस्जिद
माईपूरी मस्जिद प्रभास पाटन से वेरावल जाने वाले मुख्य मार्ग के दक्षिण में स्थित हैं और नगर की सीमा से कोई ज्यादा दूर नहीं हैं। यह उसी स्थान पर हैं जहां विशाल मुस्लिम कब्रिस्तान, ईदगाह एवं मंगरोल शाह की दरगाह स्थित हैं।
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माई पूरी की मस्जिद को दरगाह में बदल दिया गया है और सम्पूर्ण रूप से टाइल्स से ढ़क दिया गया है |
हेनरी कौसेंस ने अपनी पुस्तक Somnath and other medieval temples में माई पूरी का विवरण दिया हैं पृष्ठ 31-32
"ऐसा प्रतीत होता हैं कि कुछ हिन्दू आकृतियाँ, निर्मांर्ताओ की नजरों से बच गयी, या किसी भी मतलब के लिए महत्वहीन समझी गयी, इसलिए उन्हे मिटाया नहीं गया। इसमे एक गजलक्ष्मी की आकृति हैं जो छत के नीचे और स्तम्भ के कोष्ठक (bracket) के बीच में हैं, इसके अतिरिक्त कोष्ठक के नीचे हिन्दू शृंखला की बनावट हैं जिस में अंतराल के बाद एक ऐसी आकृति बनी है जो विष्णु के वाहन, गरुण की तरह प्रतीत होती हैं। यह किसी के ध्यान में आने के लिए भी बहुत छोटी हैं और एक ऐसी जगह बनी हैं जहाँ नज़र पड़ना इतना आसान नहीं हैं। मस्जिद के बीचों बीच एक सन्त की मज़ार हैं , इस पर कपडा पडा है, इन्हे ही माईपूरी कहा जाता हैं। ऐसा सम्भव है कि इस मस्जिद का उपयोग बंद होने के बाद ही इस संत को यहाँ दफ्नाया गया हो"
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मस्जिद के बगल में एक पुरानी कब्र है, जिसे माई पूरी कहा जाता है। |
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इस मस्जिद का 1931 ई० में हेनरी कौसेन्स ने चित्र लिया था, जरा वर्तमान दरगाह से तुलना करके देखे |
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निश्चित रूप से यह पहले मस्जिद ही थी, जिसमे एक मेहराब भी था |
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वर्तमान में इसमे मज़ार बना दी गयी है, और मेहराब को टाइल्स की मदद से ढ़क दिया गया है |
अत: मेहराब और अन्य मुस्लिम पहचानों को उपयोग में लायी गयी हिन्दू सामग्री (स्तम्भो, छत) के साथ एकसंगति में दिखाने के लिए बनाया गया । मस्जिद को बड़े सावधानी एवं एकाग्रतापूर्वक तरह से निर्मित किया गया था। इस मस्जिद को देखकर ऐसा प्रतीत होता हैं कि मुस्लिम यहाँ पर केवल लूटमार मचाने के लिए नहीं आए थे बल्कि बसने आए थे।
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स्तम्भो को गौर से देखिये, इनमे से एक में छोटी सी हिन्दू आकृति भी बनी हुयी है सन्दर्भ - हेनरी कौसेन्स |
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मंगरोल बाबा की तरह, माई पूरी मस्जिद में अच्छी ख़ासी जगह घेरी हुयी है |
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माई पूरी मस्जिद के समीप मिले द्वार की चौखट के ऊपरी हिस्से को देखिये, यह किसी मंदिर के गर्भगृह का चौखट था। अर्थात यहाँ भी कोई हिन्दू मंदिर रहा होगा |
कलंदरी मस्जिद
इदरिस मस्जिद के समीप ही एक और मस्जिद हैं जिसे कलंदरी मस्जिद के नाम से जाना जाता हैं। यह मस्जिद भी ध्वस्त मंदिर की सामग्री पर बनी हुयी हैं। मस्जिद में मंदिर के खंभो का इस्तेमाल हुआ हैं। यह मस्जिद काफी छोटी हैं और केवल एक छोटी आबादी के लिए ही बनाई गयी होगी। इसका खुला क्षेत्र 10 मीटर चौड़ा और 4.5 मीटर लम्बा हैं। लेकिन इसके चारो ओर लगे स्तम्भो के सहारे दीवार बना दी गयी हैं जिससे यह आँगन के तरह चारो तरफ से घिर गया हैं।![]() |
मस्जिद के स्तम्भ अलग अलग प्रकार और आकार के है |
अंदर नमाज़ अदा करने का मुसल्ला(prayer hall) अभी भी सुरक्षित हैं। अंदर के सारे स्तम्भ अलग अलग बनावट और प्रकार के हैं और आपस में किसी भी प्रकार की समानता नहीं रखते हैं। ऐसा लगता हैं कि इस मस्जिद को जल्दीबाज़ी में बनाया गया होगा और खंभो की लम्बाई छोडकर बाकी एकरूपता पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया होगा।
चाँदनी मस्जिद
यह मस्जिद भी काफी पुरानी बनी हुयी हैं और मेहराब की बनावट को देखते हुये गुजरात सल्तनत के समय की लगती हैं। इस मस्जिद का असली नाम चाँद की मस्जिद था। मस्जिद को सम्पूर्ण रूप से पुनर्निर्मित किया गया हैं। केवल मेहराब ही पुरानी हैं
इस पर एक अभिलेख भी हैं जिसके अनुसार इस मस्जिद का निर्माण गुजरात सुल्तान कुतब अल-दीन अहमद शाह बिन मुहम्मद शाह के द्वारा 17 रज़्ब हिजरी 860 ( 21जून 1456 ईसवी) को करवाया गया था (अहमद शाह द्वितीय )। इस मस्जिद में लगने वाले खंभे निसन्देह प्लास्टर की मोती परत के पीछे छिप गए हैं लेकिन हमारे अनुमान के अनुसार इसका निर्माण भी स्थानीय मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू मंदिरों की सामग्री से ही करवाया गया होगा।
चाँदनी मस्जिद से मिले फारसी अभिलेख
1.अल्लाह कहते है, "वास्तव में, मस्जिदे केवल अल्लाह के लिए है, इसलिए अल्लाह के सिवाए किसी और ईश्वर को मत पूजों।" (कुरान अल-जिन्न 72:18)
पैगम्बर, रहमतुल्लाह व बरख्तुल्लाह ने कहा, "जो भी अल्लाह के लिए मस्जिद बनाएगा, वह अपने लिए जन्नत में महल पाएगा"। (सहीह अल-बुख़ारी 450)
2. इस मस्जिद का निर्माण महान एवं देदिव्यमान शासक, रहमतुल्लाह की मदद के पात्र, कुतुबुदुनिया वऐद्दीन अबुल मुजफ्फर अहमद शाह सुत महम्मद शाह सुत अहमद शाह सुत मुहम्मद शाह सुत मुजफ्फर शाह, अल्लाह उसके राज्य और शासन को निरंतर बनाए रखे, के शुभ शासन में, कमजोर और निरीह गुलाम, अल्लाह रहमतुल्लाह की कृपा के अभिलाषी, परोपकारी शम्स सुत सद्र सुत शम्स प्रथम सुत अल-कुरेशी अल-बल्खी, उर्फ मालिक बुध के द्वारा करवाया गया।
यह (अल्लाह का) गुलाम अपने प्रयासों से, अल्लाह की रहमत की कामना करता है। मुजाहिद (इस्लाम के लिए लड़ने वाला), सईद शम्स का पुत्र, इस उम्मीद से कि जो कोई भी इस मस्जिद में नमाज़ अदा करेगा और इन दो पापी मनुष्यों (निर्माता और प्रयास करने वाले) के लिए अच्छे और सुखद अन्त एवं मजबूत ईमान के लिए प्रार्थना करेगा तो वह इस लोक और परलोक दोनों ही स्थानो पर उन्हे ईनाम और पारितोषक दिलाने का कारण बनेगा। रजब के 17वे दिन शुहुर सन 860 हिजरी को इसकी शान बढ़ती रहे। इस अभिलेख को लिखने वाला अल्लाह का सबसे निरीह प्राणी और इस मस्जिद का ईमाम, फ़ज़्लुल्लाह सुत इब्राहीम सुत उमर है
1. God says : And verily, the mosques are for God only; hence, invoke not anyone else with God (आयत अल-जिन्न 72:18). The Prophet may God's blessings and salutations be upon him says: He who builds a mosque, God the Exalted, builds for him a palace in Paradise. (सहीह अल-बुख़ारी 450)
2. The construction of this mosque was effected during the auspicious reign of the great and magnificent King, who is confident of the help of the Merciful, Qutbu'd Dunya Wa'd Din Abu'l Muzaffar Ahmad Shah, son of Muhammad Shah, son of Ahmad Shah, son of Muhammad Shah, son of Muzaffar Shah, the king, may god perpetuate his kingdom and rule, by the weak and infirm slave, hopeful of the mercy of God the Merciful, the Beneficent, Shams, son of Sadr, son of Shams son of.................
3. al-Quraishi al-Balkhi, known as Malik Budh, through the endeavours of the slave, hopeful of the mercy of God, Mujahid, son of the said Shams, with the hope that whoever offers prayers in this mosque will recite (prayers) for the good end and steadfastedness of the Faith of these two sinful persons viz. the builder and the endeavourer, thus becoming the cause of their reward and recompense in both the worlds. On the 17th day of Rajab, may its dignity increase, of the Shuhur San 860 A.H. (21st June 1456 AD). Its writer is the weakest of the creature of God, Fadlu'llah, son of Ibrahim, son of Umar, the Imam of the said mosque.
मियाँ गुलाम मुहम्मद दरगाह एवं मस्जिद
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मियां गुलाम मस्जिद का भी पुनर्निर्माण अभी हाल में ही हुआ है |
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यह केवल एक मेहराब वाली छोटी सी मस्जिद है |
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पूरी की पूरी दीवार को टाइल्स से अच्छे से ढ़क दिया गया है, जिससे इसकी सत्यता ऊजागर न हो सके |
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द्वार की चौखट देखने से अहमदाबाद-चम्पानेर की मस्जिदे याद आ जाती है वहाँ भी चौखटो पर ऐसी ही कलाकृतिया उकेरी गयी है। इस मजार का निर्माण भी उसी दौर में हुआ होगा |
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मस्जिद की मूल संरचना में काफी कुछ नया भी जोड़ा गया है, जिससे इसका काया पलट हो चुका है। |
गाज़ी सुल्तान अहमद कादरी मस्जिद
इस मस्जिद का निर्माण सुल्तान अहमद शाह बिन मुहम्मद शाह के काल में हुआ था।
वेरावल दरवाजा, प्रभास पाटण
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बाई तरफ यह किलेनुमा संरचना जो वर्तमान में ढह चुकी है एक बैरक थी, और सोमनाथ आने वाले यात्रियों से यही पर कर वसूला जाता था। |
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वेरावल दरवाजे को हिन्दू काल में बनवाया गया था और समय समय पर इसकी मरम्मत कारवाई जाती रही |
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1931 ई० में हेनरी कौसेन्स द्वारा लिया गया वेरावल द्वार का चित्र, आप मुहम्मदन मेहराब को देख सकते है |
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वर्तमान में यह दरवाजा कुछ ऐसा लगता है |
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बाई ओर हाथियों के इस शिल्प को देखकर इसके हिन्दू संरचना होने के संकेत मिल जाते है |
मुस्लिम कब्रिस्तान, प्रभास पाटण
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ईदगाह जिस स्थान पर अवस्थित है वहाँ असंख्य खण्डहर छितरे पड़े है। हो सकता है कि यह ईमारत भी किसी हिन्दू धर्मस्थल के ऊपर बनी हो। बिना किसी पुरातात्विक प्रमाण के साफ साफ नहीं कहा जा सकता |
पनवाड़ी मस्जिद, प्रभास पाटण
Corpus Inscriptionum Bhavanagari 1889, pg 4-5
This inscription is cut in white marble slab, whose surface measures 82"x10". it is built up in one of the walls of the mosque which is in a garden called Panawadi near the celebrated temple of Somanatha at Patana. inscription in two lines Persian character mentioning erection of the mosque by Hamid Ahmad, who ruled in this province in the time of Emperor Muhammad Tughalaq (AH. 720, 1320 AD)
This Mosque was erected in the reign of Sultan Muhammad Shah Tughalaq Shah, the son of Sultan......
The Master of this plain was Malek Tajoo bin Ahmed, protection from him whose terror makes men as well as the Jinn tremble (with fear). The month of Zilead of the year 720 AH. May god be kind to him who reads this and invokes this blessing. Oh God! pardon him who is one of the sinners!
मीठा शाभांग की मस्जिद, प्रभास पाटण
Corpus Inscriptionum Bhavanagari 1889, pg 6-7
This is situated outside the town near the great gate
Stone is white sandstone with a surface measuring 19"x10"
five lines of a mixture of Persian and Arabic composition
the mosque was erected by the widow of a nobleman named Ismael bin Daud (AH 770, 1369-69 AD)
In the name of God, the Merciful and compassionate. God, the Most high, said, "Verily the places of worship are set apart unto God : wherefore invoke not any other therein together with God."
The Prophet (may the peace and blessing of God be on him) said: "God will build a palace for him in paradise who built a mosque.
This Mosque was built by (one named) Varu, daughter of abder Rehman, for God, the Most High, in the month of Rabi-ul Akhar, 770 AH.
This mosque was built by the widow of Amir Ismail, son of Amir Daud Shah.
हमारे प्रेक्षण मे सोमनाथ एवं इसके आसपास के क्षेत्र में काफी चौकाने वाले तथ्य निकल कर सामने आए है, मसलन उत्खनन से हमे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में पहले सूर्य देव को समर्पित काफी मंदिर थे। (यही नहीं बल्कि जूनागढ़ का यह इलाका ही प्राचीन सूर्य मंदिरों से भरा पड़ा है)। हो सकता है कि यह स्थान सूर्य पूजक संप्रदाय का गढ़ हो लेकिन शनै-शनै यह शैव समुदाय के बीच अत्याधिक लोकप्रिय हो गया। विशेषकर पाशुपति-लाकुलिश सम्प्रदाय के अनुयायियों में.
इसी काल में पुराणों की रचना हुयी, विशेषकर शिव और स्कन्द पुराण के काल में यह पूर्णरुपेण शैव धर्म का प्रसिद्ध गढ़ बन चुका था। इसी काल में सोमनाथ मंदिर की स्थापना हुयी और लगभग इसी समय विदेशी यात्री सोमनाथ के तट से होकर भी गुजरे, जिसकी प्रसिद्धि को उन्होने अपनी पुस्तकों में लिपिबद्ध कर लिया।
मुस्लिम हमलो के बाद इस स्थान में आमूलचूल परिवर्तन आए। इस्लामिक हमलो और विध्वंसों के कारण यह स्थान धीरे धीरे अपनी हिन्दू लोकप्रियता खोता चला गया। और एक हिन्दू तीर्थस्थान से बदलकर मुस्लिम सूफियों एवं हाजियों के बीच प्रसिद्धि पाने लगा। अरब एवं अन्य मुस्लिम देशो के धार्मिक यात्रियों का भारत भ्रमण का द्वार यही नगर था। अधिकतर हिन्दू मंदिरों एवं जैनालयों को तोड़ दिया गया या फिर मस्जिद/दरगाहों में रूपांतरित कर दिया गया। मध्यकाल के दौर में यह स्थान हजयात्रा के लिए प्रसिद्ध हो गया और हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए विशेष महत्व का नहीं रहा गया (कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर तो नहीं), वेरावल जो कि समीप स्थित एक प्रसिद्ध बंदरगाह है कि स्थिति तो प्रभास से भी ज्यादा गम्भीर है यह तो पूरा शहर ही मुस्लिम मस्जिदो और दरगाहो से भरा पडा है
18वी सदी के आरंभिक वर्षो तक यहाँ यही हाल बना रहा, बाद में मराठाओ और अंग्रेज़ो के सत्ता में आने से, शासको के सहयोग से हिन्दुओ ने इस तीर्थ स्थल का पुनरोत्थान करना आरंभ किया। सोमनाथ का हिन्दू तीर्थस्थल के रूप मे पुनर्विकास होने का कारण, जाने या अंजाने में सोमनाथ का गौरवमयी इतिहास पुराणों के रूप मे सहेजा होना है। सिन्ध, मुल्तान और तक्षशिला की तरह हिन्दुओ ने सोमनाथ को अपनी यादों से विस्मृत नहीं किया, क्योंकि एक तीर्थ के रूप मे इसका स्थान पुराणों में लिपिबद्ध हो चुका था। यदि सोमनाथ को पुराणों मे वर्णित नहीं किया गया होता तो शायद हिन्दू इस स्थान को भी अपनी स्मृति से निकाल चुका होता।
धर्मस्थलों के इतने बड़े स्तर पर हुये विध्वंस को हिन्दू ने कहीं भी लिपिबद्ध नहीं किया जिसके कारण आज भी इतिहासकारों को मुस्लिम इतिहास पर ही आधारित होना पड़ता है। इसका दुष्परिणाम ही है कि आम हिन्दू 11वी सदी से लेकर 17वी सदी के इस विध्वंस को भूल चुका है।
सोमनाथ : अनजाने और अनछुए पहलु भाग - 1 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये
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