Historic Cities Series # 3

प्रभास पाटण, देव पत्तन, प्रभास पत्तन, पत्तन, सोमनाथ पत्तन भाग - 1 [भाग - 2 के लिए क्लिक करे]
Pabhas Patan, Dev Pattan, Prabhas Pattan, Somnath Pattan Part - 1 [click here for part - 2]
 

प्रभास पाटण नगर का मानचित्र (ऐतिहासिक)


सोमनाथ : अनजाने और अनछुए पहलु (Somnath: Untouched & Uncharted)


आधुनिक सोमनाथ मन्दिर (निर्माण वर्ष 1951)

सोमनाथ, इस नाम से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का हर एक व्यक्ति परिचित है, यहाँ तक की भारत के इतिहास की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वाले विदेशी भी सोमनाथ मंदिर के बारे में जानते है। क्योंकि इतिहास में इतनी तरजीह शायद ही किसी और मंदिर को मिली होगी जितनी सोमनाथ मन्दिर को मिली है। मन्दिर, भारत के सुदूर-पश्चिम में स्थित गुजरात प्रांत के कठियावाड़ क्षेत्र के प्रभास पाटण नगर में समुद्र तट पर अवस्थित है। हिन्दुओ के लिए सोमनाथ पवित्रतम, प्राचीनतम और सर्वोत्तम तीर्थस्थल है। बहुत से प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथों में एक मत से सोमनाथ को सबसे प्राचीन और सबसे श्रेष्ठ शिव ज्योतिर्लिंगों में एक माना गया है। 
 
वर्तमान सोमनाथ मंदिर के दर्शन, सौजन्य : यूट्यूब

जाहिर है इतनी प्राचीन मान्यता प्राप्त मन्दिर विशालतम और भव्यतम भी होना चाहिए और मन्दिर का प्राचीन एवं वर्तमान वैभव इस बात को वास्तविकता में सत्य सिद्ध करता है, आज भी यह मन्दिर करोड़ों हिन्दुओ की आस्था का केंद्र है; प्रत्येक वर्ष लाखों श्रद्धालु इस मन्दिर के दर्शन करने आते है। दानदाता स्वर्ण, धन, रत्न-माणिक, पुष्प, मेवा, मिष्ठान्न हर एक तरह से जिससे भी भगवान शिव प्रसन्न हो, उन्हे चढ़ावा अर्पित करके सम्मान प्रकट करते है। वर्तमान मन्दिर के वैभव को जानने के लिए यह उत्तम ब्लॉग है।
 
सोमनाथ मंदिर और परिसर के दर्शन आप यहाँ कर सकते है 
उपरोक्त विडियो में सौरभ त्रिवेदी जी एवं उनकी टीम ने नजदीक से सोमनाथ परिसर के दर्शन करवाए एवं इसका पौराणिक इतिहास भी बताया हैं, सौजन्य से : द लल्लनटॉप डॉट कॉम



प्रभास पाटण नगर में सोमनाथ मंदिर की अवस्थिति

हिन्दुओ के साथ-साथ मुसलमानों में भी सोमनाथ मन्दिर उतना ही प्रसिद्ध है, परन्तु कारण बिल्कुल विपरीत है। सोमनाथ मन्दिर इस्लाम की बुलन्दी और अल्लाह की अन्य धर्मो या ईश्वरों पर श्रेष्ठता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऐतिहासिक रूप से इस्लाम का उदय मूर्तिपूजा (बुतपरस्ती, अल-वथानिया) एवं बहुदेववाद (शिर्क) के प्रतिकार स्वरूप हुआ था। इस्लाम मूर्तिपूजा का कट्टर विरोधी है और अरब देश में आरंभिक इस्लामिक प्रवर्तकों ने इस्लाम का आगाज मूर्तियों को ध्वस्त करके ही किया था। इसलिए मूर्तियों की ईश के रूप में वन्दना इस्लाम धर्म में जघन्य अपराध है, और प्रतिमाभंजन एक देवतुल्य कार्य माना जाता है। 
 
मुहम्मद के जन्म पर बुतखानो की मुर्तिया उल्टी गिर पडी और समुद्र का जल सूख गया (हमज़ानामा,1561, मुगल दरबार आगरा)

 
सुल्तान महमूद गज़नवी रहमतुल्लाह आलैह (अल्लाह की रहमत बनी रहे) का एक वकया एक मुस्लिम की ज़ुबानी


दुर्भाग्य से सोमनाथ मन्दिर का सर्वप्रथम चित्रण एक विवाद की वजह से सामने आया जिसे "सोमनाथ गेट प्रकरण" भी कहते है, इसकी वजह से पश्चिमी मीडिया का ध्यान इस टूटे-फूटे खण्डहर पर गया

सोमनाथ चूँकि अरब सागर के तट पर स्थित है इसलिए यह मन्दिर 7-9वी सदी के अरबी-फ़ारसी व्यापारियों के बीच भी बहुत ज़्यादा प्रसिद्ध था, मन्दिर की भव्यता और विशालता के किस्से पूरे इस्लामिक जगत में फैले हुये थे, जिसका बेहतरीन वर्णन हमे आरंभिक मुस्लिम यात्रियों के पुस्तकों में भी मिल जाता है, फ़ारसी दुनिया में सोमनाथ, सुदूर पूर्व के मूर्तिपूजकों (बुतपरस्तों) के अजीब एवं भयानक रीति रिवाजो, रहस्यो और कुफ़्र के गढ़ के तौर पर देखा जाता रहा है। यह बात तो साफ है कि उस दौरान सोमनाथ का भव्य मन्दिर और मूर्तिपूजा की स्थिति इस्लाम के मूल सिद्धान्त (तौहीद) पर गहरा आघात थी और अल्लाह की वैश्विक सार्वभौमिकता पर काला धब्बा थी । इसलिए हम आगे पढेंगे कि कैसे यह इमारत सच्चे मुहम्मदन की आँखों में खटकती होगी और वे अल्लाह से इसे नष्ट करने की इबादत करते रहे होंगे। वेरावल का अरबी अभिलेख


"सोमनाथ गेट प्रकरण" के दौरान इस मन्दिर के अन्दर के दर्शन लन्दन न्यूज़ के 1843 ईसवी  के अंक ने करवाए, इस खण्डहर के अन्दर मृत जानवरों के शव और चमगादड़ों एवं मकड़ियो के जाले थे।

इस विषय पर हम यहाँ बता दे कि कई इस्लामिक तुष्टीकरणवादी (मार्क्सवादी इतिहासकार जो अल्लाह को गॉड और मुस्लिम को तुर्क लिखना ज्यादा पसंद करते है) और मुस्लिम विचारक इस बात की दलील देते है कि सोमनाथ के विध्वंस का हिन्दू समाज पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा और मध्य युग में भारत वर्ष के हिन्दू-मुस्लिम एक दूसरे से मिलजुल कर रहते आये है। (इस संदर्भ में राम पुनियानी जी का यह लेख जरूर पढ़ना चाहिए)
 
राम पुनियानी जी को कोई यह बताए कि काबुलशाही और टीपू सुल्तान में 700 वर्षो का अंतर है, जिन हिंदु सेनापतियो के नाम इन्होने लिये है, अभी शोध का मुद्दा हैं बहरहाल किसी का हिंदु नाम होने से यह सबित नही होता कि वह हिंदु धर्म से सम्बंधित हो समकालीन ऐतिहासिक पुस्तके इस जगह विभिन्न जनजतियो के होने का आभास देती है

1847 ईसवी में मिस कार्नर की पुस्तक द हिस्टरी ऑफ चाइना एंड इण्डिया में रॉबिनसन द्वारा चित्रित सोमनाथ मन्दिर का दृश्य प्रकाशित हुआ

मार्क्सवादी विचारकों अनुसार हाल के वर्षो में हिन्दू राष्ट्रवादियों ने सांप्रदायिक तनाव और राजनैतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से महमूद की कहानी को पुनर्जीवित करके जनसाधारण में मध्यकालीन इस्लामिक राज्यों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जगाने का प्रयास किया है।

निश्चित तौर पर, यह कथन अपने आप में दोषपूर्ण है। आगे हम पढेंगे कि किस तरह से पूरी दुनिया के इस्लामिक सूफी संतो, कवियों, लेखकों, इतिहासकारो और विद्वानों ने पिछले 800 वर्षो के इतिहास में महमूद की कहानी को न केवल दोहराया है बल्कि भविष्य में भी इस घटना की पुनरावृत्ति के लिए अल्लाह से बार-बार प्रार्थना की है।

एक ब्रिटिश कप्तान  द्वारा  वर्ष 1850 में सोमनाथ मस्जिद का बनाया गया चित्र, इसमे औरंगजेब द्वरा 150 वर्ष पूर्व प्राचीन मंदिर के ऊपर बनाई गुम्बद और मीनार दिख रही  है

इन लेखो, शायरियों और तारीखों में से ज़्यादातर भारतीय उपमहाद्वीप में ही लिखी गयी है, सोचिए इन्हे लिखने-पढ़ने वाले मुस्लिम अपने हमवतन हिन्दुओ और उनकी इबादतगाहों के बारे में क्या सोचते होंगे, इस बात के प्रमाण कुछ सूफियों की गजलों और शायरियों में भी मिल जाते जाती है।



जैसे अमीर खुसरो (13वी सदी), अपनी अनेक मसनवियों में सबसे अच्छा और सबसे बुरा की उपमा में क्रमश: काबा और सोमनाथ का प्रयोग करता है, ठ्ठारहवी सदी के लेखक मीर तकी मीर ने भी अपने शेरों में मार्क्सवादी इतिहासकारो के दावों के उलट हिन्दू और मुस्लिम समाजों के बीच गहरी खाई की ओर इशारा किया है। मैंने काफी संदर्भों को स्वयं जाँचा है और किसी में भी महमूद गजनी के कुकृत्य को गलत नहीं कहा गया है बल्कि इसके उलट मुस्लिम लेखकों और सूफियों ने महमूद की भूरि-भूरि प्रशंसा ही की है एवं अल्लाह से उस पर कृपादृष्टि बनाए रखने की प्रार्थना की है।

इन लेखो, कविताओं के माध्यम से हमारे मास्तिष्क में मध्यकालीन मुस्लिम समाज की एक अलग छवि बनती है जो आजकल के इतिहासकारो के द्वारा दिखाये जा रहे सब्ज़बाग से बिलकुल उलट है। हाँ, यह सच है कि पूरे मध्यकालीन इतिहास में जब तक कि मुस्लिम सत्ता में रहे, हिंदुओं ने संगठित रूप से इस्लामिक अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए बहुत ठोस कदम नहीं उठाए और यदि ऐसा किया भी है, तो उसे लिपिबद्ध नहीं किया गया है। वर्तमान में राईटविंग राजनैतिक पार्टियाँ इतिहास के इस पहलू को जनता के सामने नए सिरे से दिखाना चाहती है, जाहिर है इसमे शांतिपूर्ण इस्लाम के भी सच्चे रूप के दर्शन होंगे, बस इसलिए मुस्लिम तुष्टीकर्ता चिन्तित है। यहाँ हमे रोमिला थापर जी के इस लेख को पढ़ने की अवश्यकता है, जिसमें तथ्यो को अपनी सुविधानुसार तोड मरोड के पेश किया हैं, लेख को केवल एक हिन्दू दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का असफल प्रयास किया गया हैं, मुस्लिम जनता के राय के बारे में मौन है। इस लेख पर विस्तृत चर्चा हम अलग आलेख में करेंगे.
 
रोमिला थापर जी और तीस्ता सीतलवाड़ जी के बीच सोमनाथ को लेकर दिलचस्प वार्तालाप

1861 ई० में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण स्थापित होने के उपरान्त सोमनाथ मन्दिर की विधिवत फोटोग्राफी की गयी



ऊपर दर्शाये गए 1869 ई० के मन्दिर का आधुनिक दृश्य

ध्यान देने की बात है कि जब हम इस्लामिक समाज की बात करते है तो हमे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिमों को समग्र रूप से देखना चाहिए, भारत, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के मुस्लिम अलग-अलग नहीं है बल्कि एक ही संस्कृति से जुड़े हुये है और एक ही इतिहास सांझा करते है। इसलिए पाकिस्तानी या बंगलादेशी मुस्लिमों के विचार भी भारतीय विचार ही है। अब यदि 20-21वी सदी के इस्लामिक लेखकों, कवियों के सोमनाथ और महमूद पर विचार सुने जाये तो वे अपने पूर्ववर्तियों से कुछ खास अलग नहीं है। इस्लामिक समाज में महमूद को आज भी उच्च स्थान पर रखा जाता है और सोमनाथ को निम्न स्थान पर, ऐसा क्यों है इन (मुस्लिमों) की सोच अपने हमवतन हिन्दुओ से इतनी पृथक क्यों है? उन्नीसहवी सदी में सोमनाथ जैसे मंदिरों को ध्वस्त करने पर गौरवान्वित करने वाली कविता लिखने वाले मुस्लिम लेखकों और उन्हे चाव से पढ़ने वाले मुस्लिम पाठको को उकसाने लिए क्या उस समय भी हिंदुवादी संगठन मौजूद थे? इन प्रश्नों के उत्तर पाठको को स्वयं खोजने चाहिए। (पाकिस्तान की मिसाइलो के नाम गजनवी और गोरी क्यो हैं?) इन सब के बीच यदि प्रतिशोध की भावना है भी तो वह हिन्दुओ में दिखनी चाहिए क्योंकि हमला उनके ऊपर हुआ, उनके मंदिरो को ध्वस्त किया गया उनके शहर जलाए गए और लोगो की हत्याये की गयी, परंतु हिंदु इन सब से बेखबर अपनी-अपनी संकुचित दुनिया में इतना रमा हुआ है कि इतिहास से सीखना तो दूर पढना भी नही चाह्ता क्योकि इससे कोई वितीय लाभ नही है, परंतु दूसरी ओर हम बिलकुल विपरीत देखते हैं। मुस्लिम वीडियो मे बार-बार मंदिर के प्रति घृणा और गुस्से की भावना देखते है, परंतु क्यों? इसका स्त्रोत क्या हैं? पाठको को समझना चाहिये कि कही इसकी उपज़ धार्मिक पृष्ठ्भूमि मे तो नहीं?


अरबी तारीखों में भी सोमनाथ का विध्वंस इस्लाम की विजय के तौर पर, बड़े चाव से सुना जाता है, क्या यह हिन्दुओ के धर्म के प्रति कटुता को बढ़ावा नहीं देता? इस बात पर जरा गौर करियेगा
 

इन अरबी विडियो को पूरे मध्य पूर्व से लेकर लीबिया-मोरक्को के तट तक अरबी जानने वाले सभी लोग देख और समझ सकेंगे, सोचिए इन विडियो के जरिये एक हज़ार वर्ष पूर्व तोड़े गए सोमनाथ की गूँज आज भी अटलांटिक के पूर्वी तटों तक सुनी जा सकती है।


इन सब के अलावा, मार्क्सवादी इतिहासकारों का एक वैश्विक गठबंधन भी सोमनाथ के विध्वंस की कहानी को वास्तविकता से इतर एक अलग ही रंग देने में लगा हुआ है। ऐसे लोग तर्क एवं साक्ष्य की चिड़ियों का शिकार करने की बजाए कल्पना एवं अनुमान के कबूतर उड़ाने पर ज्यादा यकीन रखते है, इस कड़ी में निम्नलिखित टिप्पणी उद्घृत करना आवश्यक हो जाता है। (इन इतिहासकारों में से कुछ पर हम किसी अन्य लेख में विस्तार से चर्चा करेंगे।)

जैसे रिचर्ड डेविस अपने निबन्ध खंडित प्रतिमाओं की स्मृतियाँ (“Memories of broken Idols“ - Richard Davis)


में बड़ी चतुराई से मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा छोड़े गए दस्तावेजों पर अपने विचार, किसी अन्य लेखक के माध्यम से सामने रखते है:

अज़ीज़ अहमद हमे चेताते है, कि इस्लामिक विजयों की गाथाये पूर्वव्यापक और अतिशयोक्तिपूर्ण साहित्यिक कृतियां है जिन्हे पारदर्शी तथ्यात्मक वर्णन नहीं माना जा सकता। वे दर्शाते है कि, इन गाथाओं का अभिप्राय इतिहास लेखन से ज्यादा ऐतिहासिक माहौल को दिखाने की तरफ है। इसलिए यहाँ हमें इन पर बहुत सावधानी से विश्वास करना चाहिए। ये विजयगाथाए सार्वभौमिक "इस्लामिक" सोच का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, जैसा की अधिकतर मामलों में माना जाता है। बल्कि, अधिकांश स्थानों में वे केवल कुलीन दरबारियों के विचार प्रस्तुत करती है, जो ज्यादातर मामलों में, इतिहास लेखन का कार्य केवल अपने कारनामे अपनी कुलीन जनता को दिखाने के लिए करवाते थे, और समाज में बहुधार्मिक बहुलता की बहस के बीच रूढ़िवादी विचारधाराओ का बचाव करना चाहते थे। अजीज अहमद ने सावधान करते हुये कहा है कि, "इतिहासकारों को विजय गाथाओं में मंदिर विध्वंस के दावे का मूल्यांकन करने में बहुत सतर्क एवं परिवृत्त होना चाहिए, क्योंकि इन वर्णनों में अक्सर सटीकता के बजाय बयानबाजी और साहित्यिक प्रभाव ज्यादा होता है।

संदर्भ : Aziz Ahmad, “Epic and Counter-Epic in Medieval India,” Journal of the American Oriental Society 83/4 (1963): 4706

(अज़ीज़ अहमद के इस आर्टिकल और अन्य लेखो पर हम समग्र रूप से अन्य आलेख में टिप्पणी करेंगे और दिखाएंगे कि असल मायने मे सामने दिये गए तथ्यों एवं वास्तविकता को झुठलाते हुये ये मुस्लिम शरण्यु (अपोलोजेटिक ) होते है, और इस्लामिक राज्यो का गौरवीकरण कैसे करते है, इस प्रकार के लेखक बेहद धुर्त होते है, वे अक्सर मुस्लिम इतिहास मे ही दक्ष होते है, और सारी सकारात्मक उपलब्धियो को इस्लाम से जोडते है और नकारात्मक कार्यो को गैर इस्लामिक करार देते है, इन जैसे लेखको का बस चले तो आईएसआईएस (ISIS) और अल-क़ायदा को इस सदी के क्रान्तिकारी घोषित करने मे कोई कसर ना छोड़े, आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भविष्य में (50-100 वर्षो बाद) आईसिस और अलकायदा का महिमामंडन ऐसे लोग अवश्य करेंगे।)

मन्दिर के इस मण्डप को ही दुबारा गुम्बद बनाकर एक मस्जिद में रूपांतरित कर लिया गया था, इस में मेहराब भी नज़र आ रही हैं।

औद्रे त्रश्के (Audrey Trushke) भी इसी श्रेणी में एक और नाम है इनके विचार आप यहाँ पढ़ सकते है।


हिन्दू स्तम्भो पर बनी महराबों को देखिये, इस स्थान को एक मुस्लिम संरचना में बदलने का असफल प्रयास भी किया गया हैं

 लेख का विस्तृत विश्लेषण हम अपने किसी और आलेख में करेंगे, परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक की रिपोर्ट  इतिहास को शौक़िया तौर पर पढ़ने वाले लोगो को ध्यान में रखकर बनाई गयी है। इसमे कुछ खास तथ्यों को या तो नज़र अंदाज़ कर दिया गया है या फिर उन्हे अपने विवरण में सम्मिलित ही नहीं किया है। इस प्रकार ऐतिहासिक घटना को आधा अधूरा ही चित्रित किया गया है और पाठकों के सामने बिलकुल अलग तरह का इतिहास प्रस्तुत किया गया है, इतिहास का चित्रण इतना विकृत है कि यदि 11-15वी सदी के मुस्लिम लेखक वर्तमान काल में जीवित होते तो अपने ही लेखन को इतना तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाले इन आधुनिक इतिहासकारों की विद्त्ता पर सिर पीट लेते। पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि मुस्लिम इतिहासकारों की पुस्तकों में वर्णन मुख्यत: केन्द्रीय शासक के जीवन में हुयी प्रमुख घटनाओं के इर्दगिर्द घूमते है, जैसे की उसके व्यक्तिगत जीवन की घटनाए, जन्म, मृत्यु, युद्ध, विद्रोह, निर्माण, कानून, प्रशासन, राजकीय यात्राये इत्यादि। अन्य प्रांतीय या नगरीय स्तर पर क्या घटित होता था उसकी ज्यादा जानकारी इन पुस्तकों में उपलब्ध नहीं है। यदि सम्पूर्ण जानकारी चाहिए तो हमे जमीनी या भौतिक स्तर पर परखना होगा, जिसमे हमारे वर्तमान इतिहासकार बिल्कुल भी दिलचस्प नहीं दिखते। (जैसे हमे ऐसे भी कई ध्वस्त मंदिर एवं पुराने मंदिरों के खंडहरों पर मस्जिदे दिखती हैं जिसका मुस्लिम पुस्तकों में कोई उल्लेख नहीं है।) इन्होने पुस्तकों में दी उन घटनाओ को जिन्हे वे (लेखक) पसंद करते है सामान्य एवं व्यापक घोषित कर दिया और उन्ही पुस्तकों की अन्य घटनाए जो उनके दृष्टिकोण के विरुद्ध हो सकती थी उन्हे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया। इस प्रकार हम देखते है कि आधुनिक काल में, भारत के परिपेक्ष्य में इतिहास लेखन वाकपटुता और शब्दों के भ्रमजाल का खेल है, जिसे लेकर वे (मार्क्सवादी) अपने पूर्ववर्तियों (ब्रिटिश इतिहासकारो) की निंदा करते रहते है। 11 से 16वी शताब्दियों के दौरान लिखे गए इतिहास केवल शाही पुस्तकालयो की शोभा नहीं बढ़ाते थे, अपितु ऐसी ऐतिहासिक पुस्तके सामान्य और क्षेत्रीय पुस्तकालयों, मदरसों, मस्जिदों में भी पढ़ी और लिखी जाती थी। इनकी कहानियाँ किसी वीरगाथा और इस्लामिक विजय की तरह होती थी और अक्सर मुस्लिम हृदयों को विजयी भावनाओं और प्रफुल्लता से भर देती थी। लोग इन पुस्तकों का अध्ययन अक्सर इस्लामिक ताकतों द्वारा दुनिया में ईमान के उजाले के प्रसार को जानने के संदर्भ में करते होंगे, और फिर कविताओ या प्रेरक प्रसंगो के रूप में आम जनता के बीच फैलाकर इन घटनाओ को दुबारा दोहराने की कामना या इच्छाशक्ति भी जाहिर करते होंगे, (10-15वी सदी के दौरान अरब दुनिया में ऐसे भी कई मुस्लिम लेखक हुये हैं जिन्होंने स्वतंत्र रूप से मुस्लिम इतिहास लिखा था।) ठीक वैसे ही जैसे आज भी लोग कुरान और हदीस पढ़कर मुहम्मद के कर्मो को दोहराने का प्रण करते है। इस बात का प्रमाण स्वयं मुस्लिम जनसंख्या है जो भारतीय उपमहाद्वीप या अन्य किसी स्थान पर भी महमूद, सालार मसूद अथवा गोरी जैसे हत्यारों एवं लुटेरों की भर्त्सना नहीं करते बल्कि उन्हे किसी गाजी या वली की तरह उचित सम्मान देकर पूजते है, कविताए बनाते है, लोककथाये बनाते है। सोमनाथ पर हमला करते समय, अला-उद्दीन के भाई अलफ खान और सेनापति नुसरत खान और उनके सैनिकों के दिलों-दिमाग के महमूद के सोमनाथ विध्वंस की कहानी अवश्य जीवित रही होगी, इस बात के प्रमाण उसके कृत्यो मे मिल जाते है(खजाएनुल-फ़ुतूह)

गजनवी के बारे अफगानियों के मुँह से सुनिए

अफगानिस्तान का वह मकबरा जहाँ सुल्तान महमूद दफन है


1895 ई० में दुबारा सर्वे के दौरान ली गयी फोटोग्राफ्स सोमनाथ मस्जिद मे कुछ खास बदलाव नहीं दिखते

आशा है कि ये उदाहरण लेखक महोदय की भ्रांति को साफ कर देगा कि मध्य युग के मुस्लिम इतिहासकार केवल साहित्यिक प्रभाव बनाने के लिए अलंकारपूर्ण कृतियाँ नहीं छोड़ गए है। दरअसल, मंदिरों के विध्वंस का मुस्लिम जनमानस पर असर एक लेखक की सोच से भी कहीं ज्यादा व्यापक था, बमुश्किल उसका छोटा सा हिस्सा ही इस्लामिक ऐतिहासिक पुस्तकों में स्थान पा पाया। मार्क्सवादी और मुस्लिम इतिहासकार, पत्रिकाये, न्यूज़ पेपर, वेब साइट्स अक्सर एक दूसरे का संदर्भ देकर अपने तर्को को हृष्टपुष्ट करते रहते है कृपया टाइम्स ऑफ इंडिया का यह आर्टिकल अवश्य पढे


ऐसे में जब सोमनाथ और महमूद के विषय पर मुस्लिम समाज और हिन्दुओ के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि यह अन्तर कब से है, और क्यों है?

आखिर किसकी सोच आधुनिक मूल्यो के अनुसार सही है। क्योंकि दोनों में से एक ही मत ठीक हो सकता है, या तो मूर्तिभंजक का महिमामंडन करने वाला या फिर पीड़ित मूर्तिपूजकों के साथ सहानुभूति रखने वालों का।  

 एक दीनी आलिम (धर्मिक विद्वान) का प्रेरणास्पद सन्देश

यह संदेश इस शांति के पुजारी ने  सोमनाथ के उस तट से दिया है जहाँ सोमनाथ मंदिर पर हमला करने वाले गज़नवी सैनिको की कब्रे है, जाहिर है वे कब्रे भी इसके लिये एक उत्प्रेरक का काम कर रही होगी


1900 ई० में लॉर्ड कर्ज़न के व्यक्तिगत संकलन के लिए जूनागढ़ के नवाब द्वारा जो फोटोग्राफ्स भिजवाई गयी थी उनमे सोमनाथ भी शामिल था। इस फोटो में आप देख सकते है की सोमनाथ मस्जिद में बनाई गयी  मीनारे ढह चुकी है

इतिहास की तारीख गवाह है कि किसी क्षेत्र विशेष की पीड़ित जनसंख्या, इस्लाम स्वीकार करने के बाद, उन्ही इस्लामिक आक्रांताओ को अपना राष्ट्रीय नायक एवं आदर्श मान लेती है जिन्होने उन पर भयंकर आत्याचार किए और जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन करवाए, वर्तमान पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के निवासी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिस लाहौर पर महमूद गजनवी ने हमला करके लाखों लोगो का खून बहाया (1009-15 ईसवी) और यातनाए दी आज उसी लाहौर के निवासी अपने संग्रहालयों में उसी महमूद की प्रतिमा लगाकर बड़े गर्व की अनुभूति करते है।

विडम्बना ही है कि महमूद गजनवी की यह गौरवपूर्ण प्रतिमा लाहौर संग्रहालय में प्रदर्शित है, जहाँ उसने खून की नदियाँ बहाई थी।  

 
कराची संग्रहालय में शान से खड़े मुहम्मद बिन कासिम की प्रतिमा सिंधवासियों की अपने ऊपर हमला करने वालों के प्रति सोच को दर्शाती है, कासिम उनका मसीहा है।

जिस कराची (सिंध) प्रांत पर हमला करके मुहम्मद बिन कासिम ने धार्मिक स्थानो को ध्वस्त किया, लोगो को ज़बरन धर्म परिवर्तन करवाया, गुलाम बनाकर मंडियों में बेचा । आज वही व्यक्ति पूरे सिंध एवं पाकिस्तान में सम्माननीय है। एक नए मसीहा मुहम्मद बिन कासिम को ढूंढते पाकिस्तानी

पूर्ण रूप से धर्मान्तरित होने के पश्चात मिस्त्र के निवासियो का नायक एक सुन्नी कुर्द सलाहुद्दीन अय्यूबी हैं, सौजन्य : कहिरा संग्रहालय, वीकिपीडिया

भारत में महमूद की एक नायक या क्रूर धर्मान्ध लुटेरे के तौर पहचान होना बस एक छोटे से कारण पर निर्भर है और वह है, भारत के बहुसंख्यक निवासियों का आज भी हिन्दू बने होना, कालान्तर में यदि अधिकांश भारतीय मुस्लिम बन जाते (जैसा कि पाकिस्तान में है), तो हो सकता था कि वे उसी सोमनाथ मंदिर के स्थान पर महमूद गजनवी का एक भव्य रौजा/मक़बरा/मस्जिद बनवाते और महमूद को इतिहास में गुमराह हिंदुस्तानियों को सच्चे धर्म का रास्ता दिखाने वाले सन्त के रूप में पूजते। आखिर ऐसा क्यों होता है, यह बहुत गहरी बात है भारतीयो को इस पर विचार-मंथन करना चाहिए। (देबाल (सिंध) में मुस्लिम विजय के पश्चात मंदिर ध्वस्त करके भव्य मस्जिद का निर्माण करवाया गया था।)


हेनरी कौसेंस की फोटोग्राफ्स में सोमनाथ मन्दिर का दृश्य साफ साफ दिख रहा है

ध्यान दीजिये कि अजमेर के सूफी सन्त, महमूद के साथ ही चिश्त से अजमेर मे पधारे थे (यह भी हो सकता है कि वे ही महमूद की सेना के गाजी हो, जिनका जिक्र तारीख़ी किताबों में है। परन्तु ये सिर्फ आधारहीन कयास है, ठोस सबूतों की अनुपस्थिति में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता।) 

मुस्लिम पुस्तकों मे वर्ष 1025-26 में गजनी के महमूद द्वारा सोमनाथ मन्दिर के विध्वंस को सच्चे इस्लाम की "झूठी-मूर्तिपूजा" पर जीत की तरह दर्शाया गया, इस विध्वंस की गूँज इतनी तेज हुयी थी कि आवाज पूरे इस्लामिक जगत (उम्माह) में सुनी गयी और अनगिनत लेखकों, सूफ़ी दार्शनिको, मुस्लिम विद्वानों एवं कवियों की काल्पनिक रचनाओं का प्रेरणास्त्रोत बनी। यहाँ तक कि बगदाद के खलीफ़ा अल-कादिर बिल्लाह, जिनके पहले इस मन्दिर को ढहाने के अधिकतर प्रयास विफल रहे थे, ने इस्लाम की विजय पर गजनवी अमीर को सुल्तान का आधिकारिक दर्जा दे दिया [सुल्तान यमीन-उद-दौला – (इस्लामिक) साम्राज्य का सीधा हाथ (ताकत) एवं यमीन-उल-मिल्लत - (दीन (मजहब) का सीधा हाथ (ताक़त)]


इस विध्वंस से मुस्लिमों एवं गैर-मुस्लिमों दोनों ही समुदाय के लोगों का विश्वास दीन (इस्लाम) पर और मजबूत हुआ, और न जाने कितने अनगिनत इस्लामिक लश्कर एवं काफ़िले, इससे प्रेरणा लेकर भारत के दूसरे मंदिरों को नष्ट करने और कुफ़्र के सफाये के लिए तैयार होने लगे, जिसका परिणाम भारत के हिन्दुओ ने आगामी 4-5 शताब्दियों तक इस्लामिक हमलों के रूप में झेला।

(हमारी पुस्तकों में महमूद गजनवी के केवल 16-17 हमलो का जिक्र मिलता है परंतु सच तो यह है कि महमूद के बाद इस्लामिक हमलों की झड़ी लग गयी, हालाँकि उन्हे कोई विशेष सफलता नहीं मिली। क्रूसेड़ के अनुरूप जैसे क्रिश्चियन नाइट पवित्र यरूशलम के लिए बिना कोई वेतन लिए ही पोप के बैनर तले पूरे यूरोप से मध्य पूर्व पहुँच रहे थे, ठीक वैसे ही यहाँ भारत में जिहाद लड़ने के लिए गाज़ी बिना किसी वेतन के ही सुल्तान के बैनर तले हिंदुस्तान आ रहे थे।) 


आज भी उनकी इस्लामिक पुस्तकों में सोमनाथ का विध्वंस और अल्लाह की श्रेष्ठता का महिमामंडन दर्ज है, जिसे इस्लामिक समाज़ बड़े गौरव के साथ पढ़ता और चर्चा करता, और दुहराने की प्रतिबंधता जाहिर करता है। समझ में नहीं आता वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकार इन्हे चर्चाओ में शामिल क्यों नहीं करते है। यह ध्यान रखना चाहिए की सोमनाथ पर हमले की योजना सर्वप्रथम दमिश्क के खलीफ़ा और गजनी के सुल्तान के बीच बनी थी।(सुल्तान महमूद द्वारा खलीफा को लिखा पत्र)

गजनवी फारसी बोलने वाले अफगानिस्तान से आया था, लेकिन सुदूर अरब में भी यह गाथा बड़े गर्व से सुनी और सुनाई जाती है।


आश्चर्य नहीं है कि आज भी मुस्लिम आलिम और दानिशमन्द, सोमनाथ मंदिर पर इस्लाम की जीत को झूठे ईश्वर पर सच्चे इस्लाम की विजय के रूप में दिखाता है और स्वधर्मियों को एक बार फिर इस्लाम की फतह के लिए जागरूक करता है।

मुस्लिम धर्मगुरु मुफ्ती अजैर (फरवरी 2021) द्वारा सोमनाथ मन्दिर कों तोड़ने का महिमामंडन

इस विषय पर मुस्लिम कवियों का लेखन आज भी बदस्तूर जारी है, सोमनाथ पर लिखने वालों में आधुनिक युग में अल्लामा इकबाल लाहौरी एवं शिराज़ी प्रमुख नाम है। इकबाल ने तो अफ़गानी अमीरों के कसीदों में उन्हे ललकारते हुये एक बार फिर सोमनाथ विजय की यादे ताजा करा दी।[शायरी 1][शायरी 2]

जरा ध्यान दीजिये इस समय तक गुम्बद भी ढह चुकी थी और केवल एक मीनार ही दिख रही है

बुतशिकन हमेशा से मुस्लिम उपन्यासकारों विशेषकर उर्दू के उपन्यासकारों के बीच एक प्रिय विषय रहा है और इस पर अनगिनत काल्पनिक उपन्यास, शायरी आधुनिक युग में भी लिखे जाते है, जाहिर है इतने उपन्यास लिखने का कारण इनकी बाज़ार में अच्छी ख़ासी लोकप्रियता का होना भी है। सोमनाथ पर पुस्तक 

 کافري را پخته تر سازد شکست سومنات

گرمي بتخانه بي هنگامه ي محمود ني

مسجد و ميخانه و دير و کليسا و کنشت

صد فسون از بهر دل بستند و دل خوشنود ني

 यहाँ तक की बीसवी सदी में मुस्लिम सोमनाथ पर कविता लिखने से बाज नहीं आए है, जैसे कि

एहसान दानिश (1914-1982, पाकिस्तान) की इस उर्दू कविता के अंश पर ही ध्यान दीजिये

है सामने हमारे रिवायत-ए-कार-ज़ार

बंधे हुए हैसर से मुजाहिद कफन अभी

बन बन के जाने कितने फना होंगे सोमनाथ

बसते है हर गली में यहाँ बुतशिकन अभी

ए शहरयार हम से शिकस्त दिलों में आ

तेरी तरफ से खल्क को है हुस्न-ए-ज़न अभी


रऊफ खैर, हैदराबाद भारत, (1948-)

सजे हुये है अभी दिल में ख़्वाहिशआत के बुत

ये सोमनाथ कभी गजनवी से खुश न हुआ

वो आदमी है जो आब-ए-हयात का प्यासा

शराब-ए-ईसवी-ओ-मूसवी से खुश ना हुआ

इन गजलों, छंदों, मिसरो में भले ही सोमनाथ और बुत के कोई और गूढ मतलब हो (जैसे अधिकतर कवि, इसे अंधेरे, अज्ञानता इत्यादि के नकारात्मक भाव में प्रयोग करते है), वर्तमान में भी इनका प्रयोग मुस्लिम जनमानस के भीतर समाई हुई सोमनाथ और मूर्तिपूजा के प्रति दुर्भावना को ही दर्शाता है। जरा सोचिए यदि कवि अपनी कविताओं में "काबा" का प्रयोग ध्वस्त करने के इशारों के तौर पर दर्शाये तो पूरी मुस्लिम दुनिया कैसे प्रतिक्रिया देगी? इकबाल ने गलती से ऐसे ही इशारे काबा की तरफ कर दिये थे जिससे उनके खिलाफ फतवे जारी हो गए थे 

क्या इकबाल ने काबा को भी काफ़िरो का घर कह दिया था?


1947 ई० में आज़ादी के समय जब सरदार पटेल सोमनाथ पधारे थे, तब सोमनाथ मस्जिद की यह हालत थी

बहुत से पाठक यह जानना चाहते होंगे कि, सोमनाथ मन्दिर पर आज तक हज़ारों पुस्तके लिखी जा चुकी है, न जाने अनगिनत परिशिष्ठ एवं लेख छापे गए है, विस्तृत ऐतिहासिक वृतांत एवं कार्यक्रम भी प्रदर्शित किए गए है, तो यहाँ एक और लेख को पाठकों के बीच लाने का क्या कारण है?

  उद्देश्य:

  सोमनाथ मंदिर के सृजन और विखण्डन पर बहुतेरी चर्चाए होती रही है, आधुनिक युग के आरम्भ से आकर्षक शब्दावली से सजी अनेकानेक लच्छेदार पुस्तके हिन्दू जनता के सामने परोसी गयी है, इन पुस्तकों में अधिकतर समय या यूँ कहे कि हमेशा ही चतुर हिन्दुओं ने मंदिर के निर्माण और विध्वंस को भगवान शिव के सृजन और विनाश वाली धारणा से जोड़कर इसे एक सामान्य घटना बना दिया जिससे इसके दुष्प्रभाव से आमजनों का धार्मिक विश्वास, स्थापित पारम्परिक मूल्यों और रिवाज़ों की परिपाटी से न भटके (भीमदेव, गंडा भावबृहस्पति, गंडा त्रिपुरांतक एवं बाद के अन्य अभिलेखों में कहीं भी मंदिर विध्वंस का जिक्र नहीं है) परन्तु अफ़सोस कि, वास्तविकता का इससे कोई सरोकार नहीं है, इतिहास एवं समय हमेशा की तरह इस मामले में भी बेरहम रहे है। बस यहाँ एक बात जो ध्यान देने योग्य है, हिन्दुओ की सतत इच्छाशक्ति और लगनशीलता का न टूटना, हर बार मंदिर विध्वंस होने के पश्चात हिन्दुओं की आस्था नही डिगी, बल्कि समय आने पर उन्होने दुबारा पहले जैसा भव्य मंदिर खड़ा कर लिया, इस बात का प्रमाण स्वयं मुस्लिम तारीख़ें है, हालांकि मेरे विचार से यह धर्म से ईतर संस्कृति और गुजरात के आर्थिक स्थिति का मुद्दा रहा होगा। यह लेख आस्था से इतर, वैज्ञानिक एवं तार्किक विचारधारा से प्रेरित है और इस लेख में बड़ी संख्या में ऐतिहासिक वृतांतो, यात्रियों के संस्मरणों और अभिलेखों के संदर्भ शामिल किए गए है।

इस लेख को पाठकों के बीच लाने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण प्रभास पाटण नगर के अन्य प्राचीन स्थलो पर भी समग्र रूप से प्रकाश डालने का है, इस तरह का ऐतिहासिक लेख लिखने का प्रयास शायद ही हुआ हो और यदि हुआ भी है तो सार्वजनिक स्तर पर उसकी सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं है। पाठक स्वयं पढ़कर इसका निर्णय करेंगे, सोमनाथ के अलावा इस क्षेत्र के अन्य हिन्दू धरोहरों पर लेख न होने का प्रमुख कारण केवल हिन्दुओ की उदासीनता ही हो सकती है, जैसा कि इतिहास में भी देखा गया है हिन्दू अपने धरोहरों को लेखनीबद्ध करने में अनइच्छुक/ उदासीन ही रहे है।

सोमनाथ मस्जिद पर फहराता तिरंगा और सरदार पटेल ने मन्दिर निर्माण की सौगंध खाई थी

सोमनाथ मन्दिर का इतिहास:

सोमनाथ मन्दिर के इतिहास पर इंटरनेट जगत में बेहतरीन ब्लॉग मौजूद है जिनमे से कुछ में सोमनाथ के निर्माण से लेकर विध्वंस और फिर आधुनिक युग में इसके पुनरुत्थान पर व्यापक जानकारी उपलब्ध करवाई गयी है। इस विषय पर कुछ कहना केवल और केवल उसी जानकारी की पुनरावृत्ति करना ही होगा, प्रारम्भिक जानकारी के लिए पाठक इस वेबसाइट पर जाकर सुगमता से पौराणिक/धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकते है।

दीप्ति भटनागर जी ने सोमनाथ के महत्व का वर्णन बड़ी ही सरलता एवं सौम्यता से किया है


हेनरी कौसेंस द्वारा प्रदर्शित ध्वस्त सोमनाथ मन्दिर के मण्डप का अंदरूनी हिस्सा, आप देखेंगे की कहीं कहीं पर हिन्दू स्तम्भो पर मेहराबनुमा संरचना बना दी गई है, इसका मन्दिर के मुख्य वास्तु या गुम्बद को संभालने में कोई योगदान नहीं था, इसको बनाने का उद्देश्य केवल मन्दिर को मुहम्मदन रूप देना था

सोमनाथ, प्रभास नगर में स्थित है जिसका इतिहास बहुत प्राचीन है, इस बात की पुष्टि ऐसे हो जाती है कि प्रभास का विवरण महाभारत (9वी-7वी सदी ईसा पूर्व) एवं भागवत पुराण में मौजूद है। सोमनाथ का क्षेत्र प्रभास, देवपत्तन के नाम से प्रसिद्ध था, नजदीक में भाल्का तीर्थ भी है जहां भगवान श्रीकृष्ण को पैरो में बाण लगा था। लोककथाओं के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। इस कारण क्षेत्र का और भी महत्व बढ गया। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण भाल्का नामक स्थान पर विश्राम कर रहे थे। तब ही ज़रा नाम के एक शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिन्ह को हिरण की आंख जानकर गलती से बाण चला दिया, जिससे श्रीकृष्ण की मृत्यु हो गयी। इस स्थान पर बडा भव्य कृष्ण मंदिर बना है। मन्दिर से 3 किलोमीटर पूर्व दिशा में हिरण्या, कपिला एवं पौराणिक सरस्वती नदी का संगम है, जिसे त्रिवेणी संगम या देहोत्सर्ग संगम के नाम से भी जाना जाता है। देहोत्सर्ग घाट पर ही श्री कृष्ण का देह संस्कार किया गया था, हिन्दू इस स्थान को पवित्र मानते है और यही पर अपने पितरों के श्राद्धकर्म करते है। इन सभी का वर्णन विभिन्न हिन्दू धर्मग्रंथों में मिलता है।

महाभारत

 अनुशासन पर्व (पुस्तक 13), अध्याय 26, 

पुष्करं च प्रभासं च नैमिषं सागरोदकम

देविकाम इन्द्र मार्गं च स्वर्णबिन्दुं विगाह्य च

विबोध्यते विमानस्थः सो ऽपसरोभिर अभिष्टुतः || श्लोक 9 ||

पुष्कर, प्रभास, नैमिष, सागरोदक, देविका, इंद्रमार्ग और स्वर्णबिन्दु में स्नान करने से

पुरुष विमान पर बैठकर स्वर्ग में जाता है और अप्सराओं से स्तुत और विवोधित होता है। 

प्रभासे तव एकरात्रेण अमावास्यां समाहितः

सिध्यते ऽतर महाबाहो यो नरो जायते पुनः || श्लोक 51 ||

हे महाबाहो ! जो समाहित चित्त से अमावस्या तिथि की एक रात्री में प्रभास तीर्थ में निवास करता है

वह पुनर्जन्म में यहाँ सिद्धि प्राप्त करता है।

 

 महाभारत, वनपर्व अध्याय 118, श्लोक 15

 द्विजै द्विजै पृथिव्यां प्रथितम महद्धिस्तीर्थम प्रभासम समुपाजगाम

स तेन तीर्थेन तु सागरस्य पुन: प्रयात: सह सोदरीयै: || श्लोक 15 ||

वहाँ से प्रस्थित हो वे भाइयो सहित सागर तटवर्ती तीर्थों के मार्ग से होते हुये

फिर प्रभास क्षेत्र आए, जो श्रेष्ठ ब्राह्मणो के कारण भूमण्डल में अधिक प्रसिद्ध है। 

 

वनपर्व, अध्याय 119, श्लोक 3

(वैशम्पायन उवाच) 

प्रभासतीर्थ संप्राप्य पुण्यं तीर्थ महोदधे:

वृष्णय: पाण्डवान् वीरा: परिवार्योपातस्थिरे ||3||

राजन् ! प्रभासक्षेत्र समुद्र तटवर्ती एक पुण्यमय तीर्थ है।

वहाँ जाकर वृष्णिवंशी वीर पाण्डवों को चारों ओर से घेर कर बैठ गए। ||3||

 यद्यपि प्रभास क्षेत्र का वर्णन महाभारत (9-7वी सदी ईसा पूर्व) में कई (कम से कम दस) स्थानों पर आया है और एक बड़े तीर्थस्थान के रूप में इसकी महत्ता दर्शाई गयी है। मुख्यता: हिरण्य और कपिला नदी के संगम जिसे त्रिवेणी संगम नाम से जाना जाता है और देहोत्सर्ग घाट प्रमुख तीर्थस्थल थे। लेकिन सोमनाथ मंदिर के बारे में कोई भी वर्णन नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ की प्रभास क्षेत्र सोमनाथ मंदिर के निर्माण से भी पहले से हिन्दुओ के लिए पवित्र नगर रहा होगा।

 

विष्णु पुराण

5, 37-38-39-40

 

ततस्ते यादवास्सर्वे रथानारुह्य शीघ्रगान,

प्रभासं प्रययुस्सार्ध कृष्णरामादिमिर्द्विज।

प्रभास समनुप्राप्ता कुकुरांधक वृष्णय: चक्रुस्तव महापानं वासुदेवेन नोदिता:,

पिवतां तत्र चैतेषां संघर्षेण परस्परम्, अतिवादेन्धनोजज्ञे कलहाग्नि: क्षयावह:'

 इसके अलावा हिन्दुओ की प्रसिद्ध पुस्तक श्रीमदभागवत पुराण एवं स्कन्द पुराण में सोमनाथ मन्दिर की स्थापना को विस्तृत रूप से समझाया गया है। सोमनाथ के आस्तित्व में आने की एक पौराणिक गाथा है जिसे यहाँ बेहतर समझा जा सकता है

 

स्कंद पुराण में प्रभास पर पूरा एक खण्ड समर्पित है

 श्रीमदभागवत महापुराण

स्कन्ध-11 अध्याय-6 श्लोक स०-35

न वस्तव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यका: ।

प्रभासं सुमहत्पुण्यं यास्यामोऽद्यैव मा चिरम् ॥ ३५ ॥

मेरे प्रिय पुजयनीय गुरुजन, मेरा ऐसा विचार है कि यदि हमलोग अपने प्राणो की रक्षा चाहते हो तो हमे यहाँ नहीं रहना चाहिए ।

अब विलंब करने की आवश्यकता नहीं है। हम लोग आज ही परम पवित्र प्रभास क्षेत्र के लिए निकल पड़े।

My dear respected elders, we must not remain any longer in this place if we wish to keep our lives intact. Let us go this very day to the most pious place Prabhāsa. We have no time to delay.

 

 स्कन्ध-11 अध्याय-6 श्लोक स०-36

यत्र स्न‍ात्वा दक्षशापाद् गृहीतो यक्ष्मणोडुराट् ।

विमुक्त: किल्बिषात् सद्यो भेजे भूय: कलोदयम् ॥३६॥

प्रभास क्षेत्र की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापति के शाप से चंद्रमा को राजयक्ष्मा रोग ने ग्रास कर लिया था,

उस समय उन्होने प्रभास क्षेत्र में जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोग से मुक्त हो गए । साथ ही उन्हे कलाओ की अभिवृद्धि भी प्राप्त हो गयी।

Once, the moon was afflicted with consumption because of the curse of Daka, but just by taking bath at Prabhāsa-ketra,

the moon was immediately freed from his sinful reaction and again resumed the waxing of his phases.

  

स्कन्ध-11 अध्याय-6 श्लोक स०-37-38

वयं च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितृन् सुरान् ।

भोजयित्वोषिजो विप्रान् नानागुणवतान्धसा ॥ ३७ ॥

तेषु दानानि पात्रेषु श्रद्धयोप्‍त्‍वा महान्ति वै ।

वृजिनानि तरिष्यामो दानैर्नौभिरिवार्णवम् ॥ ३८ ॥

हम लोग भी प्रभास क्षेत्र में चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरों का तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुणवाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे।

वहाँ हम लोग उन सत्पात्र ब्राह्मणों को पूरी श्रद्धा से बड़ी बड़ी दान दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े संकटों को वैसे ही पार कर जाएंगे जैसे कोई जहाज के द्वारा समुद्र पार कर जाता है।

By bathing at Prabhāsa-ketra, by offering sacrifice there to placate the forefathers and demigods, by feeding the worshipable brāhmaas with various delicious foodstuffs and by bestowing opulent gifts upon them as the most suitable candidates for charity, we will certainly cross over these terrible dangers through such acts of charity, just as one can cross over a great ocean in a suitable boat.

 स्कन्द पुराण

स्कन्द पुराण में सरस्वती नदी के प्रभास क्षेत्र में समुद्र से मिलने की पौराणिक कथा विस्तार से बतलाई गयी है। प्रभास के ऊपर पूरा एक खंड है जिसमे 14415 श्लोक है। इस प्रकार हमे इस तीर्थ की महत्ता पता चलती है। प्रभास खण्ड आप यहाँ पढ़ सकते है

प्रभास के शिवलिङ्ग


 
स्कन्द पुराण की परावसु पर पौराणिक कहानी, इस कहानी मे उस काल मे व्याप्त सामाजिक बुराईयो  का वर्णन है

स्कन्द पुराण (7वी से 10वी शताब्दी के दौरान तैयार किया गया) के एक अध्याय में सोमनाथ के लिंग को स्पर्श लिंग के तौर पर वर्णन किया गया है। जो कि सूर्य की तरह तेज है और एक अंडम की तरह है।

 शिव पुराण

शिव पुराण में सोमनाथ मन्दिर की पौराणिक कहानी विस्तार से बताई गयी है।

सूत जी बोले--हे ऋषियो! अब मैं आपको सोमनाथ नामक ज्योतिर्लिंग की महिमा के बारे में बताता हूं। प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्वनी रोहिणी नामक सत्ताईस पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। जिन्हें पाकर चंद्रमा की शोभा बढ़ गई। अपनी सभी पत्नियों में चंद्रमा रोहिणी से अधिक प्रेम करते थे। इसलिए अन्य सभी दुखी रहती थीं। एक दिन उन्होंने अपने पिता को इस विषय में बताया। तब प्रजापति दक्ष चंद्रमा को समझाने लगे। दक्ष बोले-हे जामाता! मैंने अपनी सत्ताईस कन्याओं का विवाह तुमसे किया है परंतु आप उनसे असमानता का व्यवहार क्यों करते है। एक पत्नी से प्रेम और अन्यों से प्रेम न करना, सही नहीं है। इसलिए आपको सभी पत्नियों को समान रूप से प्यार करना चाहिए। ऐसा समझाकर दक्ष अपने घर लौट गए परंतु चंद्रदेव ने उनकी बातों को सरलता से लिया और उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। तब एक दिन दक्ष पुत्रियों ने पुनः अपने पिता से चंद्रमा के व्यवहार के बारे में बात की। यह जानकर प्रजापति दक्ष को क्रोध आ गया और उन्होंने चंद्रमा को क्षीण व मलिन होने का शाप दे दिया। उनके शाप के फलीभूत होने से चंद्रमा की कांति क्षीण हो गई और वह मलिन हो गया। चंद्रमा की ऐसी स्थिति देखकर देवराज इंद्र व अन्य सभी....... शेष यहाँ पढ़िये शिव पुराण

सोमनाथ का शाब्दिक अर्थ भी सोम यानि चन्द्र्मा के नाथ (स्वामी) है। इस प्रकार यह तो तय है कि प्रभास नगर का आस्तित्व महाभारत काल (900-700 ईसा पूर्व) में अवश्य रहा होगा एवं सोमनाथ मन्दिर का आस्तित्व भी कम से कम गुप्त काल (तीसरी-चौथी सदी) से होगा । ऐसी भी मान्यता है, (कुमारपाल अभिलेख) कि सोमनाथ का पहला मन्दिर सतयुग में चन्द्र ने स्वर्ण का बनवाया था, फिर त्रेतायुग में रावण ने इसे चाँदी से बनवाया तत्पश्चात द्वापरयुग में श्रीकृष्ण ने इसे चन्दन की लकड़ी से बनवाया और कलियुग में सोलंकी राजा भीमदेव ने इसे पत्थर से बनवाया। सतयुग में सोमनाथ को भैरवेश्वर, त्रेता में श्रवणीकेश्वर और द्वापर युग में श्रेगलेश्वर के नामे से जाना जाता था।

मुस्लिम यात्री, रोशन दिमाग दार्शनिक और गणितज्ञ अल-बिरुनी (973-1050 ईसवी) ने सोमनाथ का वर्णन अपनी पुस्तक किताब उल-हिन्द में लिपिबद्ध किया है। वह कहता है की, इसके बाद चंद्रमा पर प्रजापति के श्राप और कुष्ठ रोग से पीड़ित होने की कहानी आती है। शापित होने के बाद चंद्रमा ने दक्ष के समक्ष पश्चाताप किया और शाप के निवारण का पता लगाने के लिए प्रजापति दक्ष से सहायता मांगी। प्रजापति ने कहा कि महादेव के लिंग की स्थापना एवं पूजा करके शाप से मुक्ति पायी जा सकती है। चन्द्रमा ने वही किया और जो लिंग चन्द्रमा ने स्थापित किया था कालांतर में उसे सोमनाथ कहा जाने लगा। [हिन्दी, अँग्रेजी]

“... सोम का अर्थ है चंद्रमा और नाथ का अर्थ है स्वामी, संपूर्ण शब्द [सोमनाथ] का अर्थ है चंद्रमा का स्वामी, सुल्तान महमूद (अल्लाह उनके प्रति हमेशा दयालु बने रहे) ने हिजरी 416 (1025 ई०) में लिंग के ऊपरी हिस्से को तोड़ने का आदेश दिया और शेष को अपने निवास स्थान, ग़ज़नी में ले गया, जिसमें उसके साथ सभी बाहरी आवरण और सोने, जवाहरात और कढ़ाई वाले वस्त्र थे। इसका एक हिस्सा शहर के चौक में फेंक दिया गया, साथ में चक्रस्वामिन की कांस्य मूर्ति, जिसे थानेश्वर से लाया गया था और सोमनाथ से मूर्ति का एक और हिस्सा गज़नी की जामा मस्जिद के दरवाजे से बाहर लगाया गया है, जिस पर लोग गंदगी और गीली मिट्टी साफ करने के लिए अपने पैरों को रगड़ते है। शिवलिंग महादेव के लिंग की ही एक छवि है, जो इस प्रकार है: “ [अल-बिरूनी तब लिंग के मूल उद्गम, लिंग के विवरण एवं इसके निर्माण से संबंधित विशिष्टताएं, वराहमिहिर की बृहत्संहिता के अनुसार वर्णित करता है।]

अल-बिरुनी के लगभग सभी उल्लेख बिलकुल सही बैठते है उसके वर्णन सटीक थे, अत: इस पर भी किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता, सोमनाथ एवं चक्रस्वामी की प्रतिमा के टुकड़े गजनी की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में अवश्य लगाए गए होगे

आगे अल-बिरुनी कहता है, “सिंध देश के दक्षिण-पश्चिम में यह मूर्ति (शिवलिंग) अक्सर हिंदुओं की पूजा के लिए नियत घरों में मिलती है, लेकिन सोमनाथ इन स्थानों में से सबसे प्रसिद्ध था। हर दिन वहाँ गंगा का पानी और कश्मीर से फूलों की एक टोकरी लायी जाती थी। उनका मानना था कि सोमनाथ का लिंग हर असाध्य बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों को ठीक करता है और हर लाइलाज बीमारी को खत्म करता है। सोमनाथ के इतना प्रसिद्ध होने का विशेष कारण था, यह स्थान समुद्र में रहने वाले लोगों के लिए एक बड़ा बंदरगाह था, और सुफला, जंज (जंजीबार) और चीन के देशो के बीच आवागमन करने वाले व्यापारिक जहाज़ो का आश्रयस्थल था अल बिरुनी का भारत - एडवर्ड सी सकाऊ से उद्घृत (Al-Beruni's India - Edward C. Sachau)

अबू रेहान अल-बिरुनी ने ज्वार-भाटा के बारे में लोकप्रिय धारणा का वर्णन किया है फिर उसका वैज्ञानिक कारण भी बताया है, अल-बिरुनी का गृह प्रदेश हालाँकि समुद्र से बहुत दूर था लेकिन ज्वार भाटा के बारे मे उसका प्रेक्षण काबिले-तारीफ है।

अब हिंद महासागर में ज्वार-भाटा के संबंध में, जिनमें से पहले वाले को भरणा (?) और बाद वाला वुहारा(?) कहा जाता है, हिन्दू मान्यताओ के अनुसार सागर में हमेशा एक अग्नि (वदवानल) धधकती रहती है। ज्वार, अग्नि द्वारा श्वास लेने के कारण होता है और इसे हवा से उड़ाया जाता है, और भाटा, अग्नि द्वारा श्वास को छोड़ने और हवा के द्वारा उड़ाए जाने के कारण होता है। यह ज्वार-भाटा ही है, जिस पर सोमनाथ का नाम (अर्थात चंद्रमा का स्वामी) पड़ा; सोमनाथ के पत्थर (या लिंग) को पहले मूल रूप से तट पर स्थापित किया गया था, जो सुनहरे किले "बारोई के पूर्व में सरस्वती नदी के मुहाने से तीन मील पश्चिम" में स्थापित था। यह स्थान वासुदेव का निवास स्थान भी रहा है, यहाँ से वह स्थान ज्यादा दूर नहीं है जहां वासुदेव और उनके परिवार की हत्या कर दी गयी थी, और यही उन्हे अग्नि में प्रज्वलित कर दिया गया था। प्रत्येक बार जब चन्द्रमा उगता है और छिपता है, तो महासागर का जल स्तर बढ़ जाता है और इस स्थान को जलमग्न कर देता है। जब, चन्द्रमा दोपहर और रात्री के मध्याह्न तक पहुंच जाता है, तो समुद्र में भाटा आ जाता है और यह स्थान फिर से दिखाई देने लगता है। इस प्रकार मूर्ति की सेवा करने और उसे स्नान कराने के लिए चंद्रमा निरन्तर अनंत काल से लगा हुआ है। इसलिए इस स्थान को चन्द्र के लिए पवित्र माना जाता था। जिस किले में यह मूर्ति और उसका खजाना था, वह प्राचीन नहीं था, बल्कि लगभग सौ साल पहले ही बनवाया गया था


हेनरी कौसेंस द्वारा निर्मित कुमारपाल के सोमनाथ मन्दिर की मानचित्र योजना

आरंभ में यहाँ पर पाशुपति सम्प्रदाय (लाकुलिश पहली सदी) का गढ़ था और किसी पुख्ता प्रमाण की अनुपस्थिति में पुराणों के परम्परा को माने तो के० एन० मुंशी के अनुसार यहाँ पहली सदी के आस पास मंदिर/तीर्थ रहा होगा, पुरातव उत्खनन के दौरान यहाँ से पहली दूसरी शताब्दी के मृदुभाण्ड मिले है। यहाँ लाकुलिश की 10वी सदी की प्रतिमा उत्खनन में भी मिली है।  सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 17

कारला गुफाओ में मिले शक-क्षत्रप के शिलालेखों के अनुसार शक महाक्षत्रप नहपाण (पहली सदी) नेप्रभास क्षेत्र में ब्राह्मणो को दान दिया था

मुख्य मन्दिर के पीछे और छोटे एक और मन्दिर के ध्वस्त अवशेष दिख रहे हैं, ये गंडा भावबृहस्पति द्वारा निर्मित मन्दिर के अवशेष है

निर्माण 1.> पहला सोमनाथ मन्दिर तीसरी-चौथी शताब्दी के आस पास रहा होगा और ऐसी मान्यता है कि आरम्भिक मन्दिर का निर्माण लकड़ी से हुआ होगा। इस मन्दिर को वल्लभी (भावनगर) के मैत्रेय शासक धारसेना चतुर्थ जो कन्नौज के श्री हर्षवर्द्धन के नवासे थे, द्वारा 649 ईसवी में पुनर्निर्माण करवाया गया। इस काल का एक शिलापट्ट मंदिर परिसर में मिला है जिसमे अस्पष्ट ब्राह्मी लिपि में अभिलेख दर्ज है। सोमनाथ-मुंशी-पृ० 123,

मीर ख्वावांद द्वारा रचित रौजातुल सफा भाग 4, पृ० 42 के अनुसार, मंदिर का आधार बड़े-बड़े प्रस्तर खण्डो से बना था, इसके ऊपर छत छप्पन सागौन की लकड़ी के बने स्तम्भो पर खड़ी थी। यह खम्भे शायद अफ्रीका से आयात किए गए होंगे। इनमे से छह स्तम्भो पर पूरे भारत के राजाओ द्वारा भेंट स्वरूप दिये गए बहुमूल्य रत्न और मणियाँ जड़ी थी। (रौजातुल सफा भाग 4, पृ० ४२)  मंदिर की छत किसी पिरामिड की तरह 13 मंजिल ऊँची थी। इसके ऊपर स्वर्ण से बनी 14 गोलाकार गेंद लगी हुयी थी। ये सूर्य की रोशनी में बहुत चमकती होंगी और काफी दूरी से भी देखी जा सकती थी। फर्श सामान्य सागौन का बना हुआ था और इसके किनारे पिघले सीसे से जोड़े गए हुये थे। मन्दिर की छत से बहुमूल्य रत्नों और माणिक्यों से जड़ित झाडफानूस लटकते थे।"

इब्न जाफिर, सिब्त इब्न उल-जावजी और इब्न उल-असीर के द्वारा इस तरह का विवरण दिया गया है, जिन्होने शायद यह विवरण स्वयं अस-साबी धैल के वर्णन से उद्घृत किया था जो सुल्तान महमूद के द्वारा खलीफा बिल्लाह को लिखे गए पत्र में वर्णित था। इसी काल में ह्वेन साँग (युआन चाँग, 641-644 ईसवी), प्रभास की यात्रा पर आया था, उसके अनुसार यहाँ की संस्कृति बाकी भारत की तरह थी और जनसंख्या घनत्व काफी ज्यादा था। नगर में शिक्षा एवं धार्मिक स्थलों की बहुतायत थी।"  सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 93

यह अपेक्षाकृत छोटे मन्दिर शायद सूर्य या पार्वती को समर्पित रहे होंगे।


सोमनाथ मन्दिर के ध्वस्त अवशेषो से प्राप्त स्तम्भो की संरचनाए, ये संरचनाए एवं आकृतियाँ देख कर ही मन्दिर के समयकाल का अनुमान लगाया जाता है

1950 में पुरातत्व उत्खनन के दौरान मंदिर के सबसे नीचे की सतह में किसी अन्य पुराने मन्दिर के तराशे हुये प्रस्तर खण्ड नीव में भरे हुये मिले है, जिससे यह सिद्ध होता है कि सातवी सदी की मन्दिर संरचना के आस-पास में पहले कोई अन्य मन्दिर भी रहा होगा, जो या तो स्वयं ध्वस्त हो गया या फिर मन्दिर निर्माण से पूर्व ध्वस्त कर दिया गया हो। एक अनुमान के अनुसार यह मंदिर अपने पुराने स्थान से अलग हटकर एक नए स्थान पर बनवाया गया। पौराणिक गाथाए, यहाँ एक भव्य सूर्य मन्दिर होने के बारे में इशारा करती है। सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 126-127

इस मुद्दे पर अल-बिरुनी भी एक महत्वपूर्ण बात कहता है, सोमनाथ का पत्थर (या लिंग) पहले मूल रूप से तट पर स्थापित किया गया था, जो सुनहरे किले बारोई के पूर्व में सरस्वती नदी के मुहाने से तीन मील पश्चिम में स्थापित था।

सोमनाथ विध्वंस पर और जानकारी इस वेबसाइट से भी प्राप्त की जा सकती है

हेनरी कौसेंस के समय में सोमनाथ मन्दिर के आसपास पड़े खण्डहरो से निकली खंडित प्रतिमाए, इनमे से ज़्यादातर प्रतिमाए अब प्रभास पाटण संग्रहालय में स्थानातरित कर दी गयी है

आश्चर्यजनक रूप से सबसे ज्यादा प्रतिमाए सूर्य की हैं, ऐसा लगता हैं कि प्रभास पाटण सूर्य की उपासना के प्रमुख केन्द्रों में से एक रहा होगा, यही सूर्य की मूर्तियाँ सोमनाथ मन्दिर के नीव में भी मिली थी।

विध्वंस 1: 722 ईसवी में बादामी (उत्तरी कर्नाटक) चालुक्यों के सामन्त जयभट्ट तृतीय ने नवसारी से वल्लभी (भावनगर) राज्य पर हमला करके पूर्व के खेतका (खेड़ा) मण्डल पर कब्जा कर लिया। इसके ठीक दो वर्षो के अन्दर ही खलीफा के आदेश पर 724 ईसवी में सिंध के नए अमीर अल-जुनैद ने सौराष्ट्र पर चढ़ाई की अपने इस अभियान में वह मारवाड़, भरूच, उज्जयिनी मालवा तक पहुँच गया था। उसने वल्लभी की सेनाओं को पराजित किया और सोमनाथ मन्दिर ध्वस्त कर दिया था, सोमनाथ मन्दिर पर पहला आक्रमण जुनैद का ही माना जाता है। अरब सेनाओं ने यहाँ पर मैत्रेय शासको को अपदस्थ करने के बाद कुछ समय के लिए मुस्लिम शासन स्थापित किया, लेकिन वे ज्यादा समय तक राज नहीं कर पाये,

निर्माण 2.> अरबी सेना के वापस जाने या अन्य किसी युद्ध में पराजित होने के के पश्चात बादामी के चालुक्यों ने सोमनाथ मन्दिर की पुनर्स्थापना की थी। सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 19

725-726 ईसवी में जुनैद के पराजित (शहीद?) होने के बाद अल-तमीम को सिन्ध का नया अमीर नियुक्त किया गया। तमीम ने 731 से 738 ईसवी तक गुजरात के रास्ते महाराष्ट्र और दक्कन पर कई बड़े हमले किए, लेकिन एक बार फिर लता प्रदेश के चालुक्य नरेश पुलकेशिन अवनी-जनाश्रय (धरतीवासियों का आश्रय) राया ने नवसारी की मुठभेड़ में उसे सेना सहित मार गिराया। इस युद्ध में चालूक्यों के राष्ट्रकूट सहयोगी दांतिदुर्ग ने भी सैन्य सहयोग किया था। उधर एक और अरब सेना गुजरात होते हुये मालवा में प्रवेश कर गयी, जिसका सामना उज्जैन के प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम ने सफलता पूर्वक किया। मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति में इस विजय को दर्ज किया गया है। नागभट्ट प्रथम के पश्चात गुर्जर प्रतिहारों ने मध्य भारत के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया करीब 150 वर्षो तक कन्नौज, प्रतिहारों के कब्जे में रहा ।

निर्माण 3.> 9वी सदी में जब गुजरात कन्नौज के अधिकार क्षेत्र में आया तो प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने 815 ईसवी में सोमनाथ यात्रा की । इसके बाद से ही सोमनाथ की प्रतिष्ठा पूरे भारत वर्ष में काफी बढ़ गई। मंदिर का जीर्णोंद्धार एवं परिसर का प्रसार इसी काल में करवाया गया। सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 21

निर्माण 4.> गुजरात में कन्नौज के प्रतिहारों का नियन्त्रण करीब 940 ईसवी तक रहा। उनके पतन के पश्चात ग्रहारिपु नामक स्थानीय चूड़ासमा शासक सौराष्ट्र का अधिपति बन गया, 942 ईसवी में सिद्धपुर (पाटण) के आसपास के स्थानीय चालुक्य भूपति मूलराजा ने ग्रहारिपु को पराजित करके अनहिलवाड़ा पत्तन में चालुक्य वंश की राजधानी स्थापित की। मूलराजा, शिव का अनन्य भक्त था, उसने करीब 50 वर्ष तक गुजरात पर शासन किया (996 ईसवी) और उसके समय में सोमनाथ मन्दिर का बहुत विस्तार हुआ, मूलराजा के समय की एक प्रशस्ती मिलती है जिस पर उसकी सोमनाथ यात्रा का ज़िक्र है। सोमनाथ के विषय में सर्वप्राचीन ऐतिहासिक उल्लेख यही प्रशस्ती है, जिसमें कहा गया है कि उन्होने चूड़ासमा राजा ग्रहरिपु को हराकर सोमनाथ की यात्रा की थी। हेमचन्द्र ने ग्रहरिपु की माता को एक म्लेच्छ कहा है। ऐसा भी हो सकता है कि ग्रहरिपु की माता अरब या ईरानी मूल की कोई महिला हो।

बिल्हारी(जबलपुर) अभिलेख जो कि नागपुर के संग्रहालय में मौजूद है में चेदी के हैहया (त्रिपुरी कालचुरी) शासकों की सूची दी हुयी है, जिनमे से एक लक्ष्मणा (945-970 ई०) के बारे में यह वर्णित है कि उसने उड़ीसा पर आक्रमण किया था और "यहाँ के शासक से कालिया की प्रतिमा जो स्वर्ण से बनी थी और बहुमूल्य रत्नो से सुशोभित थी, छीन कर सोमेश्वर के प्रसिद्ध मन्दिर में शिव के सामने स्वयं प्रतिस्थापित की थी।" ऐसा अनुमान है कि मूलराजा उस समय तक त्रिपुरी कालचुरी के आधीन रहे होंगे।

960 ईसवी के मिले एक अभिलेख में उत्तरी शिलाहारा (कोंकण) के शासक अनंतदेव नामक द्वारा सोमनाथ दर्शन के उद्देश्य से सेना सहित प्रभास क्षेत्र में प्रस्थान किया था। सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 25


विध्वंस 2: अक्तूबर 1025 ईसवी में, महमूद पूरी तैयारियों के साथ गजनी से निकला। उसकी सेना में 30,000 घुड़सवार, रेगिस्तान को पार करने एवं जल को ढ़ोने के लिए 30,000 ऊंट थे और लाखो पैदल सैनिक एवं बिना वेतन के स्वेछा से इस्लाम के लिए लड़ने वाले गाजी (धर्मयोद्धा) थे।

नवंबर के अंत तक उसने मुल्तान में रुकना उचित समझा और फिर रेगिस्तान को पार करने के लिए बढ़ा। दक्षिण की ओर आगे बढ़ते हुये उसने लुधरावा घाटी पर अधिकार कर लिया। और दिसंबर के अंत तक वह अनहिलवाड़ा पाटन पहुँच गया। कुछ समय के लिए यहाँ विश्राम करने के पश्चात। सोलंकी वंश के भीमदेव, जो उस समय उज्जैनी के राजा भोज के अधीनस्थ थे, ने मोढेरा में महमूद का सामना किया, लेकिन पराजित हो गए। उधर गुर्जर सम्राट भोज परमार के नेतृत्व में उत्तर के राजा एकजुट होने लगे। इस राजनीतिक गठबंधन को देखते हुए, महमूद स्थानीय शासकों को उकसाए बिना सीधे सोमनाथ की ओर चल पड़ा। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार महमूद 6 जनवरी 1026 ईसवी को सोमनाथ पहुंचा और नगर को घेर लिया। सोमनाथ के स्थानीय शासक मंडालिका ने आठ दिनों तक मोर्चा संभाले रखा और इस दौरान हमलावर सेनाओं को नगर प्राचीर से दूर ही रखा। अंत में स्थानीय सेना महमूद की विशाल सेना के सामने ढेर हो गयी और मुस्लिम सेना सोमनाथ नगर की दीवारों को ढहा कर अन्दर प्रवेश कर गयी, एवं सोमनाथ मंदिर को पूरी तरह से नष्ट करके, इसमे आग लगा दी गयी। आग के सबूत और पिघला हुआ सीसा मन्दिर के उत्खनन में मिला है। सोमनाथ-मुंशी-पृष्ठ सं० 112

उन्होंने शिवलिंग को चार टुकड़ों में तोड़ दिया और पचास हजार भक्त जो मंदिर की रक्षा के लिए आगे खड़े थे, उनकी हत्या कर दी। 

सोमनाथ मंदिर के पुरातत्व उत्खनन के दौरान मानव अस्थियो और कंकालो के अवशेष भी प्राप्त हुये जो वर्तमान में प्रभास पाटण संग्रहालय में प्रदर्शित है (और जानकारी के लिये भाग-2 देखिये)

लेकिन महमूद अपनी जीत का आनंद ज्यादा लंबे समय तक नहीं ले पाया। जैसा कि परमार देव भोज के नेतृत्व में एक मजबूत सैन्य गठबंधन महमूद का पीछा कर रहा था, खतरे को भाँपते हुये महमूद ने पीछे हटना शुरू कर दिया और मनसूरा से होते हुये सिन्धु नदी के सहारे वापस अपने राज्य की ओर चल पड़ा, हिन्दू गठबंधन की सेना ने सिंध तक महमूद का पीछा किया। अलबरूनी ने अपने लेखों में महमूद की सेना का मुल्तान आगमन अप्रैल 1026 रिकॉर्ड किया है। रास्ते में महमूद की सेना को बड़ी तकलीफ सहनी पड़ी और उसके बहुत से सैनिक इस दुर्गम मार्ग की कठिनाईओ और सिंध के जाटों के छापामार युद्ध के कारण मारे गए।

दीवान रणछोड़जी अमरजी की तारीख-ए-सोरठ (पृष्ठ 112), एक और पुस्तक है जो काफी बाद में लिखी गई है, इस अवसर पर कहती है कि, “शाह महमूद घबराहट में अपनी जान बचाने हेतु भाग गया और अपने पीछे काफी लोगो को छोड़ गया जिसमे औरते और मर्द दोनों शामिल थे, इनमे तुर्क, अफगानी, मुगल स्त्रियाँ भी थी। जिन स्त्रियॉं का कौमार्य भंग नहीं हुआ था वे हिन्दू सैनिकों द्वारा पत्नी के रूप मे स्वीकार कर ली गयी, हालाँकि स्वीकार करने से पहले आयुर्वेदिक औषधियों से उनके पेट को साफ करवाया गया। उसके बाद उन्ही के अनुरूप योग्य पुरुषों से उनका विवाह करवाया गया। निम्न श्रेणी की स्त्रियॉं को निम्न वर्ग के हिन्दुओ से और सुंदर स्त्रियों को उच्च वर्ग के हिन्दू सैनिकों से विवाहित किया गया। इसी प्रकार बंदी बनाए गए पुरुषों को भी दाड़ी कटवा कर शेखावत और वाधेल जतियों के राजपूतों में स्थान दिया गया, जबकि असुंदर और बर्बरों को हिन्दू कोली, खांटा और बाबरिया एवं मेड़ जतियों में जोड़ लिया गया।

इस युद्ध के पश्चात महमूद की सेना इतनी बर्बाद और खस्ताहाल हो गयी कि वह भारत की तरफ दोबारा युद्ध न कर सका । अबू रेहान अल-बिरुनी अपनी पुस्तक तहक़ीक़ उल हिन्द (किताबुल हिन्द, 1030 ईसवी) में कहता है कि, "महमूद, ने इस देश की सम्पन्नता को इतनी बुरी तरह से रौंद दिया है और वहाँ ऐसा अद्वितीय शोषण किया जिसकी वजह से हिन्दू जनसंख्या सभी दिशाओं में धूल के कणों की तरह बिखर गयी है, और पुरानी कहावतों एवं किस्सों में, वे बिखरे कण (लोग), निश्चित तौर पर, सभी मुसलमानों के प्रति भयंकर घृणा भाव रखने लगे है"। अल बिरुनी का भारत भाग 1पृष्ठ 22

स्वर्ण पट्टिकाओ से आच्छादित भगवान शिव का लिङ्ग

सुल्तान के भतीजे अमीर ताहिर की पराजय और मौत का सबूत यह प्रस्तर अभिलेख
  सुल्तान के भतीजे अमीर ताहिर की पराजय और मौत

Epigrahia Indica Arabic and Persian Supplement 1973 Z. A. Desai pg-14-18

महमूद गजनवी से संबन्धित एक और अभिलेख सोमनाथ से बहुत दूर अनहिलवाड़ा पाटन नगर से 200 किमी दक्षिण में वड़ोदरा (बड़ोदा) में मिला है, इस अभिलेख के अनुसार अमीर ताहिर नामक व्यक्ति जो कि सुल्तान महमूद का भतीजा था इस क्षेत्र में आया था और अपने साथियों के साथ मारा गया था। यह प्रस्तर अभिलेख जिस जगह मिला था, उसके दक्षिण में सातवी सदी का एक बड़ा तालाब हुआ करता था (ताम्रपत्र 812-13 ई०) जिसका नाम भेसणा तालाब था। वर्तमान में यहाँ एक मज़ार और मस्जिद हैं। स्थानीय लोग इसे पीर अमीन ताहिर मस्जिद के नाम से जानते है और स्थानीय आबादी द्वारा इन्हे सन्त के तौर पर पूजा जाता है। 19वी सदी के दौरान तत्कालीन गायकवाड शासक के आदेश पर तालाब को भरकर यहाँ पोलो खेलने का मैदान बना दिया गया था। वर्तमान में यहाँ एक विशाल क्रिकेट का मैदान बना दिया गया है। राजमहल भी समीप ही है।
अभिलेख के पत्थर का आकार 18x25 सेंटीमीटर का है और ऊपर एवं बगल की तरफ से यह टूट चुका है। जिसके परिणाम स्वरूप लेख का काफी हिस्सा उपलब्ध नहीं है, विशेषकर इस अभिलेख की तिथि एवं अमीर ताहिर के पिता का नाम अब उपलब्ध नही है। यह अभिलेख अपने आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमे जो जानकारी दी गयी है वह किसी पुस्तक या अन्य किसी स्त्रोत मे नहीं मिलती है। अभिलेख की लिपि नक्श और भाषा फ़ारसी है।
यह घटना शायद महमूद गजनवी के सोमनाथ आक्रमण के समय की अथवा उसके तुरंत बाद की है, जिसमे अमीर ताहिर, जो कि सुल्तान महमूद का भतीजा था, अपने ग्यारह साथियों के साथ काफिरों (हिन्दुओ) से युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ था। दुर्भाग्यवश, उसके पिता का नाम जो कि आमिर से ही आरंभ होता है, मिट चुका है। अभिलेख के अनुसार जो भी इन शहीदों की कब्र पर आएगा और फातिहा (कुरान की पहली आयते) पढेगा वह, पैगम्बर, सन्त अमीर ताहिर और इन शहीदों के आशीर्वाद से, इस लोक और परलोक की अपनी सभी इच्छाये पूरी करेगा।

1. अल्लाह के रास्ते पर, अमीर ताहिर सुत अमीर............
2. मुजाहिद (इस्लाम के लिए लड़ने वाले), काफिरों को झुकाने वाले
3-5. सुल्तान महमूद गजनवी के भतीजे, भेसणा कुण्ड के नजदीक, उत्तर में काफिरों से लड़ते हुये अपने ग्यारह साथियों के साथ शहीद हुए
6. जो भी व्यक्ति इन शहीदों और पवित्र अमीर की कब्र पर आकर,
7. या इस भव्य मज़ार की ओर अपना रुख करके ईमान वाला
8. उसको याद करते हुये, कुरान का फातिहा पढ़ेगा
9. तो सभी पैगम्बरों, शहीदों और इस प्रतिष्ठित
10. सन्त के आशीर्वाद से उसकी इस जीवन और इसके बाद की सारी आवश्यकताओ
11. की पूर्ति, उसकी उदारता एवं उत्तम करमों से पूर्ण होगी।
       आमीन, ओ रब के मालिक


इस अभिलेख के अनुसार काफिरों और मुस्लिमो का युद्ध इसी तालाब के किनारे हुआ था।
अब एक संभावना यह हो सकती है कि यह युद्ध सोमनाथ पर हमला करने आई गजनवी की सेना की एक टुकड़ी से हुआ हो जो कि रास्ता भटक कर अनहिलवाड़ा से सोमनाथ की बजाए सुदूर दक्षिण में निकल आई हो और ऐसी सेना की कमान गजनवी के भतीजे के हाथ में हो। अथवा
एक और संभावना यह कहती है कि यह युद्ध गजनवी के मरने के कुछ वर्षो के पश्चात, उसके पुत्र मसूद के शासन में मुल्तान से भेजी गयी सेना के द्वारा किया गया हो। महमूद के पश्चात हिंदुस्तान पर गजनवी सेना के हमले की पूरी जानकारी हमारे पास उपलब्ध नहीं है, हो सकता है कि मुल्तान से यह हमला एक बार फिर पाटण की तरफ हुआ हो जिसमे भागती हुयी गुजराती सेना ने भेसणा तालाब के किनारे मुस्लिमों की सेना को घेर कर नष्ट कर दिया हो।
अमीर ताहिर को सैय्यद ताहिर से भ्रमित न करिएगा जो कि पंद्रहवी सदी में वड़ोदरा का सद्र (राज्याधिकारी) था, और बाद में शहजादा खलील खान (मुजफ्फर शाह द्वितीय) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बड़ोदा शहर के खानदानी खातिब मौलवी हबीबुल्लाह साहब के पास एक दस्तावेज़ है जिसमे शहर की सभी पुरानी इमारतों के रिकॉर्ड मौजूद है। इसके दस्तावेज़ के अनुसार, "सैय्यद सुल्तान आमीर ताहिर की मज़ार, गजनी मस्जिद के नजदीक स्थित है, जो पुराने वडोदरा शहर की सीमा के पास है। वह महमूद गजनवी की बहन का लड़का था। वह एक महान शासक था। सन 425 हिजरी (1033 ईसवी) में वे यहाँ पर 12,000 घुड़सवारों के साथ शहादत को प्राप्त हुये थे। सुल्तान महमूद दुबारा आए और काफिरों को मिट्टी मे मिला दिया।"
रिकॉर्ड के अनुसार महमूद गजनवी की मृत्यु 1030 ईसवी में हुयी थी, इसका अर्थ यह हुआ कि 1033 ईसवी में गुजरात पर एक और हमला हुआ था। जिसमे मुस्लिम सेना को विजय तो मिली परन्तु उसके बड़े योद्धाओ के साथ-साथ काफी सैनिक भी मारे गए थे।

निर्माण 5.> ऐसा प्रतीत होता है कि महमूद के वापस जाने के पश्चात भीमा चालुक्य ने दुबारा अनहिलवाड़ा पत्तन का राज्य प्राप्त कर लिया और शीघ्र ही सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। क्योंकि बड़ोदा स्टेट के संग्रहालय में मिली प्रशस्ति के अनुसार मालवा युवराज सियाक द्वितीय परमार 1045 ईसवी में सोमनाथ मंदिर आए थे और स्वर्ण तुला दान करवाया था। और इस दौरान जितने भी अरबी व्यापारी यहाँ से गुजरे उन्होने सोमनाथ के वैभव और भव्यता का वर्णन किया है। भीमा चालुक्य से पहले मन्दिर में यदि पूरा नहीं तो थोड़ा बहुत लकड़ी के स्तम्भो का इस्तेमाल अवश्य हुआ होगा, क्यूंकी स्वयं मुस्लिम रेकॉर्ड और कुमारपाल प्रशस्ति में इस बात का ज़िक्र है कि भीम से पहले का मन्दिर चन्दन की लकड़ी का बना हुआ था। इस बात को लेकर 1840-44 ईसवी के दौरान अँग्रेजी हुकूमत के समय काफी बहस हो चुकी है, कुछ लोगो के अनुसार चन्दन की लकड़ी से बने सोमनाथ के विशाल दरवाजे को महमूद गजनवी अपने साथ गजनी ले गया था, जिसे उसके मक़बरे की चौखट पर लगवा दिया गया था, इस बारे में हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंघ ने 1136 ई० में मालवा पर हमला करके परमार शासक को पराजित कर दिया, वे उज्जैनी में प्रसिद्ध शैवगुरु भावब्रहस्पति से मिले और उनसे अनुरोध किया, कि वे सोमनाथ पधारे और सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार का नेतृत्व करे। भावब्रहस्पति एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे और पाशुपति संप्रदाय से संबन्धित थे। सिद्धराज के शासनकाल के दौरान, सोमनाथ को शिक्षा, व्यापार और धार्मिक गतिविधियाँ के केंद्र के रूप में बहाल किया गया था, इस दौरान गुजरात ने एक राज्य के रूप में भारी प्रगति की। 1144 ई में सिद्धराज की मृत्यु के उपरांत, कुमारपाल अधीनस्थ शासकों में सबसे प्रभावशाली शासक बनकर उभरे, क्योंकि सिद्धराज के अपना कोई पुत्र नहीं था जो राजा के लिए प्राकृतिक विकल्प बन सकता था। कुमारपाल ने कविमित्र हेमचंद्र के प्रभाव के कारण जैन जीवन पद्धति को चुना लेकिन वे सोमनाथ की पूजा-अर्चना करते रहे।

निर्माण 6.> 1164 ईस्वी में, भावब्रहस्पति ने कुमारपाल से सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का अनुरोध किया। मंदिर के पुनर्निर्माण की देखरेख के लिए भावब्रहस्पति को पूरी जिम्मेदारी दी गई थी। उन्होंने न केवल मंदिर का पुनर्निर्माण किया, बल्कि इसके चारो ओर एक किले एवं प्राचीर का निर्माण भी करवाया जो वर्तमान शहर की सीमा है। उन्होंने पार्वती के लिए मंदिर भी बनवाए थे (इस मंदिर के अवशेषों को वर्तमान सोमनाथ मंदिर के उत्तर-पश्चिम कोने में देखा जा सकता है), भीमेश्वर, पापमोचना और सिद्धेश्वरा मंदिर आदि का भी निर्माण इसी काल में हुआ। सोमनाथ के परिसर का विस्तार किया गया और एक विशाल सभा मण्डप, ब्राह्मणो के लिए आवास, नदी तक जाने की सीढ़िया एवं कुण्ड भी बनाया गया। मंदिर का शिवलिंग एक सामान्य व्यक्ति की ऊंचाई से लगभग तीन गुना था। (वेरावल भद्रकाली मन्दिर, गंडा भावबृहस्पति अभिलेख, प्रभास पाटन संग्रहालय)

1178 ईस्वी में, सोलंकी वंश के भीमदेव द्वितीय (भोला भीम) के समय सहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने अनहिलवाड़ा पर चढ़ाई की परंतु उसे बड़े नुकसान के साथ लौटना पड़ा। 1192 ई० में तराइन का दूसरा युद्ध जीतने के बाद गोरी ने अपने शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक को दिल्ली के शासक के रूप में स्थापित किया। इसी ऐबक ने अपने स्वामी गोरी की हार का बदला लेने के लिए 1197 ई० में अनहिलवाड़ा पर हमला किया और उस पर कब्जा कर लिया। लेकिन यह जीत अल्पकालिक थी; और कुछ महीनों के बाद भीमदेव ने ऐबक के कब्जे वाले क्षेत्रों को पुन: जीत लिया और उन्हें लोगों द्वारा 'अभिनव सिद्धराज' का खिताब दिया गया।

भीमा द्वितीय के शसन काल मे जैन धर्मगुरु हेमसूरी जी ने सोमनाथ पत्तन मे जैन मंदिरो का निर्माण करवाया था, यह अभिलेख उसी से सम्बन्धित है लेकिन इसमे उन्होने सोमनाथ का जिक्र नही किया है

निर्माण 7.> सोमनाथ की यात्रा के दौरान, भीमदेव ने एक नृतकी चौलादेवी से मुलाकात की, भीमदेव को चौलादेवी पसन्द आ गयी और उसने चौलादेवी से विवाह कर लिया एवं उसे अपने साथ अनहिलवाड़ा ले गया। लेकिन चौलादेवी सोमनाथ की उपासक थी और उसे अनहिलवाड़ा के महल ज्यादा रास नहीं आए। वह उदास रहने लगी क्योंकि वह सोमनाथ के सामने पूजा और नृत्य नहीं कर सकती थी। यह महसूस करते हुए, भीमदेव ने अपनी पत्नी को खुश करने के लिए सोमनाथ मन्दिर में मेघदूत-मण्डप का निर्माण करवाया

किंवदंती कहती है कि चौलादेवी ने अनहिलवाड़ा को छोड़ दिया और शेष जीवन सोमनाथ की पूजा में लगा दिया। भीमदेव की मृत्यु के बाद, सेनापति विशालदेव ने गुजरात की सभी सेनाओं को एकजुट किया और अनहिलवाड़ा के शासक बन गए। उन्होंने लगभग 1247 से 1262 ईसवी तक शासन किया। उनके पुत्र अर्जुनदेव 1262 ईसवी में सिंहासन पर बैठे एवं 1274 ई॰ तक शासन किया। 1264 ई॰ का वेरावल शिलालेख अर्जुनदेव के शासन का वर्णन करता है। यह भी बताता है उस समय के दौरान अमीर रुकुनूद्दीन अरब तट पर स्थिति होरमुज नामक छोटे से द्वीप पर शासन कर रहे थे। यही के एक निवासी नुरूद्दीन पीरोज ने एक भारतीय व्यापारी के साथ मिलकर, सोमनाथ के पाशुपतिचार्य के आशीर्वाद से, नगर के बाहरी इलाके में एक छोटी सी मस्जिद का निर्माण किया। विडंबना यह है कि जब गुजरात के लोग मस्जिदों के निर्माण में सहयोग कर रहे थे, उसी दौरान उत्तर भारत के मुस्लिम शासक मंदिरों को नष्ट करके और उनके ऊपर मस्जिदों का निर्माण कर रहे थे। राजा अर्जुनदेव ने सोमनाथ में उच्च शिक्षा के लिए 'सारस्वत सदा' नाम से एक विद्यालय शुरू किया और 'सारस्वत क्रीड़ाकेतन' नामक एक खेल परिसर भी बनाया।

नुरूद्दीन पीरोज

नुरूद्दीन के प्रस्तर अभिलेख अपने आप में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाते है, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अभिलेख अरबी और संस्कृत भाषा दोनों में ही उपलब्ध है। ये द्विभाषी शिलालेख हिजरी 662 या 1320 विक्रम संवत (1264 ईसवी) के है। इन शिलालेखों को अरबी जहाज़ के मालिक (नाखुदा) नूरुद्दीन पिरूज़ बिन ख्वाजा अबु इब्राहीम नामक एक व्यापारी और मुस्लिम समाज के नेता (सद्र) ने सोमनाथ की एक मस्जिद में लगवाया था जो कि अब नष्ट हो चुकी है। यह मस्जिद अनहिलवाड़ा के राजा अर्जुनदेव वाघेला (1261-1274 ईसवी) के समय सोमनाथ के हिन्दू सामन्त ठाकुर श्री पलुगीदेव, रानक श्री सोमेश्वरदेव, ठाकुर श्री रामदेव, ठाकुर श्री भीमसिंह एवं अन्य की अनुमति से सारे मुस्लिमों की उपस्थिति में बनवाई गयी थी। पीरूज़ ने हिन्दू व्यापारी राजकुला श्री छाड़ा के साथ व्यापारिक साझेदारी की थी,  शिलालेख संस्कृत एवं अरबी दो भाषाओं में है। हालाँकि दोनों भाषाओं में दी गयी सामान्य जानकारी एक जैसी ही है लेकिन फिर भी इनमे कुछ दिलचस्प अंतर है जो कि हमारे विषय के लिए उपयोगी है। संस्कृत शिलालेख वर्तमान में हरसिद्ध माता मंदिर वेरावल में रखा हुआ है जबकि अरबी वाला हिस्सा वेरावल की काज़ी मस्जिद में लगा हुआ है। शिलालेख के दोनों ही संस्करण (संस्कृत और अरबी) नाखुदा पीरोज द्वारा मस्जिद के लिए भूमि ख़रीदने और उसकी मरम्मत एवं दैनिक रखरखाव के खर्चे के लिए आवश्यक उपाय करने के बारे में कहते है (रंगरोगन, तेल, और जल, मुहज़्जिन और इमाम के खर्चे), यह काले ग्रेनाइट पत्थर पर जिसका आकार 17"x25" पर उत्कीर्ण थे।

नुरूद्दीन पीरोज़ होरमुज़ नाम के छोटे से स्थान से था, जो मेरे अंदाज़े से महमूद गजनी के राज्य से करीब 1000 मील दूर होगा, लेकिन मुसलमान होने के नाते यह भी अल्लाह से वही प्रार्थना कर रहा है जो महमूद और उसके बाद के कवि और इतिहासकार कर रहे थे। बड़ी गजब की समानता है और एक पुनरावृति भी है जिसकी गम्भीरता को हिंदुओं को समझना चाहिए। अरबी और संस्कृत लेखों की असमानता कई महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर इंगित करती है, जैसे कि भारत के इस हिस्से में रहने वाली सौदागार मुस्लिम जनसंख्या अपने और अपने मेज़बानों के बारे में क्या राय रखती थी और गुजरात की आम हिन्दू जनता को क्या दिखाना चाहती थी

अरबी अभिलेख (Epigraphia Indica Arabic/Persian supplement 1961)

 

अभिलेखों का हिन्दी रूपान्तरण निम्न प्रकार से है

1. अल्लाह महान, जो अल्लाह के मार्ग पर उसके घर का निर्माण करता है।

2. 27 वे दिन, रामदान के महीने, पैगंबर के हिजरी वर्ष 662

3. न्यायप्रिय सुल्तान अबुलफख्र (फख्र के पिता), रुकनुददुनिया वायेद्दीन (दुनिया और दीन का स्तम्भ), मुईज़्ज़ुल-इस्लाम वायेल-मुस्लिमीन (इस्लाम और मुस्लिमों के यश का स्त्रोत), अल्लाह की छाया,

वह जो शत्रुओं के विरुद्ध अजेय है, दैवीय रूप से समर्थित शासक है। अबिन-नुसरत (विजयी का पिता), महमूद पुत्र अहमद, अल्लाह उस पर कृपा बनाए रखे, सोमनाथ शहर में उसका राज और प्रसिद्धि ऊँची बनी रहे, अल्लाह इसे इस्लाम का शहर बना दे, और कुफ़र और बुतो (प्रतिमाओं) को साफ कर दे। और सोमनाथ के शासक गंड महात्त्रपदम और उसके मंत्रीगण (मेहता........) उचित और कृपाशील न्यायव्यवस्था और वे लोग जिन्होने इस सरहनीय कर्म के लिए प्रयास किया और इसे संभव बनाया, उनमे से सबसे महान जाड़ा (छाड़ा) रावत पुत्र रावत नानसिंह, कुछ अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ, जैसे कि बैलक देव (पलुगिदेव), दूसरा, भीमसिंहा ठाकुर और तीसरे सोमेश्वर देव, राम देव इत्यादि ने इस शानदार मस्जिद को बनवाने की अनुमति दी।

संस्कृत वाला संस्करण जो कि अब हरसिद्धि माता के मंदिर में है, असल में इसी मस्जिद का हिस्सा था। आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत वाले हिस्से में, अल्लाह से इस्लाम की फतह और सोमनाथ से मूर्तिपूजा के खात्मे की कोई इच्छा नहीं जताई गयी है।

संस्कृत अभिलेख E. Hultzsch - Indian Antiquary 11 - सितंबर 1882

 

यह अभिलेख अशुद्ध संस्कृत में लिखा गया है, इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृत अभिलेख लिखने में किसी दक्ष संस्कृत पंडित की सहायता नहीं ली गयी है। संधि नियमों का पालन नहीं किया गया है और संज्ञा को काल एवं वाक्य के अनुसार बदला नहीं गया है। जैसे स्थायी के स्थान पर स्थयिनी एवं सखीत्व के स्थान पर सखायत्व का प्रयोग हुआ है जो की अशुद्ध है। गुजराती शब्दों जैसे घाणी (तेल मिल), चुना, छोह इत्यादि का प्रयोग किया गया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इन मुस्लिम व्यापारिक समूहों को शांति पूर्वक नगर में रहने की आज़ादी थी। अपने धर्म, संस्कृति, भाषा एवं परम्पराओ को मनाने की पूरी आज़ादी थी। स्थानीय जनता में भी इनका विशेष आदर था। इसके बावजूद इनके दिमाग में मूर्तिपूजा और हिन्दू धर्म के प्रति जहर ही भरा था, जो इन अभिलेखों के माध्यम से हमे पता चल जाता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इनमे से लगभग सभी व्यापारियों का अफगानिस्तान या उत्तरी एशिया के तुर्को से कोई संबंध नहीं था, परंतु हिन्दुओ के सम्बंध में एक जैसे विचार कैसे संभव है? इनको जोड़ने वाली कड़ी क्या थी? इसका उत्तर पाठको के अपने विवेक पर निर्भर है।

इस अभिलेख में नुरूद्दीन द्वारा मस्जिद के खर्चे चलाने के लिए शहर में एक हिन्दू मन्दिर बालेश्वरा की पल्लादिका को खरीदने का वर्णन है, और उसके आस-पास की दुकाने एवं मकान को भी खरीदने का ज़िक्र किया गया है। इसका अर्थ यह है, कि यह मन्दिर अवश्य जर्जर स्थिति में रहा होगा, जिसे एक निश्चित रकम की अदायगी के बाद नुरूद्दीन ने खरीद लिया और इसके किराए से आने वाली आमदनी को मस्जिद के रखरखाव में खर्च करने के लिए रखा था। बालेश्वरा का यह हिन्दू मन्दिर जर्जर कैसे हुआ? आमतौर पर हिन्दू, मंदिरों की जगह को बेचते नहीं है, अपितु जर्जर मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया जाता है। यह उस काल के हिन्दू समाज पर भी प्रश्न खड़ा करता है कि हिन्दुओ ने किस कारण से मंदिर की जगह को एक गैर हिन्दू को बेचा, और वह भी तब जब उत्तर के राज्यों राजस्थान, बिहार, बंगाल और कन्नोज में भव्य मंदिरों को ध्वस्त कर मस्जिदे बनाई जा रही थी। मेरा विचार है कि पीरोज की मस्जिद बनवाने में उसके साझेदार हिन्दू व्यापारी छाड़ा का बड़ा योगदान होगा जिसने अरब के व्यापार में उसके साथ भारी मुनाफा कमाया होगा और प्रभास नगर मे काफी प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्तिव हो संक्षिप्त में, धन का लोभ दिखाकर भ्रष्टाचारी नगर प्रमुखो एवं महंतो से आज्ञा करवा ली हो। और ऐसा भी संभव है कि यह मन्दिर पहले ही किसी आक्रमणकारी द्वारा अपवित्र कर दिया गया होगा अत: हिन्दू जनता के लिए यह अपवित्र मन्दिर पूजा के योग्य न रह गया होगा।

सोमनाथ का सिंत्रा अभिलेख, पुर्तगाल

हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) के अनुसार "सोमनाथ से एक प्रस्तर अभिलेख को पुर्तगाली यात्री डॉन जॉन डी कास्त्रों अपने साथ पुर्तगाल ले गया था, जो अब सिंत्रा, पुर्तगाल के एक उद्यान में स्थापित है। यह सोमनाथ पत्तन की ओर इंगित करता है, इस पर विक्रम संवत 1343, पंचम माघ सुदा की दिनाँक पड़ी हुयी है। "इस दिन एक पाशुपति अनुयायी गंडा त्रिपुरांतक ने त्रिपुरांतकेश्वर को एक मंदिर समर्पित किया था। इसके अतिरिक्त उसने सोमनाथ पत्तन में अन्य मंदिरों का भी निर्माण करवाया था। यह दिलचस्प है कि इस अभिलेख में गंडा भावबृहस्पति का भी उल्लेख है। (भावबृहस्पति अनहिलवाड़ा के शासक कुमारपाल के समय में सोमनाथ मन्दिर के प्रभारी थे)। इसकी प्रस्तावना में गुजरात के शासक सारंगदेव, जिनके शासन काल में इस मंदिर का निर्माण हुआ था, की वंशावली  का भी उल्लेख मिलता है। अभिलेख के अंतिम हिस्से में उस दौरान मन्दिर मे पूजा और अन्य प्रबंधन का विस्तृत एवं दिलचस्प वर्णन है।"

विध्वंस 3: 1297 ईसवी में अलाउद्दीन खिलजी की सेना उलुग (अलफ) खान के नेतृत्व में एक बार फिर सोमनाथ पर हमला कर उसे नष्ट कर देती है, इस बार मंदिर पर मस्जिद के निर्माण करने का वर्णन भी हमे मिलता है। हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) के अनुसार, "यह मन्दिर ज्यादा समय तक यथावत नहीं रह पाया, दिल्ली की खिलजी सल्तनत के सेनापति, अलफ खान के नेतृत्व में 1297 ई० में दूसरे बड़े मुस्लिम आक्रमण ने पाटन और सोमनाथ को एक बार फिर धूल में मिला दिया। जैसा कि मुस्लिम बुतशिकनों की परंपरा होती है, शिवलिंग को जड़ से उखाड़ दिया गया, और मन्दिर के फर्श को शायद किसी छिपे खजाने की उम्मीद में खोद दिया गया। मन्दिर के शिखर को नीचे फेंक दिया गया, दीवारों पर बनी हुयी मूर्तियों को बुरी तरह से नष्टभ्रष्ट कर दिया गया, और इस इमारत को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया। कुछ वर्षो के अंदर ही, गुजरात पर मुस्लिमों के काफी हमले हुये, जिसकी वजह से अनहिलवाड़ा का हिन्दू शासक एक अंजान भगोड़े की मौत मारा गया।" - पृष्ठ 25 पैरा 2

खिलजी के आक्रमण के दौरान कर्णदेव गुजरात पर शासन कर रहा था। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण है कि कर्णदेव के प्रधानमंत्री (महामात्य), माधव ने अला-उद-दीन खिलजी को गुजरात पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। चौदहवी सदी के लेखक मेरुतुंगा ने अपनी प्रबंध चिंतामणि (1304 ई०) में और जिनप्रभा सूरी ने अपनी रचना तीर्थकालपरु में इस प्रकरण को लिपीकृत किया है। पद्मनाभ की कन्हड़ दे प्रबंध के अनुसार, खिलजी की सेना का नेतृत्व देशद्रोही माधव कर रहा होता है, वे गुजरात जाने के लिए मार्ग में पड़ने वाले जालोर राज्य से अनुमति मांगते है जिसे जालोर के चौहान राजा अस्वीकार कर देते है, ऐसे में खिलजी की सेना चित्तौड़ राज्य से होकर गुजरात को निकलती है। ततपश्चात खिलजी की सेना अनहिलवाड़ा पर हमला करती है और सेनापति अलफ खान (उलुग खान) अनहिलवाड़ा पर कब्जा कर लेता है, अनहिलवाड़ा के कई मंदिरों को नष्ट कर वहाँ मस्जिदों का निर्माण किया जाता है। इसके उपरान्त वे सूरत, रंधार एवं अन्य शहरों में लूटपाट करते है और समुद्र तट के किनारे-किनारे होते हुये सोमनाथ की ओर बढ़ते है। सोमनाथ की रक्षा के लिए राजपूतों ने बहदुरी से शाका युद्ध किया लेकिन खिलजी सेना ने सोमनाथ के किले पर कब्जा कर लिया।

खिलजी के सोमनाथ हमले पर कन्हड़ दे प्रबंध के कुछ छन्द निमन्वत है

पड़ी भेल प्रासाद देवनइ, भांगा कूंची तालां।

हलहल करे पोलि मांहि पइठा, लीयां ढ़ोल कंसाला॥ 93

देव (सोमनाथ) के प्रासाद पर भारी संकट छा गया, कूची (चाबी) और ताले को भंग कर (तोड़) दिया गया।

हलाहल (शोर) करते हुये शत्रु की सेना द्वार के अंदर घुस गयी, और मंदिर के ढ़ोल एवं कंसाले को कब्जे में ले लिया। 

ईडे चढ़या असुर आरहिड़ा, वेगि वावरइ घाण।

पासा तणी पूतली भांजइ, भूमि पड़इ पाहाण॥ 94

असुर (तुर्क) मंदिर के शिखर पर चढ़ गए, और वेग (तेजी) से पत्थर गिराने लगे।

अपने हथौड़ो से तीनों तरफ(पासे) के प्रस्तरखण्ड भाँजते चले गए, और भूमि पर पत्थरों का अंबार(पहाड़) लगा दिया।

संधिइ संधि जूजूई कीघी, थर पाडेवा लागा।

उपरि थिका हाथिया घोडा, घण तणे घाए भागा॥ 95

उन्होने मंदिर के पत्थरों की प्रत्येक संधि को ढीला कर दिया, और भिन्न भिन्न थर (स्तर) को तोड़ने लगे।

मंदिर के ऊपर बने के हाथी, घोडो को अपने हथौड़े की ना रुकने वाली मार से तोड़ दिया। 

परठइ सांगि लागि लोहडानी, प्राण करेवा लागइ।

हलहल करी बिहु पपि बिलगइ, मोटी मूरति नांगइ॥ 96

फिर साँग और लोहदानी लाये, और पूरे जान लगाकर

हलाहल(शोर शराबे) के बीच, दोनों तरफ से उस मोटी (बड़ी) मूर्ति को उखाड़ दिया। 

आगे पढे कि कैसे महमूद की ख्यातिप्राप्त कहानियों की नकल करते हुये खिलजियों ने भी शिवलिंग को टुकड़ो में तोड़ दिया और टुकड़े-टुकड़े करके चूना बनाने के लिए दिल्ली भेज दिया। (यहाँ पर अलफ खान, महमूद गजनी की सोमनाथ कहानी से प्रेरित लगता है।) 

आलुषानि एहवु फुरमायु, मढ़ रहावउ सुनउ।

ढीली भणी भूत चलावउ, तिहा करेस्यु चुनउ॥

अलफ खान ने फरमान दिया, मंदिर बिना प्रतिमा का रहेगा,

इस भूत (मूर्ति) को दिल्ली भेजो, वहाँ इसे चूने में बदल देंगे

(आज मुस्लिम जनसंख्या के बीच निम्न चूने वाली लोककहानी बहुत प्रचलित है)

आधे रास्ते पर पहुँचकर पाटण राजा को याद आता है कि वह सोमनाथ मंदिर को तो बिना किसी सुरक्षा के आक्रमणकारी के हाथों में छोड़ आया है। वह तुरंत वापस सुल्तान के पास पहुँचता है और उससे सोमनाथ की प्रतिमा को नष्ट न करने का आग्रह करता है, इसके एवज़ में वह एक बड़ी रकम फिरौती के तौर पर देने की पेशकश भी रखता है। लेकिन सुल्तान तो गजनी से ही उस सोमनाथ की मूर्ति को तोड़ने की प्रतिज्ञा करके चला था। सुल्तान के वजीर उसे राजा द्वारा पेश की गयी बड़ी रकम को लेने की सलाह देते है और साथ ही राजा को धोखे से चूना पत्थर की बनी उस मूर्ति को पीस कर पान सुपारी में खिलाने की बात बोलते है। सुल्तान को उनकी यह राय पसंद आती है और राजा से मूर्ति के बदले 10 लाख की रकम तय की जाती है। इसके पश्चात राजा को नृत्य सभा में मनोरंजन के बहाने, धोखे से पान सुपारी में उस चूना पत्थर की मूर्ति से बना चूना खिला दिया जाता है। जब राजा 10 लाख की रकम चुका देता है और बदले में सोमनाथ की मूर्ति की माँग करता है तो सुल्तान कहता है कि, "मैं सोमनाथ तुम्हें पहले ही दे चुका हूँ, और तुमने इसे प्राप्त भी कर लिया है। मैंने पहले मूर्ति को तुड़वाकर इसका चूर्ण बनवा दिया फिर इसे अग्नि में जलाकर इसका चूना बनवाया और तुम्हें पान सुपारी में मिला कर दे दिया। तुमने न केवल इसे ले लिया बल्कि खा भी लिया है" अत: मैंने अपना वायदा पूरा कर दिया।  सोमनाथ के पतन पर मेजर जे. डबल्यू. वॉटसन की लोकगाथा [Indian Antiquary vol. 8, 1879 pg 153-161]

कन्हड़ दे प्रबन्ध में कवि पद्मनाभ ने सोमनाथ की दुर्दशा पर भगवान शिव से जो प्रार्थना की है वह बहुत मार्मिक है पाठकों को हिंदुओं के इस दर्द को पढ़ना चाहिए, जिसे अधिकांश हिन्दू ब्राह्मणो ने शिव के सृजन और विनाश के सिद्धान्त से जोड़कर उसका असर खत्म कर दिया है।

आगइ रुद्र घणइ कोपनलि, दैत्य सवे तइं वाल्या।

तइं पृथ्वी मांही पुण्य बरताव्यां, देवलोकि भय टाल्या॥ १०१

पहले रुद्र, आपने भयंकर कोपानल (क्रोधाग्नि) में सारे दैत्य भस्म कर दिये।

आपने पृथ्वी पर पुण्य का प्रसार किया, देवलोक में भय का माहौल टाला॥ 

तइं बालिउ काम त्रिपुर विंध्यसिउ, पवनवेगी जिम तूल।

पद्मनाभ पूछइ सोमइया, केथू करयउ त्रिसुल॥  १०२

आपने क्रोध से कामदेव को भस्म कर दिया, त्रिपुर को ऐसे समाप्त कर दिया जैसे तिनके को पवन उड़ा देती है।

पद्मनाभ (कवि) आपसे पूछता हैकि "अब आपका त्रिशूल क्या कर रहा है?"

वाल्या गाम देस उजाढ्या, घणा नगर विध्वंस्या।

सोरठ मांहि कोलाहल किधउ, लोक तणा धन लूस्या॥ १०३

(खिलजी सेना ने) गाँव जला दिये, देश उजाड़ दिये, पूरे नगर का विध्वंस कर दिया।

पूरे सौराष्ट्र में कोलाहल मचाया, लोगों की पूरी सम्पत्ति लूट ली।

मंदिर ध्वस्त करने के पश्चात, उलुग खान और नुसरत खान ने मन्दिर के स्थान पर एक भव्य जामी मस्जिद का निर्माण करवाया। यही पर माधव को भी अलफ खान ने मार डाला क्योंकि उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी थी। दिल्ली वापस आने के दौरान, खिलजी की सेना ने लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया और हजारों गुलामों को दिल्ली भेजा गया, इसमे से कई गुलाम हिन्दू राजसी परिवारों से संबन्धित थे, जैसे मालिक काफ़ुर, खिज्र खान और गाजी खान इत्यादि। कन्हड़दे प्रबन्ध (छन्द १०४-१०५) के अनुसार खिलजी की सेना के काफी सैनिक इस युद्ध में हताहत हुये थे, अत: नगर के ही तुर्क (मुस्लिमों) वासियों को सेना में नियुक्त किया गया और उन्हे बंदी बनाए गए लोगों पर पहरा रखने के लिए तैनात किया गया।

विध्वंस 4: इस बीच सोमनाथ में 1318 ई० में एक दो बार मुस्लिम सत्ता के विरुद्ध विद्रोह भी हुआ पर खिलजी के सेनापति मुलतानी द्वारा इसे कुचल दिया गया और दिल्ली से सुल्तानों का शासन जारी रहा। हमारे अनुमान से इस बार भी सोमनाथ मन्दिर को नुकसान पहुंचाया गया होगा, जैसा कि हेनरी कौसेंस ने अपनी पुस्तक Somnath and other medieval temples में इंगित किया है कि 1318 ई० में सोमनाथ पर दुबारा हमला हुआ था। लेकिन पुराना मंदिर तो पहले से ही नष्ट हो चुका था, अनुमान है कि इस बार नगर मे अन्य किसी मंदिर को ध्वस्त किया गया हो ।

निर्माण 8.> जूनागढ़ के चूड़ासमा राजा महिपाल और उनके पुत्र खंगार ने 1325 से 51 ईसवी के बीच में मंदिर का फिर से जीर्णोद्धार कराया और सोमनाथ में लिंग को फिर से स्थापित किया। 

जूनागढ़ का गिरनार अभिलेख जिसमे सोमनाथ प्राणप्रतिष्ठा की बात कही गयी है

हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) के अनुसार, "जैसा कि गिरनार अभिलेख से ज्ञात होता है कि सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण का कार्य क्षेत्रीय चूड़ासमा शासक महिपालदेव (1308-1325 ई०) द्वारा आरंभ हुआ, लेकिन, कतिपय, यह कार्य उसके जीवन काल में पूरा न हो सका था। क्योंकि उसी पर्वत पर एक और अभिलेख से पता चलता हैकि उसके पुत्र खंगार चतुर्थ (1325-1351 ई०) ने सोमनाथ के लिंग की प्राण प्रतिष्ठा की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अलफ खान के सोमनाथ से प्रस्थान करने के तुरंत बाद ही सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण का कार्य आरंभ करवा दिया गया था, क्योंकि चूड़ासमा शासकों, जिनका राज्य काफी छोटा था, के पास मन्दिर बनवाने के लिए इतने बड़े स्तर पर खर्च करने के लिए बहुत सीमित संसाधन हीं रहे होगे। विशेषकर जब कि अलफ खान ने पूरे कठियावाड़ में लूटपाट मचा कर बर्बादी कर दी थी, हम इस दौर में कुमारपाल के स्तर के नए मन्दिर की उम्मीद नहीं कर सकते। यह नया मन्दिर अपने समय के हिसाब से काफी छोटा और साधारण ही रहा होगा। विशेषकर, पुराने मन्दिर के खंडहर को गिरा कर नया मन्दिर बनवाना एक खर्चीला और अव्यवहारिक उपाय था जिससे बचने के लिए शायद महिपालदेव ने पुराने स्थल के नजदीक ही किसी अन्य स्थान पर मन्दिर का निर्माण करवाया होगा।  - पृष्ठ 26 पैरा 1 

 विध्वंस 5: 1393-94 ई० में, तुगलक सल्तनत के गुजराती सामन्त, मुज्जफर खान ने करीब साठ वर्ष पहले पुनर्स्थापित किए गए मंदिर को एक बार फिर नष्ट कर दिया था। तुगलक वंश के पतन के बाद, गुजरात का सामन्त स्वछंद हो गया और उसने खुद को 'सुल्तान' घोषित कर दिया। जफर खान ने सोमनाथ में एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया और स्थानीय लोगों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास भी किया।

हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर के अनुसार, "1394 ई० के आस पास, गुजरात के सूबेदार, मुजफ्फर खान ने अपने पड़ोसी हिन्दू राजाओ पर जिहाद छेड़ दिया और एक बार फिर सोमनाथ मन्दिर ध्वस्त करके मस्जिद मे तब्दील कर दिया। यह मन्दिर, महिपालदेव द्वारा बनवाया गया था और पहले से ही खण्डहर कुमारपाल वाला सोमनाथ मन्दिर इस बार जिहाद की आग से बच गया और ज्यो का त्यो ही रहा।" - पृष्ठ 26 पैरा 4 

1398 ईसवी का यह प्रस्तर अभिलेख प्रभास पत्तन नगर से प्राप्त हुआ है इसमे दो भाइयो द्वारा देवी कालिका को समर्पित मंदिर बनवाने का जिक्र है इसका अर्थ यह है कि इस समय तक प्रभास नगर फिर हिंदुओ के कब्जे मे आ चुका था

फरिश्ता
, 1392 ई० में मुजफ्फर खान के गुजरात विजय अभियान को बताने के पश्चात कहता है कि, "इस के बाद वह सोमनाथ प्रस्थान करता है, जहाँ, सारे हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के पश्चात, उनके स्थान पर वह एक मस्जिद बनवाता है और दीन का प्रसार करने के लिए आलिमों को नियुक्त करता है। राजकाज चलाने के लिए अधिकारियों को नियुक्त कर वर्ष 1395 में पत्तन (अनहिलवाड़ा) वापस लौट जाता है।" - पृष्ठ 26 पैरा 5   

1406 ईसवी के किसी बोहरा फरीद की कब्र से मिले इस संस्क्रुत शिलालेख ने कई विद्वानो को संशय मे डाल दिया है, यह मुस्लिम व्यक्ति प्रभास पाटण के राजा की हिंदू सेना की तरफ से गुजरात सुल्तानो की सेना से लडा था और वीरगति को प्राप्त हुआ

बिस्मिल्लाह रहमान रहीम !! संवत् १४६२ वर्षें श्रावण शुदि ८ शुके।।
श्रीपत्तने शिगनाथपुतर राजश्रीब्रह्मदास विजयराज्ये। तस्योपरि समायात खान श्री दफरसुत खानश्री हेवत मलिक बदरदीन सुत मलिक साल मलिक शेष० सुत मलिक सेर समस्त चतुरंग सैन्य वैष्टिते बहुरा महमद सुत बहुरा फरीद राजश्री ब्रह्मदास तुरष्कै: समं युद्धं कृत्वा संग्रामे मृत: पितामह बहुरा सीदी।। प्रपितामह महमद व्यव माता बाई दौलत मातामह ना. काशिम प्रमातामह नाखू० आली मातुलक नाखू जंगी ।। पितृव्यक व्यव० हाजी ।। भातृ व्यव० सीदी भ्रातृ व्यव० आदम।। कदमी श्री शिगनाथपत्तनेत्या:।।

विध्वंस 6: इसी गुजराती सल्तनत में आगे चलकर अहमद शाह सुल्तान बना (1411 ई०), उसने राजधानी को अनहिलवाड़ा से कर्णावती में स्थानांतरित कर दिया और इसका नाम अहमदाबाद रखा। उसने पूरे गुजरात पर कब्जा कर लिया और इस्लामी शासन (शरीयत) के आधीन कर दिया। अहमद शाह ने जूनागढ़ को भी हराया, जो उस क्षेत्र में एकमात्र हिंदू राज्य बचा था, इस दौरान 1413 ईसवी में उसने एक बार फिर सोमनाथ मन्दिर को नुकसान पहुंचाया।

हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) के अनुसार

"इसके कुछ समय बाद ही, वर्ष 1413 ई० में मुजफ्फर शाह का पोता और अहमदाबाद का संस्थापक अहमद शाह एक सेना लेकर जूनागढ़ के राणा पर हमला कर देता है, और कहते है कि वापस लौटते समय सोमपुर मन्दिर का विध्वंस भी करता है। जहाँ उसे आभूषण, जवाहरात और बहुमूल्य रत्न मिलते है। यदि उसके द्वारा तोड़ा गया सोमपुर यही सोमनाथ पत्तन है, तो यह वही मन्दिर है जो मुजफ्फर शाह के हमले के पश्चात दुबारा निर्मित करवाया गया होगा। इस समय तक हिन्दू भी पूरी तरह से हिम्मत हार चुके होंगे और फिर दुबारा कभी कुमारपाल की भव्यता वाले सोमनाथ मन्दिर को बनवाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई होगी।" पृष्ठ 27 पैरा 1

1417 ई० के एक अभिलेख में जूनागढ़ के शासको द्वारा दावा किया गया है कि उन्होने सेनापति जयसिंह के नेतृत्व में तलाजा के नज़दीक झींझरकोट में मुस्लिम सेना को करारी शिकस्त दी थी । यह सेना अहमद शाह की रही होगी।

विध्वंस 7: 1459 ईसवी में, उसका तेरह वर्षीय पोता मुजफ्फर द्वितीय, मोहम्मद बेगड़ा नाम के साथ सुल्तान बना। 1467 ईसवी में बेगडा ने जूनागढ़ के शासक मंड़ालिका को हराया। लेकिन इसके बावजूद भी सोमनाथ में अनवरत पूजा होती रही। सोमनाथ की निरंतर पूजा से क्रोधित, बेगड़ा ने जूनागढ़ पर फिर हमला कर दिया और 1469 ईसवी में राजा मंड़ालिका को दुबारा हराया। उनकी हार के बाद मंड़ालिका ने इस्लाम कबूल कर लिया। सुल्तान बेगडा ने सोमनाथ लिंग को फेंक दिया और इस स्थान को मस्जिद में बदल दिया। मन्दिर की संरचना में अधिकांश इस्लामी वास्तुकला को इस अवधि के दौरान ही जोड़ा गया था ।

निर्माण 9.> 16वीं शताब्दी की शुरुआत में, स्थानीय लोगो ने एक बार फिर सोमनाथ के मन्दिर का पुनर्निर्माण किया ताकि मस्जिद को छिपाया जा सके। लगभग 150 वर्षों के अंतराल के बाद सोमनाथ की नियमित पूजा फिर से शुरू हुई। गुजरात में राजनीतिक स्थिति अस्थिर हो गई और 1573 ईसवी में, मुग़ल सम्राट अकबर ने गुजरात पर कब्जा कर लिया और इसे अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। जब अकबर का शासन यहाँ रहा तब भी शिव की पूजा जारी थी, (एक प्रस्तर खंड पर 1590 ई० उत्कीर्ण मिला है)। लेकिन इस समय तक सोमनाथ मुस्लिमों के लिए एक प्रसिद्ध पत्तन बन गया था, हज जाने वाले अधिकतर यात्री पूरे उत्तर भारत से सोमनाथ और वेरावल के बन्दरगाह पर ही आते थे, इस कारण से मुस्लिम तीर्थयात्रियों के बीच यह एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया और इसके आस पास अनगिनत मजारे, दरगाह और मस्जिदे बन गयी। इस दौरान हिन्दू तीर्थ के रूप में इसका महत्व नगण्य हो गया।

विध्वंस 8: अपने आरम्भिक दौर में औरंगजेब बहुत कम अवधि के लिए गुजरात का सूबेदार बना था, युवावस्था में भी वह बहुत कट्टर मुसलमान था, उसने गुजरात के हिन्दू मंदिरों और जैन मंदिरों को तोड़ने के कई फरमान जारी किए। सोमनाथ को तोड़ने के लिए भी औरंगजेब ने अपने सेनापतियों को आदेश दिया था, लेकिन इससे पहले उसके फरमान पर अमल हो पाता, कुछ प्रभावी हिन्दू और जैन व्यक्तित्वों ने दिल्ली में शाहजहाँ से इस बात की शिकायत की और शाहजहाँ ने फौरन औरंगजेब को हटाकर शाइस्ता खान को वहाँ का निज़ाम नियुक्त कर दिया । शहंशाह बनने के बाद 1669 ईसवी में औरंगजेब ने सोमनाथ मन्दिर को तोड़ने का आदेश दिया, दुबारा जब 1675 ईसवी में औरंगजेब को  सोमनाथ पूजा का पता चला तो उसने दुबारा गुजरात के मनसबदार मोहम्मद आजम को सोमनाथ को नुकसान पहुंचाने का आदेश दिया। 1706 ई० मन्दिर को तोड़ दुबारा मस्जिद बना दी गयी। 

उसके बाद मंदिर को हिंदू पूजा के लिए पुनर्निर्मित कर उपयोग में नहीं लाया जा सका। मराठों ने 17वी के उत्तरार्ध और 18वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मुग़लो पर दबाव बनाना आरंभ कर दिया। 1706 ई० में औरंगजेब के द्वारा मंदिर को नष्ट करने पर मन्दिर की संरचना इतनी कमजोर हो गई थी कि उस पर कोई नया मन्दिर नहीं बन सकता था, इसलिए सोमनाथ पूजा शहर के बाहर एक छोटे से मंदिर में शुरू की गयी। उधर मराठों ने मुगल सेना को कमजोर करना जारी रखा और अंत में दामजी गायकवाड़ के नेतृत्व में मराठाओ ने 1759 ईसवी में सोमनाथ सहित पूरे गुजरात पर कब्जा कर लिया। 1783 ईसवी में, इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने सोमनाथ का दौरा किया। चूंकि मंदिर का उपयोग पूजा करने के लिए उपर्युक्त नहीं था, इसलिए उसने कुछ ही मीटर दूर, एक और मंदिर का निर्माण करवाया जो आज भी खड़ा है। इस मन्दिर में अहिल्याबाई ने मन्दिर के तहखाने में मुख्य शिवलिंग स्थापित किया था ताकि मुस्लिम आक्रांताओ द्वारा लिंग तोड़ने की संभावना से बचा जा सके

सोमनाथ के बारे में औरंगजेब से लेकर वर्तमान तक का इतिहास पढ़ने के लिए इस वेबसाइट पर दो भागों में काफी गहराई से जानकारी दी गयी है। 

नेहरू के सोमनाथ मंदिर को बनने से रोकने के प्रयास


सोमनाथ का वास्तुशिल्प:

 

वर्तमान सोमनाथ मन्दिर, पूर्व की ही भाँति चालुक्य स्थापत्य पर आधारित है, हालाँकि इसमे समसामयिक प्रचलित नागरी, जैन और द्रविड़ वास्तुकला के कुछ अवयव भी समाहित है। इस मन्दिर को कैलाश मेरु पर्वत शैली में निर्मित किया गया है। अर्थात मुख्य शिखर (मेरु पर्वत) केंद्र में और उसके साथ चारों दिशाओ में छोटे-छोटे शिखर अन्य पर्वतो का आभास कराते है, हिन्दू मंदिरो में इस तरह की संरचना आम बात थी। मन्दिर के मुख्य शिखर की ऊँचाई 155 फीट (47.1 मीटर) और निर्माण में स्थानीय पीला बलुआ पत्थर इस्तेमाल हुआ है। इसके अतिरिक्त पहले ही की तरह मन्दिर के मुख्य गर्भ गृह से जुड़े दो विशाल मण्डप भी है जैसे गुधामण्डप(सभामण्डप) और नृत्यमण्डप या रंगमण्डप (मेधामण्डप, जिसे पहले भीमा चालुक्य ने बनवाया था)। सभा मण्डप, हिन्दू मंदिरो में सबसे विशाल मण्डप है। वर्तमान मन्दिर का निर्माण पारम्परिक सोमपुरी वास्तुकारों द्वारा किया गया है।

सोमनाथ मन्दिर का ऊपर से लिया गया यह दृश्य बहुत मनोरम एवं भव्य है

मन्दिर का मुख पूर्व की तरफ है और यह 64 भारी भरकम नक़्क़ाशीदार स्तम्भो पर स्थापित है। इन स्तम्भो की तुलना सिद्धपुर के रुद्र महालय के स्तम्भो से की जा सकती है जिसे 12वी सदी में सिद्धराजा जयसिम्हा ने बनवाया था।

गुजराती भाषा में सोमनाथ मन्दिर के स्थापत्य का बहुत सुंदर बखान किया गया है, सोमनाथ के अन्य मंदिरो को भी दर्शाया गया है

 सोमनाथ विध्वंस पर मुस्लिम लेखको, कवियों की टिप्पणी

वर्तमान में सेकुलर या मार्क्सवादी विचारो से प्रभावित अधिकतर लोग इस तरह के प्रश्न करते हैकि महमूद गजनी एक आम आक्रमणकारी की तरह ही था, मंदिरो को तोड़ने वाला वह अकेला या पहला आक्रांता नहीं था, फिर कट्टर हिंदुवादी संगठन उसका उदाहरण देकर पूरी इस्लामिक दुनिया को हिन्दुओ का शत्रु क्यो दिखाना चाहते है? 

अब इस प्रश्न का उत्तर पढ़ने से पहले इस मुस्लिम की बीबीसी उर्दू में लिखी पोस्ट को पढे (बीबीसी) While Mahmud Ghaznavi is an ideal ruler and conqueror of India in Pakistan, many violent groups in India see him as a metaphor for Islamic colonialism and the barbarism of Muslim rulers and a major cause of the destruction of Hindu civilization in the subcontinent.

क्या आपको नहीं लगता एक हत्यारे और लुटेरे का यहाँ गुणगान हो रहा है? यदि वे (मुस्लिम), एक हत्यारे का गुणगान करना नहीं रोकते तो क्या इस गुणगान के इतिहास की उत्पत्ति तक भी नहीं जा सकता?

निसन्देह, महमूद गजनवी एक मुस्लिम की नज़र में आदर्श (Ideal) शासक है और हिन्दुओ की नज़र में एक बर्बर (Barbaric), यह हिन्दू और मुस्लिम की सोच में मूल अंतर है। लेकिन लेखक के अनुसार, जो भी महमूद को बर्बर और विध्वंस की निशानी समझता है वह केवल भारत के हिंसक समूहों (violent groups of India) से संबंध रखता है। 

We can say that Mahmud Ghaznavi not only targeted Hindu territories and temples in his attacks but also overthrew Ismaili Muslim rulers and territories

यहाँ महमूद के हमलो को सेकुलर दिखाने का प्रयत्न किया गया है, क्या महमूद का इस्माइलियो पर हमला सेकुलर था? इस विषय पर इस्माइलियो का क्या कहना है? क्या उनके भी विचार अपने सुन्नी भाइयों की तरह है या वे भी हिन्दुओ से इत्तिफ़ाक़ रखते है? उनके विचार यहाँ जानिए - ismail.net 

“Mehmud of Ghazna; the sworn enemy of Ismailism, had violated the above truce, and invaded Multan in 395/1005. Besides being greedy of wealth in plundering, Mehmud was a "fanatical and cruel, and a special fierce enemy of the Ismailis". His aggressive operation is attested by al-Baghdadi (d. 429/1037), who writes in Kitab al-Firaq (p. 277) that, "The Ismailis of Multan were massacred in thousand by Mehmud." Gardizi writes in Zainu'l Akhbar (comp. 441/1048) that, "Mehmud arrested the majority of the Ismailis, who lived in Multan, killed and chopped off the hands of some and punished them severely." According to Tarikh-i Firishta (comp. 1015/1606) that, "A large number of the Ismailis were slaughtered. Hands and feet of a large number of them were ruthlessly amputated." Muhammad bin Mansur writes in Adabu'l Muluk wa Kifayatu'l Mamluk (comp. 615/1228) that Mehmud put so many Ismailis to the sword by himself that, "a stream of blood flowed from the Lohari Gate in Multan, which was on the western side of the town, and that the hand of Sultan Mehmud was stuck fast to the hilt of the sword on account of congealed blood, and has to be immersed in a bath of hot water before it could be loosened."

मैं हिंदुवादियों के अजेंड़े के बारे में ठीक-ठीक टिप्पणी तो नहीं कर सकता परंतु इतिहास को सही तरह से प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य करूँगा। महमूद को हिंदुवादी या राष्ट्रवादियों द्वारा ऐसे ही याद नहीं किया जाता है। महमूद के सोमनाथ विध्वंस को पूरे इस्लामिक उम्माह (समाज) से जबर्दस्त समर्थन मिला था। खलीफ़ा ने उसे इस जीत पर तरह-तरह से सौगाते भेजी थी, यहाँ तक की उसके शत्रु मुस्लिम देश ख्वारजम के शाही कवियों ने उसकी प्रशंसा में छंद लिखे। जब किसी शत्रु देश के कवि, विरोधी शासक की तारीफ करे तो समझ लीजिये की शत्रु सच में महान है, जैसा की अकबर के दरबार में महाराणा प्रताप के साथ हुआ। आज इक्कीसवी सदी में हम उपलब्ध ऐतिहासिक स्त्रोतों के बल पर इस घटना की चाहे जितनी भिन्न-भिन्न वाख्या कर ले, परन्तु वास्तविकता के धरातल पर क्या चल रहा था उसे जानने लिए हमे किसी दिव्यदृष्टि की आवश्यकता नहीं है।

महमूद गजनवी का नाम इस्लाम के इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गया, आने वाले 5-6 शताब्दियों तक उसका नाम बड़े ही आदर और फक्र से लिया जाता रहा । उसकी सोमनाथ फतेह की कहानियाँ साहित्य के लगभग हर रूप में थोड़े बहुत बदलाव के साथ बड़े चाव से आम जनता को सुनाई जाती रही। इन कविताओं का मनोवैज्ञानिक प्रभाव मुस्लिम समाज पर इतना ज्यादा पड़ा की वहाँ के निवासी केवल धन संपदा के लिए ही नहीं बल्कि, ख्याति और अल्लाह (Gold-Glory-God) के लिए अनेकों जिहाद के लिए तैयार होते गए। हमे इस विषय पर शोध करना चाहिए कि हिंदुस्तान से ज्यादा 12-15 शताब्दी के खुरासान, समरकन्द, ईरान की मुस्लिम जनता पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, क्योकि फारसी भाषा में होने वाली इन रचनाओं की आरंभिक भारतीय समाज तक कोई पहुँच ही नहीं रही होगी। (यदि हमे इस विषय को सही से अध्ययन करना है तो, इस जीत के गोरियों, खिलजियों, अफगानियों और मंगोलों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर शोध करने की आवश्यकता है।) इस  घटना को यदि हम इतिहास में किसी और घटना से जोड़ सकते है तो कुस्तुनतुनिया पर तुर्को की फतेह हैं (Fall of Constantinople-1453), जिसे मुस्लिम इतिहासों और साहित्यों में लगभग उतनी ही ख्याति प्राप्त है।

इस जीत का खुमार मुस्लिम जनमानस में इतना ज्यादा था कि 19वी सदी तक के नामी गिरामी शायरों ने महमूद और सोमनाथ को अपनी रचनाओ में याद किया है और एक बार फिर किसी महमूद द्वारा सोमनाथ की घटना को दुहराने की कल्पना की है। मध्ययुग की हिन्दू जनता को भी इस कष्टमय पराजय की अपमानजनक दास्तान पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मुस्लिम मालिकों के मुख से सुननी पढ़ी होगी । इसलिए यह कहना बिलकुल लाजिमी नहीं है कि महमूद एक आम आक्रमणकारी था। मेरे विचार से उस दौर और उसके बाद की कई शताब्दियों का मुस्लिम समाज, मुल्ले, मौलवी, इतिहासकार, सूफी और शासक सभी दोषी है जिन्होने महमूद के इस कृत्य की तुलना पैगम्बर मुहम्मद तक से की है। कुछ वामपंथी इस तरह की विवेचना को अंग्रेज़ो की चाल से जोड़ देते है, यह बिलकुल गलत है, अंग्रेज़ो से पहले और उनके समय में भी सोमनाथ और बुतशिकन (प्रतिमा भंजन) जैसे विषय मुस्लिम कवियों, सूफियों के बीच बेहद पसंदीदा विषय होते थे और वे इन पर गजले, मसनवी, कसीदे बनाते-सुनाते रहते थे। वर्तमान समय में भी हम उपमहाद्वीप के पढे लिखे उर्दू समाज के बीच बुतशिकन, सोमनाथ और काफिर जैसे विषयों पर हजारों रचनाए देख सकते है। इसलिए जैसे कि अल-बिरुनी, पहले ही जता चुका था, कि मुस्लिमों के इस कुकृत्य के प्रति हिन्दू घृणा के जिम्मेदार स्वयं मुस्लिम है और कोई नहीं । भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम इतिहासकारों के भी दो प्रकार हैं, एक जो मार्क्सवादी या उदारवादी विचारधारा से प्रेरित हैं वे महमूद गजनवी के हमलो को इस्लामिक कट्टरता से प्रेरित ना होकर धनलोलुपता से प्रभावित बताते हैं, यह लोग दरअसल गैर-मुस्लिम बुद्धिजीवियो के सामने बड़े प्रबल और जोरदार तरीके से गौरवमयी मध्यकालीन इस्लामिक संस्कृति का बचाव करते हैं। और दलील में घुमावदार एवं बाहरी संदर्भ देकर पाठक को दिग्भ्रमित करते हैं, केवल विषय की अच्छी ख़ासी जानकारी रखने वाले ही इनके भ्रमजाल से बाहर निकल पाते हैं। (जैसे मुस्लिमो द्वारा मंदिर विध्वंस पर इनकी दलील होती हैं कि हिंदुओं ने भी मंदिर तोड़े थे या मुस्लिम मूर्तिभंजन का इस्लाम से कोई वास्ता नहीं इत्यादि) और इसके विपरीत दूसरे प्रकार के इतिहासकार ज़्यादातर पाकिस्तान आधारित है परंतु इनकी अच्छी ख़ासी संख्या भारत में भी मौजूद है महमूद गजनवी की एक लुटेरे वाली छवि को वे एक सिरे से खारिज कर देते हैं और उसे दीन के राह में चलने वाले एक नेक बंदे एवं सोमनाथ को पाखंड एवं बुराई के अड्डे के रूप में दर्शाते है। मेरे विचार से दूसरी तरह के दृष्टिकोण बिना किसी लागलपेट के बिल्कुल दुरुस्त है क्योंकि इस बात की पुष्टि स्वयं ऐतिहासिक पुस्तके करती है, और महमूद कोई अनोखा व्यक्ति नहीं था, इस्लामिक परंपरा में ऐसे काफी लोगो का महिमा मंडन है जिन्होने गैर-मुस्लिम इबादतगाहों को नष्ट किया था एवं अन्य धर्मो के अनुयायियों का नरसंहार किया था।

मुस्लिम दुनिया में आईन मानी और पारसी सम्प्रदाय के लोगो को चुन-चुन कर मारा गया

एक प्रतिष्ठित मुस्लिम संगठन ई-दावाह कमेटी (E-Da`wah Committee (EDC), owned by the Al-Najat Charity Society, Kuwait) अपने इस लेख के माध्यम से सोमनाथ मंदिर को ब्राह्मणो के पाखण्ड का अड्डा और उसके विध्वंस को अंधविश्वास पर सच्चाई की जीत के परिणाम के तौर पर बता रहा है।

हिन्दुओ के साथ एक गहरी समस्या है, वह यह कि वे अपना इतिहास तो सँजो के रखते नहीं इसके अलावा वे दूसरों द्वारा लिखे गए इतिहास के प्रति भी उदासीन रहते है। आज भी अधिकतर ऐतिहासिक मामलों में हिन्दू विद्वान एकराय नहीं है। हिन्दुओ को आज यह जानने की बहुत अवश्यकता है कि मुस्लिम समाज आरंभ से सोमनाथ अथवा हिन्दू धर्म के बारे में क्या सोचता रहा है। इसी प्रयास में हम मुहम्मदन साहित्य से कुछ उदाहरण लेकर यह विश्लेषण करने का प्रयत्न करेंगे कि सोमनाथ विध्वंस का इस्लामिक समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ा और इसने बाक़ी दुनिया के सामने भारतीय हिन्दू समाज और संस्कृति की क्या छवि छोड़ी है। नीचे दिये गए संदर्भों में केवल कुछ बड़े-बड़े और प्रसिद्ध फारसी कवियों की रचनाए शामिल है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सोमनाथ पर केवल इतनी ही रचनाए है। सोमनाथ पर लगभग हर सूफ़ी ने कुछ न कुछ लिखा अवश्य है। कुछ कवियों ने तो कई-कई बार लिखा है, इनमे से कई साहित्यिक रचनाए अब उपलब्ध नहीं है। बहुत से लोग सशंकित होकर यह कहने का प्रयास करेंगे इसमे रूमी, निजामी या खय्याम का नाम नहीं है, मैं आग्रह पूर्वक कहना चाहूँगा कि उन्होने भी सोमनाथ और बुतपरस्ती पर रचनाए की परंतु समय की कमी की वजह से मैं उन रचनाओ को यहाँ शामिल नहीं कर पाया। पाठको से निवेदन है कि अपनी सुविधानुसार ऐसे विषयो पर फारसी साहित्य अवश्य खोजे।

1. फार्रूखी सीस्तानी

इस कड़ी में पहला नाम फार्रुखी सीस्तानी का है। अबुल हसन अली इब्न जुलूग फ़ार्रुखी सिस्तानी का जन्म 1000 ईसवी के आस पास अफ़ग़ानिस्तान और ईरान सीमा पर सिस्तान नामक स्थान में हुआ था। फ़ारुखी सुल्तान महमूद और उसके पुत्र मसूद प्रथम का दरबारी कवि था। सुल्तान से अपनी नज़दीकियों के कारण अपने समय में वह सबसे शक्तिशाली कवियों में एक माना जाता था और उसकी गिनती फ़िरदौसी के पश्चात दूसरे स्थान पर होती थी। फ़ार्रुखी एक दरबारी कवि था एवं बादशाह के शिकारी या सैन्य अभियानों में शिरकत किया करता था। वह मुख्यत: बादशाह, राजकुमारों  एवं अमीरों की तारीफ में पद् लिखा करता था। उसने महमूद के लगभग हरैक महत्वपूर्ण घटनाओं पर फारसी कविताए लिखी है। यहाँ तक कि महमूद की मृत्यु के पश्चात उसने शाही संरक्षण पाने के लिए महमूद के पुत्र समेत, कई बड़े सैन्य अधिकारियों और महमूद के गुलाम ऐयाज़ इब्न ऊईमाक की प्रशंसा में भी कविता लिखी है। 

फ़ार्रुखी सिस्तानी ने भारत पर महमूद के आक्रमण पर भी कई कविताओं की रचना की है, उसमे से कुछ कविता उसकी कवितावली दीवान-ए-हाकिम में संचित है जिसमे सुल्तान महमूद द्वारा सोमनाथ की सैन्य विजय (1025 ईसवी) एवं मनात की मूर्ति तोड़ने का वर्णन है। चूँकि यह कवि महमूद के समकक्ष और उसका दरबारी था, इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि सोमनाथ आक्रमण के समय वह स्वयं सुल्तान के साथ ही उपस्थित हो, और उस घटना का प्रत्यक्षदर्शी भी हो। यह संदर्भ इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण आंखों देखा वर्णन है।   

ग्यारहवी सदी के दूसरे दशक में महमूद गजनवी ने कश्मीर को जीतने के लिए दो बार चढ़ाई की लेकिन लोहारकोट के अभेद्य दुर्ग और खराब मौसम के वजह से दोनों ही बार खाली हाथ पीछे लौटना पड़ा, इस प्रकार कश्मीर के हिन्दू राज्य को जीतने की हसरत पूरी न हो सकी, जिसका दर्द फ़ारूखी ने अपनी इन पंक्तियों में सटीकता से व्यक्त किया है।

मूल फ़ारसी :

इमा रा रही कश्मीर हमी आरजू अयादमा जे आरज़ू-ए-ख्वेस निताविम बयक मौयी

गम अस्त की यक बार बाकाश्मीर खारामैमअज

दस्त बुतन पेहनेह कुना-एम अज़ सर बुत गवए

शाह अस्त बकाश्मीर अगर इजद खहद

इमसल न्यारम ता कीन नाकश्म ज़ोए

 

हिन्दी अर्थ :

हम कश्मीर को देखने के चाहत रखते है, हम अपनी इस चाहत को नहीं भूलेंगे

यह समय आ गया है हमे एक साथ कश्मीर पर चढ़ाई करनी चाहिए

"............................................................"

यदि खुदा ने चाहा तो इस साल हम कश्मीर में होंगे

हम तब तक चुप नहीं बैठेंगे जब तक इसे कब्जा न ले।

 

English Translation:

We possess an aspiration to see Kashmir. We wil not give up our desire.

It is time that we will at once walk into Kashmir.

"-------------------------------------------------------"

If God wishes we will be in Kashmir this year.

We will not sit idle till we will not take it.

सोमनाथ के ऊपर फ़ार्रुखी ने काफी लम्बी कविताये लिखी है जिसे समय की कमी के चलते हम अपने इस विषय के लिए बेहद संक्षिप्त रूप में पाठको के सामने प्रस्तुत कर रहे है, सम्पूर्ण कविता पर टिप्पणी किसी अन्य अलग ब्लॉग में की जाएगी, फ़िलहाल सम्पूर्ण कविता कोश पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाइए[1 2 3]

"सोमनात की यात्रा का उल्लेख: वहाँ विजय प्राप्त करना और मनात की मूर्ति का भंजन (बुतशिकन) एवं सुल्तान की वापसी"

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در ذکر مراجعت سلطان محمود از فتح سومنات گويد

يمين دولت شاه زمانه با دل شاد

بفال نيک کنون سوي خانه روي نهاد

بتان شکسته و بتخانه ها فکنده ز پاي

حصارهاي قوي بر گشاده لاد از لاد

هزار بتکده کنده قوي تر از هرمان

دويست شهر تهي کرده خوشتر از نوشاد

گذارده کرده بيابانهاي بي فرجام

سپه گذاشته از آبهاي بي فرناد

گذشته بابنه ز آنجا که مايه گيرد ابر

رسيده با سپه آنجا که ره نيابد باد

ز ملک و ملکت چندين امير يافته بهر

ز گنج بتکده سومنات يافته داد

کنون دو چشم نهاده ست روز وشب گويي

به فتح نامه خسرو خليفه بغداد

خليفه گويد کامسال همچو هر سالي

گشاده باشد چندين حصار و آمده شاد

خبر نداردکامسال شهريار جهان

بناي کفر فکنده ست و کنده از بنياد

بقاش باد که از تيغ او و بازوي اوست

بناي کفر خراب و بناي دين آباد

ز بهر قوت دين با ولايت پرويز

هزار بار بتن رنجکش تر از فرهاد

ز بسکه رنج سفر بر تن شريف نهاد

همي ندانم کان تن تنست يا پولاد

برابر يکي از معجزات موسي بود

در آب دريا لشکر کشيدن شه راد

شه عجم را چون معجزه کرامتهاست

پديد گشت که آن از چه روي و از چه نهاد

من از کرامت او يک حديث ياد کنم

چنانکه بر دل تو ديرها بماند ياد

به سومنات شد امسال و سومنات بکند

در اين مراد بپيمود منزلي هشتاد

بره ز دريا بگذشت و آب دريا را

چو آب جيحون بيقدر کرد و جسر گشاد

در آن زمان که ز درياي بيکران بگذشت

بسي ميان بيابان بيکرانه فتاد

نه منزلي بود آنجا بمنزلي معروف

نه رهبري بود آنجا برهبري استاد

بماند خيره و انديشه کرد و با خود گفت

کزين ره آيد فردا بدين سپه بيداد

چنان نمود ملکرا که ره زدست چپست

برفت سوي چپ و گفت هر چه بادا باد

در اين تفکر مقدار يک دو ميل براند

ز رفته باز پشيمان شد و فرو استاد

ز دست راست يکي روشني پديد آمد

چنانکه هر کس از آن روشني نشاني داد

همه بيابان زان روشنايي آگه شد

چو جان آذر خرداد ز آذر خرداد

برفت بردم آن روشني و از پي آن

بجستجوي سواران جلد بفرستاد

بجهد و حيله در آن روشني همي برسيد

سوار جلد بر اسب جوان تازي زاد

ملک همي شدو آن روشنائي اندر پيش

که روز نو شد و درهاي روشني بگشاد

سراي پرده و جاي سپه پديد آمد

دل سپاه شد از رنج تشنگي آزاد

کرامتي نبود بيش ازين و سلطان را

چنين کرامت باشد نه هفت، خود هفتاد

همه کرامت از ايزد همي رسيد بوي

بدان زمانکه کم از بيست ساله بود بزاد

مگو مگوي که چون کيقباد يا چو جم است

حديث او دگرست از حديث جم و قباد

چو زو حديث کني از شهان حديث مکن

خطا بود که تخلص کني هماي به خاد

هميشه تا نبود نسترن چون سيسنبر

چنانکه تا نبود شنبليد چون شمشاد

هميشه تا که گل آبگون ز لاله لعل

پديد باشد و خيري ز سوسن آزاد

يمين دولت محمود شهريار جهان

بشهر ياري و رادي و خسروي بزياد

سپهر با او پيوسته تازه روي و مطيع

چنانکه مادر دختر پرست با داماد

بهار تازه برو فر خجسته باد و بي او

زمانه را و جهانرا بهار تازه مباد

 

2. असजादी


अबु नज़र अब्दुल अज़ीज़ बिन मंसूर असजादी जो असजादी मोरोजी के नाम से प्रसिद्ध है महमूद गजनवी के दरबार में एक बेहतरीन फारसी कवि थे। इनका जन्म 1040 ईसवी मे हुआ। इन्होने सुल्तान महमूद, उनके पुत्र मसूद की प्रशंसा में कसीदे गढ़े है, इनकी मृत्यु 1043 ईसवी में हुयी। दुर्भाग्य से असजादी मोरोजी की दीवान लुप्त हो चुकी है। हालाँकि उनकी कुछ कवितायें अन्य पुस्तकों में संदर्भों के माध्यम से मिल जाती है। ऐसी ही एक कविता की रचना असजादी ने सुल्तान महमूद के सोमनाथ विजय के अवसर पर की थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ अन्य लेखकों द्वारा लिखी गयी प्रसिद्ध पुस्तको में मौजूद है। असजादी एक बेतरीन कवि था और सुल्तान के चहेते कवियों में एक था, हमारे विचार से सोमनाथ विजय पर उसने फार्रुखी के अनुरूप लंबी चौड़ी कविता लिखी होगी जो फिलहाल उपलब्ध नहीं है (हो सकता है कि मूल फ़ारसी भाषा में अभी भी उपलब्ध हो)। इस पर हमारी खोज जारी है.....!!

تا شاه خسروان سفر سومنات کرد

کردار خویش را علم معجزات کرد

खुरसान के शहंशाह ने सेना सहित सोमनाथ पर प्रयाण किया

उसने वहाँ अपने कर्मो से चमत्कार कर दिया

  

3.सनाई

हाकिम अबुल-माजिद मज़दूद इब्न आदम सनाई अल-गजनवी का जन्म गजनी के नजदीक हुआ था, ये आमतौर से "सनाई" के नाम से प्रसिद्ध है। सनाई, गजनवी शासक बहराम शाह (1117-1157) के दरबार में फ़ारसी कवि थे और सूफी रहस्यवाद पर कविताए लिखते थे। आपका जन्म 1080 ईसवी के आस पास हुआ और मृत्यु 1130-40 के बीच हुयी। इसका अर्थ महमूद गजनवी की मृत्यु के लगभग 70 वर्षो पश्चात सनाई ने कविताए लिखनी आरंभ की थी। सनाई ने बड़ी संख्या में सूफी छंदों को लिखा है। उनकी सबसे बेहतरीन रचना हदीकात-अल-हकीका वा शरीअत अल-तरीका (सच्चाई का उद्यान एवं शरीयत के रीति-रिवाज, The Walled Garden of Truth) के नाम से विख्यात हैऔर अपने आप में सूफी रहस्यवाद पर पहला फ़ारसी कविताकोश (मसनवी) है।

सनाई एक समर्पित मुस्लिम था और मूर्तिपूजा, बहुदेववाद के खिलाफ था, उसने भारत की मूर्तिपूजा एवं मान्यताओ पर लिखा है, कि,

"रसूल, ईमान के मजबूत स्तम्भ थे, जिन्होंने लोगों को सच्चाई का मार्ग दिखाया;

अपनी-अपनी मजहबी दुकान चलाने वाले भयभीत स्वम्भू पैगंबर,

जब सर्वनाश के सूर्यास्त में गायब होने लगे तो भयभीत हो गए।

बहुदेववाद की काली रात अपने अंधेरे पर्दे में छिप गयी;

अविश्वासियों ने मूर्तिपूजा के होठो पर चुंबन किया (मूर्तिपूजा अपना ली);

किसी ने हाथ में एक क्रॉस पकड़ लिया, जैसे कि वह एक गुलाब की शाखा हो,

कोई एक जल कुमुदनी की तरह सूर्य की पूजा करने लगा;

कुछ लगातार मूर्तियों की पूजा करते रहे, और कुछ दूसरे उद्देश्यहीन भटकते रहे;

और कोई अपनी संवेदनहीन मूर्खता से शैतान से बुराई को, ईश्वर से अच्छाई को जोड़ता रहा;

कुछ धूल के छींटे मारते रहे, कुछ अग्नि का भक्षण करते रहे, - दूसरे जल की पीटते, हवा को रोकने का प्रयत्न करते; यहाँ लोग अपने दिमाग से तर्क को निकाल बाहर रख देते थे, जैसा कि शराब लोगो के साथ कर देती है, - कुछ औरों ने सिर से पगड़ी को फेंक दिया, जैसे कि वह आंधी से उड़ गयी हो; यहाँ एक व्यक्ति प्रतिमा को अपना ईश्वर बुलाता है, और वहाँ बुतख़ाने के पुजारी धर्मों का सत्यानाश कर रहे है; एक जादू का अभ्यास करता है, दूसरा ज्योतिष का, - एक उम्मीद में रहता है, एक भय में, पर सभी के सभी व्यर्थ लक्ष्यहीन जीवन जी रहे, सभी नासमझों की तरह थे।"

पुस्तक में सनाई ने सोमनाथ मंदिर का भी वर्णन किया है, यह हमारे वर्तमान विषय के लिए उपयोगी हो सकते है। ऐसा लगता है बुतख़ाने की जगह सोमनाथ का प्रयोग उस काल में चलन पर था, कविता का अंश नीचे प्रस्तुत है।

در سياست پادشاه

पादशाह की सियासत पर (अपरिष्कृत रूपान्तरण)

تو به جد همچو جد ميان دربند

بت معني شکن کنون يک چند

بت صورت اگر ممات دلست

بت معني به سومنات دلست

دل موئمن چو کعبه دان بدرست

زمزم و رکن او مبارک و چست

ليک حرص و غرور و شهوت و کين

حسد و بغض و آنچه هست چنين

आप अपने पूर्वज मियां दारबन्द के भांति महान है।

आप चन्द बुतशिकनों में एक है।

बुत की सूरत अँधेरे की मौत है।

बुत का मायने सोमनाथ का अँधेरा है

मौमीन का दिल तो काबा की तरह पाक है।

जमजम और ईमान से खुश और अच्छा है।

उसके लिए लालच, अभिमान, वासना और घृणा

ईर्ष्या और घृणा क्या है।


اندر بدايت پادشاهي پادشاهي بهرامشاه

बहराम शाह का राज्याभिषेक (अपरिष्कृत रूपान्तरण)

 هست خصمش ز بيم او مدهوش

آسياوار با فغان و خروش

هست خالي ز عيب و نقص و فضول

ملک محمود و خاندان رسول

اين ز کعبه بتان برون انداخت

ان ز بت سومنات را پرداخت

کعبه و سومنات چون افلاک

از دو يک مير بي خرد باشد

در نيامي دو تيغ بد باشد

هست شمشير منفرد چون شير

شير و شمشير چيست شاه دلير

پادشا خويش آتش و درياست

خاک و خويشي او چو باد هواست

با دو شه ملک و دين سقيم بود

مادر ملک از آن عقيم بود

वह जिसके भय से शत्रु भयभीत है

जिसकी गर्जन से एशिया काँपता है

मलिक महमूद के राज्य और रसूल के घर में समानता है।

दोनों ही स्थान ऐब, नक्स और फदूल (जिज्ञासा) से मुक्त है

क्यूंकी एक ने बुतो को काबा से निकाल फेंका

और दूसरे ने सोमनाथ को मूर्तिविहीन कर दिया

काबा और सोमनाथ दोनों ही खुदा के घर (अफ़्लाक) है।

लेकिन खुदा के दो घर नहीं हो सकते, दोनों में से एक जमींदोज़ कर दिया।

शेर जंगल में और शमशेर म्यान में एक ही होती है।

शेर और शमशेर दोनों है अपना शाह दिलेर

अपना शाह तो आग और पानी है।

मिट्टी (खाक) और हवा (वाद) पर उसकी बादशाहत है

वह अपने राज्य और धर्म दोनों में मजबूत है।

 

4. अनवरी

अनवरी का पूरा नाम अव्हाद अलदिन अली इब्न मुहम्मद खवारनी या अव्हाद अलदिन अली इब्न महमूद था। वे एक फारसी कवि थे, इनका जन्म 1126 ईसवी में तुर्कमेनिस्तान के अबिवर्द नामक स्थान पर हुआ और मृत्यु 1189 ईसवी मे बल्ख, खुरासान (अफ़गानिस्तान) में हुयी। इन्होने अपने युग के विज्ञान, साहित्य का अध्ययन टून (फिरदौस, ईरान) से किया था और एक प्रसिद्ध ज्योतिषविद और कवि थे। अनवरी ने खुरासान के शासक सेल्जुक सुल्तान संजर (1117-1157 ई॰) के सम्मान में कई कविताओ की रचना की जिसकी वजह से उन्हे शाही संरक्षण प्राप्त हुआ और यह संरक्षण सुल्तान संजर के बाद उनके उत्तराधिकारियों द्वारा भी जारी रहा, हालाँकि 1185 ईसवी में एक गलत भविष्यवाणी करने की वजह से, शाही संरक्षण खत्म कर दिया गया, और दरबार में उनका महत्व घट गया। कहते है कि अपनी गिरती लोकप्रियता के कारण 1189 ईसवी में अनवरी ने आत्महत्या कर ली।

अनवरी ने भी अपनी कविता में सोमनाथ मंदिर का जिक्र किया है, ऐसा लगता है की उस काल के मुस्लिम कवियों और विशेषकर फ़ारसीवादी लोगो के बीच सोमनाथ का विध्वंस एक रोचक किस्सा रहा होगा जिसे आम मुस्लिम समाज में भी बड़े चाव से सुना जाता होगा। उनकी ज़ियाउद्दीन अकफी अल-किफा, मादूद इब्न अहमद अल-असामी के तारीफ में लिखी गयी कविता में सोमनाथ का ज़िक्र निम्न प्रकार से है।

 1

 بعد از آن والي که بنياد وجود از جود اوست

بر خلايق چون تو والي کس نبودست از ولات

دست انصاف تو بر بدعت سراي روزگار

دست محمودست بر بتخانه هاي سومنات

گر حرم را چون حريم حرمتت بودي شکوه

در درون کعبه هرگز نامدي عزي و لات

هر کرا در دل هواي تست ايمن از هوان

هر که را در جان وفاي تست فارغ از وفات

 

(अशुद्ध रूपान्तरण)

तब वहाँ वली है, जो रचनाकार(अल्लाह) के लिए आस्तित्व की नीव है

क्योंकि आप वल्त के वली नहीं थे, वह वल्त से था

आज के समय की बिददत (heresy) पर आपका इंसाफपसन्द हाथ ऐसा है

जैसा महमूद का हाथ सोमनाथ के बुतख़ाने (मंदिर) पर था

अगर आप इस जगह को एक पवित्र स्थान की तरह गोरवान्वित करेंगे

काबा के अंदर, उज्जी और लूत का कोई स्थान नहीं है।

 

2

हरीरी और बादी की मक़ामत (आध्यात्मिक गोष्ठी) को अंधे व्यक्ति के आँसू समझो

जिसकी तुलना जीवन के जल के सागर से हो

ओ खुश हो, क्योंकि तुम वो हो जो महमूद के अनुयाई की आत्मा के रूप हो

आगे चलते चलो, क्योंकि तुम इस काल के महमूद हो, और हम सब सोमनाथ के बुत है।

  

5. अत्तार 

ख़्वाजा फ़रीदउद्दीन अत्तार एक जाना पहचाना नाम है, फ़ारसी शायरी में दिलचस्पी रखने वाले लोग अत्तार की दीवान एवं मसनावियों से तो परिचित ही होंगे। अत्तार एक सूफी संत थे और उनका व्यवसाय इत्रर या दवा (अत्तार, Attar) बेचने का था, इसलिए उनका नाम अत्तार पड़ गया। अत्तार का जन्म ईरान के निशापुर शहर में सन 1145 ईसवी में हुआ और मृत्यु 1220 ईसवी में हुयी। इन्हे सूफीवाद के प्रमुख संतो में एक माना जाता है। इन्होने रहस्यवादी काव्यों की रचना की, जिनमे प्रेरक प्रसंगो के रूप में सूफी संदेश छिपे रहते थे। उनकी प्रमुख रचनाए, मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद), इलाही-नामा (एक ईश्वर का विवरण) विख्यात है। इनकी रचना मसनवी के रूप में दो पंक्तियों के छंदों में हुयी है, उन्होने मुख्तारनामा (छन्द रचना) और तज़किरात-उल-औलिया नामक पुस्तक लिखी है जिसमे पहले के सूफी संतो का जीवन परिचय दिया गया है।

अत्तार का सूफी रहस्यवाद पर बहुत गहरा प्रभाव है, बाद के सूफी संतो जैसे रूमी ने स्वयं अत्तार की बहुत प्रशंसा की है एवं उन्हे अपना आध्यात्मिक गुरु माना है। अत्तार की मंतीक-उल-तय्यर पर रूमी का कहना था कि, "अत्तार प्रेम (सूफ़ीवाद) के सात आयामों तक में घूम चुके है और हम जैसे तो केवल पहली गली में कदम रख पायें है।"   

अत्तार की प्रसिद्ध कृति मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद) बेहतरीन प्रेरक प्रसंग है, हम निम्न एनीमेशन विडियो में समझ सकते है।

 मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद) भाग I


 

                     मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद) भाग II


मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद मूल फ़ारसी भाषा)


 

अत्तार की अन्य कविताए (फ़ारसी)

 गजनी के महमूद द्वारा सोमनाथ मंदिर के विध्वंस की धमक, घटना के 150 वर्ष बाद भी इस्लामिक जगत में गूंज रही थी, इस बात का प्रमाण स्वयं अत्तार है, जिन्होने सोमनाथ पर भी कुछ छन्द लिखे है, अत्तार के समय में गजनी राज्य खत्म हो चुका था और गोर से एक और गाजी शाहबुद्दीन मुहम्मद भारत पर अपने हमले करने की तैयारी में था। इस तरह से अत्तार का मूर्तिपूजा पर सीधा-सीधा प्रहार और सुल्तान महमूद की तारीफ़, कही मुहम्मद गोरी के गाजियों को प्रेरित करने के लिए तो नहीं थी, अत्तार ने सोमनाथ मंदिर के विध्वंस पर अपनी पुस्तक मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद) में निम्नलिखित वर्णन दिया है, यह मध्यकाल के फ़ारसी पाठकों के बीच एक लोकप्रिय पुस्तक हुआ करती थी और लोग अक्सर इसके उदाहरण आम बोलचाल की भाषा में देते थे। जाहिर है, इस पुस्तक ने सोमनाथ के विध्वंस की कहानी को जन-जन तक पहुँचने में महती भूमिका निभाई हो, आगे पाठक स्वयं निर्णय करे कि महान सूफी सन्त अत्तार आख़िर "काले चेहरे वाले" हिन्दुओ के बारे में कहना क्या चाहते थे।    

पक्षियों की सभा/संवाद रूपान्तरण सी. एस. नौट (1954) द्वारा

(CONFERENCE OF THE BIRDS BY C. S. NOTT (1954))

सुल्तान महमूद और सोमनाथ की प्रतिमा (SULTAN MAHMÛD AND THE IDOL OF SOMNAT)

 महमूद और उसकी फौज को पता चला की सोमनाथ में एक मूर्ति है जिसका नाम "लात" [मनात?] है। जिसे महमूद ने तोड़ने का निर्णय लिया। हिंदुओं ने इसे टूटने से बचाने के लिए इसके वज़न से दस गुना ज्यादा सोना देने की पेशकश महमूद के सामने रखी, लेकिन महमूद ने इसे अस्वीकार कर दिया और मूर्ति को जलाने के लिए एक विशाल अग्निकुंड बनाने का हुक्म दिया। तब महमूद के एक सैन्याधिकारी ने सुल्तान से अपनी राय रखी कि, "जनाब, क्या यह फायदेमंद नहीं होगा कि हम सोने की भेंट स्वीकार कर ले और मूर्ति को न जलाए।" तब महमूद कहता है कि, " मेरे विचार से, कयामत के दिन खलीक (अल्लाह) पूरी कायनात के सामने कहेगा, "सुनो आज़र (अब्राहम के पिता, एक मूर्तिपूजक) और महमूद ने क्या किया - पहले वाले ने बुतो को बनाया और दूसरे ने उन्हे धन के लिए बेच दिया। " कहते है कि जब अग्निपूजकों की यह मूर्ति आग में जलना आरंभ हुयी तो इसमे से सेकड़ो कीमती रत्न निकल कर गिर पड़े, तो इस प्रकार महमूद को खजाना भी मिल गया। वह बोला, "लात के साथ जो होना चाहिए था वही हुआ और अल्लाह से मुझे इसके लिए पुरस्कार भी मिल गया।

Mahmud and his army discovered at Somnat an idol named Lât, which Mahmud decided to destroy. The Hindus, to save it, offered ten times its weight in gold, but Mahmud refused and ordered a great fire to be made to burn the idol. Then one of his officers permitted himself to say: 'Would it not be better. Sire, to accept the gold and not to burn the idol?'

'I should think,' said Mahmud, 'that on the day of supreme reckoning the Creator would say to the assembled universe "Listen to what Azar and Mahmud have done—the first fashioned idols, the second sold them!'" They say that when the idol of the fire-worshippers was burning a hundred maunds of precious stones fell out, so Mahmud obtained treasure as well. He said: 'Lât has got what he deserved and God has rewarded me.'

लात : इस्लाम पूर्व अरब में असीरियन देवता अल्लाह के साथ साथ उसकी तीन बेटियों उज्जा, लात ओर मनात की पूजा होती थी, इनका जिक्र कुरान में भी है। जब पैगम्बर मुहम्मद ने अरब में इस्लाम का प्रतिपादन किया तो इनकी मूर्तियों का स्वयं विध्वंस किया था, इसी कारण प्रतिमाभंजन प्रत्येक मुस्लिम के लिए पवित्र कार्य माना जाता है। अन्य इस्लामिक किवदंतियों में सोमनाथ (जिसे अरबी/फ़ारसी में सो-मनात के नाम से जाना जाता था।) में मनात की मूर्ति स्थापित होने के बारे में बताया गया है।

आजर : ये अब्राहम (मुस्लिम : इब्राहीम) के पिताजी थे जो घोर मूर्तिपूजक थे।  

 

अत्तार - महमूद का एक और वृतांत (ANOTHER ANECDOTE OF MAHMUD)

 शाहों के शाह, हिंदुओं से युद्ध करने के लिए गज़ना से रवाना हुये परन्तु उनकी (काफिरों की) शक्तिशाली सेना को देखकर हतोत्साहित हो गए, तब उन्होने खुदा से एक वायदा किया कि अगर वे विजयी होते है, तो वह इस जीत के बाद हाथ आई पूरी लूट (माल-ए-गनीमत) दरवेशों को दे देंगे। इस युद्ध में उन्होने जीत हासिल की। और जब काले-चेहरे वाले (हिन्दू) अपनी सम्पत्ति को छोड़कर भाग गए, तो उन(महमूद) की सेना ने भारी मात्रा में खजाना एकत्र कर लिया। महमूद ने हुक्म दिया कि, 'इसे दरवेशों के पास भेज दो, क्योंकि मैंने अल्लाह से ऐसा करने का वादा किया है, और मुझे अपना वचन रखना चाहिए।' यह बात उसके अधिकारियों को अखरी और उन्होने इसका विरोध किया और कहा:

"आप मुट्ठी भर आदमियों को इतना चांदी सोना क्यों देते है, जो लड़ते भी नहीं! उस सेना को क्यों नहीं देते, जिसने लड़ाई जीतने में अपनी जान तक का खामियाजा उठाया है, या, कम से कम, इस धन को सरकारी खजाने में डाल दीजिये?"

सुल्तान अपनी प्रतिज्ञा और अपनी सेना के विरोध के बीच संकोच में फँस जाता है।

इस बीच, बु हसैन, खुदा का एक मूर्ख बन्दा, जो बुद्धिमान तो था लेकिन अशिक्षित था, उस तरफ से गुजर रहा होता है। महमूद उसे दूर से देखकर कहता है: "उस मूर्ख को बुलाओ; उसे यहाँ आने के लिए कहों और इस विषय पर पूछों कि क्या किया जाना चाहिए, और मैं उसी के कहे अनुसार कार्य करूंगा; चूंकि वह न तो सुल्तान से डरता है और न ही सेना से, वह निष्पक्ष राय देगा।"

जब सुल्तान ने बु हसैन के पास मामला रखा, तो उसने कहा: "जनाब, यह केवल दो सिक्को की ही बात है, लेकिन यदि आप ईश्वर के प्रति समान रूप से कार्य करना चाहते है, तो ऐ मेरे प्यारे सुल्तान इन दो सिक्के के बारे में और कुछ न सोचें, परन्तु यदि आप उसकी कृपा से एक और जीत हासिल करते है, तो आपको उन दो सिक्कों को अपने पास रखने में शर्म आएगी। चूंकि ईश्वर ने आपको विजय दी है, क्या जो ईश्वर का है वह आप ले सकते है?" यह बात महमूद को समझ आ गयी और उसने दरवेशों को खजाना दे दिया, और आगे चलकर एक महान सम्राट बना।

When this torch of kings left Gazna to make war on the Hindus and encountered their mighty army, he was cast down, and he made a vow to the King of Justice that if he were victorious he would give all the booty that fell into his hands to the dervishes. He gained the victory, and his army collected an enormous amount of treasure. When the black-faces had retreated leaving the plunder, Mahmud said :' Send this to the dervishes, for I have promised God to do so, and I must keep my vow.' Then his officers protested and said :

' Why give so much silver and gold to a handful of men who do not fight ! Why not give it to the army which has borne the brunt of the battle, or, at least, put it in the treasury?'

The Sultan hesitated between his vow and the protests of his army. Meanwhile, Bu Hassein, an idiot of God, who was intelligent but uneducated, passed along that way. Mahmud seeing him in the distance said: 'Call that idiot; tell him to come here and say what ought to be done, and I will act accordingly; since he fears neither the Sultan nor the army, he will give an impartial opinion.' When the Sultan had put the case to Bu Hassein, the latter said: 'Sire, it is a question of two obols, but if you wish to act becomingly towards God, think no more, O my dear, about these two obols; and if you win another victory by his grace, be ashamed to hold back two obols. Since God has given you the victory, can that which belongs to God belong to you?' Mahmud thereupon gave the treasure to the dervishes, and became a great monarch.

 

डिक डेविस (1984) द्वारा मूल कविता छंद में अँग्रेजी रूपांतरण का अंश

CONFERENCE OF THE BIRDS (MANTIQ AL-TAYR) FARID UD-DIN ATTAR

Introduction by Afkham Darbandi and Dick Davis

 सोमनाथ पर शाह महमूद (Shah Mahmoud at Somnat) lines 312243

When Mahmoud’s army had attacked Somnat They found an idol there that name called “Lat”.

जब महमूद की सेना ने सोमनाथ पर हमला किया तो उन्होने वहाँ एक प्रतिमा को पाया जिसका नाम लात था।

Its worshippers flung treasure on the ground And as a ransom gave the glittering mound;

इस मूर्ति के पूजकों ने मूर्ति के बदले धरती पर खजाना बहा दिया, स्वर्ण का टीला बना दिया

But Mahmoud would not cede to their desire And burnt the idol in a raging fire.

लेकिन महमूद को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित होना नहीं था, प्रतिमा को ज्वाला मे भस्म करना ही था।

A courtier said: “Now if it had been sold We’d have what’s better than an idol – gold!”

एक दरबारी कहता है, "अगर यह बिक जाती तो, हमे पत्थर के बुत के बदले बेहतर सोना मिल जाता"

Shah Mahmoud said: “I feared God’s Judgement Day; I was afraid that I should hear Him say

इस पर शाह महमूद बोलता है," में अल्लाह के कयामत वाले दिन से डरता हूँ, मुझे फिक्र है कि कही मुझे यह न सुनना पड़े"

Here two – Azar and Mahmoud – stand, behold! One carved his idols, one had idols sold!’”

"कि यहाँ खड़े है वो दो, आजर और महमूद - एक मूर्तियाँ बनाता है और एक मूर्तियाँ बेचता है। "

And as the idol burned, bright jewels fell out – So Mahmoud was enriched but stayed devout;

"और जैसे-जैसे प्रतिमा जलती गयी, चमकीले रत्न गिरते गए, - महमूद, अल्लाह पर ईमान रखकर भी धनवान बन गया"

He said: “This idol Lat has her reward, And here is mine, provided by the Lord.”

वह बोला,"इस लात के बुत को अपना अंजाम मिला और अल्लाह की कृपा से मुझे मेरा मुकद्दर मिला"

Destroy the idols in your heart, or you Will one day be a broken idol too –

अपने दिलों में बसे बुतों को तोड़ फेंको, नहीं तो एक दिन तुम भी टूटे बुतों की तरह हो जाओगे

First burn the Self, and as its fate is sealed The gems this idol hides will be revealed.

पहले अपने अहम को जलाओ, और जब इसका समय हो जाएगा तो इस बुत (अहम) में छिपे रत्न दिखने लगेंगे

 इसके अलावा Edward FitzGerald [1889] द्वारा रूपांतरित पक्षियों की संसद (Bird Parliament) में सोमनाथ वाला किस्सा नहीं दिया गया है। 

 एक मुस्लिम द्वारा गजनी का महिमामंडन


जैसा की इतिहासकारों का मत है कि अत्तार की इस रचना का कोई ऐतिहासिक वजूद नहीं है, लेकिन फिर भी यह कविता कवि के मनोस्थिति के बारे में बहुत कुछ बयान करती है। उस दौर के सूफ़ियों का हिन्दू मत, मूर्तिपूजा एवं सोमनाथ के बारे में क्या राय थी कविता के माध्यम से पता चल जाता है। अत्तार ने न केवल सोमनाथ विध्वंस और महमूद का गुणगान किया है बल्कि कई स्थानों पर हिन्दुओ के लिए काला, कुरूप चेहरे वाला, असभ्य शब्द इत्यादि भी प्रयोग किए है। साहित्यिक विद्वान इसे रहस्यवादी कविता बोलकर शब्दों के कुछ भी अर्थ क्यो न निकाले, लेकिन ऐतिहासिक पारखियों की नज़र में अत्तार, नस्लवादी और हिन्दू विरोधी ही जान पड़ते है।

 

6. खकानी

 खकानी का पूरा नाम फजल अलदिन बादिल इब्न अली इब्न उस्मान था। वे मध्ययुग के एक महान फारसी कवि और लेखक थे, इनका जन्म सन 1120 ई॰ में काकेशियन पर्वतमाला के शिरवान नामक पर्वतीय शहर में हुआ था। वे शिरवान के दरबार में शाहों की तारीफ में क़सीदे (कविताए) लिखा करते थे। उनकी प्रसिद्ध कवितायें दीवान-ए-खकानी में संचित है। इनकी मृत्यु 1199 ईसवी में हुयी। खकानी फारसी भाषा के एक विख्यात और बड़े कवि थे, उन्होने कविता लिखने की कई नयी विधाये ईज़ाद की, जैसे की हब्सियत ("कैद में कविता") विश्व में एक बेहतरीन विधा मानी जाती है। यह विधा मध्ययुग के दौरान विश्व की सबसे सुन्दरता से संपादित की गयी कविताओं में से एक है जो क़ैदी के दर्द को बयान करती है। इसके अलावा नाएतिया (मुहम्मद की तारीफ़) की वजह से अरबी दुनिया में उन्हे हसन-उल-आजम (फारस का हसन) की उपाधि मिली।(हसन इब्न थाबित अरब का एक प्रसिद्ध कवि था जिसने मुहम्मद की तारीफ में कवितायें लिखी थी।)

खकानी ने भी सोमनाथ मंदिर के विध्वंस का ज़िक्र शेरवान के शाह अबु अल-मुजफ्फर शेरवान शाह की विजय पर कसीदे लिखते समय किया था। यह कविता सोमनाथ पर महमूद गजनी के हमले के लगभग 150 वर्ष बाद लिखी गयी, इसका अर्थ यह है कि उस मंदिर के विध्वंस की गूंज बहुत दूर तक और बहुत देर तक इस्लामिक समाज में विद्यमान रही, और वे बड़े चाव से इस विषय पर कवितायें बनाते और सुनाते रहे होंगे।

حيدر آتش سنان آمد به رزم

رستم آرش کمان آمد به رزم

خصم چون سگ در پس زانو نشست

کو چو شير سيستان آمد به رزم

سومنات ظلم را محمودوار

برق زد تا ابرسان آمد به رزم

بر زبان تيغ او در شان ملک

وحي نصرت ز آسمان آمد به رزم

رنگ جبريل است تيغش را بلي

بر زبانش وحي از آن آمد به رزم

در کف شاه آن يماني تيغ را

آسمان مکي فسان آمد به رزم

شاه چون خورشيد و در کف جو زهر

با کمند خيزران آمد به رزم

 

7. ख्वाजू करमानी


 ख्वाजू करमानी का जन्म 1209 ई॰ में ईरान में हुआ था वे एक प्रसिद्ध फारसी और सूफी रहस्यवादी कवि थे। उन्होने कई कविताओ की रचना की है जिनमे से गजलों, कसीदे, मसनवी इत्यादि का संकलन "दीवान ए ख्वाजू करमानी " के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अलावा उन्होने कुछ और रचनाए की जैसे होमाय एवं हुमायु, गोल ओ नौरोज, रौवजत अल अनवर, कमालनामा, गौहरनामा, सामनामा इत्यादि है।

ख्वाजु करमानी ने भी सोमनाथ का ज़िक्र अपनी दीवान में किया है, जिसका शीर्षक है आप अपने मीठे ओंठो से मधुरता ले आए।

 از لب شيرين چون شکر نبات آورده ئي

از لب شيرين چون شکر نبات آورده ئي

وز حبش بر خسرو خاور برات آورده ئي

بت پرستانرا محقق شد که اين خط غبار

از پي نسخ بتان سومنات آورده ئي

مهر ورزانرا تب محرق بشکر بسته ئي

يا خطي در شکرستان بر نبات آورده ئي

خستگان ضربت تسليم را بهر شفا

نسخه کلي قانون نجات آورده ئي

اي خط سبز نگارين خضر وقتي گوئيا

زانکه سوداي لب آب حيات آورده ئي

تا کشيدي نيل بر ماه از پي داغ صبوح

چشمه نيل از حسد در چشم لات آورده ئي

چون روانم بيند از دل ديده را در موج خون

گويدم در دجله نهري از فرات آورده اي

زاندهان گر کام جان تنگدستان مي دهي

لطف کن گر هيچم از بهر زکوة آورده ئي

دوش مي گفتم حديث تيره شب با طره هات

گفت خواجو باز با ما ترهات آورده ئي

az lb shyryn chewn shker nbat awrdh 'ey

az lb shyryn chewn shker nbat awrdh 'ey

wz hbsh br khsrw khawr brat awrdh 'ey

bt perstanra mhqq shd keh ayn kht ghbar

az pey nskh btan swmnat awrdh 'ey

mhr wrzanra tb mhrq bshker bsth 'ey

ya khty dr shkerstan br nbat awrdh 'ey

khstguan drbt tslym ra bhr shfa

nskhh kely qanwn njat awrdh 'ey

ay kht sbz nguaryn khdr wqty guw'eya

zankeh swday lb ab hyat awrdh 'ey

ta keshydy nyl br mah az pey dagh sbwh

cheshmh nyl az hsd dr cheshm lat awrdh 'ey

chewn rwanm bynd az dl dydh ra dr mwj khwn

guwydm dr djlh nhry az frat awrdh ay

zandhan gur keam jan tngudstan my dhy

ltf ken gur hychem az bhr zkewh awrdh 'ey

dwsh my guftm hdyth tyrh shb ba trh hat

guft khwajw baz ba ma trhat awrdh 'ey

  

8. सादी

सोमनाथ मन्दिर में सादी, मन्दिर के पुजारियों से चर्चा करते हुये, ईरान
सादी का पूरा नाम अबु-मुहम्मद मुसलिह अल-दीन मुशरिफ़ शीराज़ी था, वह आरंभिक 13वी सदी के प्रसिद्ध सूफी संतो में एक था। उसका जन्म 1210 ईसवी में ईरान के शीराज़ शहर में हुआ था। अपने जीवनकाल में अधिकतर समय सादी ने मुस्लिम दुनिया जैसे सीरिया, यमन, हेजाज़, अरब, अबीसीनिया, तुर्की, मिस्त्र, अरब, सिंध, भारत इत्यादि का भ्रमण किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने मध्य पूर्व में मुस्लिम सेना की तरफ से जिहाद भी लड़ा था और फ्रैंक क्रूसेडरों द्वारा बंदी भी बनाया गया था, बाद में उसे कुछ फिरौती के बदले छोड़ दिया गया। इन स्थानो पर उसने साधारण जनता एवं उनकी जीवन की घटनाओं से जो अनुभव प्राप्त किया था, उन्हे लघुकथाओ एवं प्रेरक प्रसंगों के रूप में कहने लगा। जब वह लौटकर वापस अपने गृहनगर शीराज़ पहुँचा तो उन लघुकथाओं को अपनी दो पुस्तकों में प्रेरक प्रसंगों के रूप में लिपिबद्ध किया, इन्हे ज्ञान की कथाए कहना अनुचित ना होगा। इन्हे बुस्तान (बाग) और गुलिस्तान (गुलाबों का उद्यान) के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा सादी ने कुछ अन्य फारसी रचनाए भी की थी, जैसे की किताब-ए-तय्यिबत इत्यादि।

बुस्तान और गुलिस्तान दोनों ही पुस्तके, भारत एवं अन्य फारसी भाषी देशो में बहुत प्रसिद्ध रही है, इस पुस्तकों की इतनी ज्यादा प्रतियाँ बनी है जितनी और किसी की नहीं होगी, पुस्तकों की घटनाओ को मध्ययुग के चित्रकारों द्वारा चित्रित भी गया है। पुस्तक के ढेर सारे संस्करण देखकर हमे इनकी प्रसिद्धि का अनुमान लग जाता है। 

एक इतिहासकार के तौर पर हमारा ध्यान सादी की पुस्तक बुस्तान के उस अध्याय में है जिसमे उसने सोमनाथ मंदिर और उसके अंधविश्वास के जरिये लोगो को नसीहत देने का प्रयास किया है। लेखन के माध्यम से यह पता चलता है की सादी भी मूर्तिपूजा से बहुत घृणा करता था   

हालाँकि सादी का जन्म महमूद गजनवी के सोमनाथ विध्वंस के लगभग 200 वर्ष पश्चात हुआ था। लेकिन तब तक भी मुस्लिम समाज के दिलो दिमाग पर सोमनाथ की बुतपरस्ती पर अल्लाह की विजय जीवित थी और मुस्लिम कवि, सूफी, लेखक, इतिहासकार इत्यादि अपने लेखो, कविताओ में बार-बार उसका उदाहरण देकर अपने पाठको को मूर्तिपूजा के झूठ के बारे में जागृत करते रहते थे। यह विचारधारा उस मूर्तिभंजक शासक गजनवी की विचारधारों से काफी समानता रखती है। और केवल सादी ही नहीं बल्कि उस समय के प्रसिद्ध सूफी कवि रूमी भी हिन्दू (काफिरो, मुशरीकों) के प्रति ऐसी ही घृणा भाव रखते थे, हालाँकि इनके लेखो को पढ़ने के पश्चात हमे ज्ञात होता है की ये लोग कट्टर इस्लामिक मत से बहुत दूर खुले विचारों वाले मुस्लिम संत थे।   

चलिये सादी की हिंदुस्तान के ऊपर कहानी पर गौर करते है(हालाँकि इस बात की बहुत संभावना है कि यह केवल काल्पनिक कहानी हो, वास्तविकता से इसका कोई संबंध नहीं हो।) 

सादी द्वारा रचित बुस्तान (रूपान्तरण ए. हार्ट. एडवर्ड्स-1911 A. HART. EDWARDS) पृ॰ संख्या० - 106, 133-135 The Bustan, chpt. 13

 

अकबर के दरबारी चित्रकार धर्मदास द्वारा चित्रित सादी और सोमनाथ का दृश्य, सौजन्य : आगा खान संग्रहालय

सोमनाथ में मैंने एक हाथी दाँत की बनी हुयी प्रतिमा को देखा, मानत (इस्लाम पूर्व अरब की देवी) की तरह इसके ऊपर भी बहुमूल्य रत्न लगे हुये थे। इससे बेहतरीन चीज़ आज तक नहीं बनी होगी। देश के सभी हिस्सों से तीर्थयात्रियों के कारवां के कारवां यहाँ आते थे। दुनिया के हर एक हिस्से से आए हुये श्रद्धालु इस निर्जीव प्रतिमा के सम्मुख भेंट चढ़ाते थे।

मैंने एक अग्निपूजक(गबरू) से पूछा कि, "सजीव लोग क्यों एक निर्जीव वस्तु की पूजा करते है?"

यह अग्निपूजक मेरी ही सराय में रुका हुआ था और मेरा मित्र बन गया था। मैंने बड़ी सौम्यता से कहा, "ऐ ब्राह्मण, मैं इस स्थान के वैभव को देख कर अचंभित हूँ, यहाँ के सभी लोग इस कमजोर मूर्ति के दीवाने है। वे सभी अंधविश्वास के कुए में कैद है। इस मूर्ति में तो इतनी भी ताकत नहीं कि अपने हाथ और पैर भी हिला सके। यदि तुम इसे नीचे फेंक दो तो यह अपने स्थान पर वापस भी नहीं आ सकती। क्या तुम्हें नहीं दिखता कि इसकी आँखें तृणमणि (Ambar, कहरुआ अम्बर) से बनी हुयी है? एक पत्थर की आँख वाली मूर्ति की भक्ति करना और दया की आस लगाना बहुत बड़ी मूर्खता है।

वह ब्राह्मण मेरी बातों से बहुत कुपित हो गया और मेरा शत्रु बन बैठा। उसने तुरन्त जाकर मूर्तिपूजकों से मेरी शिकायत कर दी और जो कुछ मैंने कहा था उन्हे बता दिया। उन लोगों को टेढ़ी सड़क सीधी लगती है और सीधे रास्ते को वे टेढ़ा देखते है। इसलिए एक व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान और चतुर क्यों ना हो, अज्ञानियों की आँखों में वह हमेशा मूर्ख ही रहेगा।

उस समय एक डूबते हुये व्यक्ति की तरह, मैं भी असहाय था। मुझे अपने बचाव का कोई मार्ग नहीं दिख रहा था। जब मूर्ख आपके प्रति द्वेष का भाव रखे तो आपकी सौम्यता और समर्पण ही आपकी रक्षा कर सकते है। इसलिए, मैंने मुख्य पुरोहित की प्रशंसा करनी शुरू कर दी, और बोला, " वयोवृद्ध (old man) ! अवेस्ता और जेन्द के पुजारी ! मैं भी आपकी इस प्रतिमा से बहुत हर्षित हूँ। इसका रूप मेरे चक्षुओ के लिए बिल्कुल अनोखा था, इसके स्वभाव से में परिचित नहीं था और मैं इस स्थान पर नया नया ही आया हूँ। एक अज्ञानी अजनबी अच्छे और बुरे को कभी-कभी पहचान नहीं पाता है। किसी की नकल करके आस्था करना अंधविश्वास है, जो कुछ भी सत्य है वह इस प्रतिमा के रूप में ही है, और मैं मूर्ति पूजकों में सबसे अग्रणी हूँ।

जब ब्राह्मण ने अपनी तारीफ सुनी तो उसका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा और बोला, " तुम्हारे प्रश्न तर्कसंगत है और तुम्हारे कर्म अच्छे है- जो भी व्यक्ति सत्य की खोज करता है वह यही आता है। लेकिन यह मूर्ति तो स्वयं ईश्वर है यह किसके सामने हाथ उठाए? अगर तुम इसका राज जानना चाहते हो तो आज की रात यही रुको, जिससे की यह रहस्य भी तुम्हें पता चल जाएगा। 

वह रात कयामत के दिन की तरह लंबी थी, अग्निपूजको ने बिना बजु किए(हाथ पैर धोये) ही पूजा की। अगली सुबह, वे लोग दुबारा मंदिर में आए, और मैं क्रोध और नींद पूरी ना होने की वजह से अस्वस्थ हो गया था। अकस्मात, मूर्ति ने अपने हाथ ऊपर उठाए, और बाद में जब सभी श्रद्धालु चले गए तो ब्राह्मण ने मेरी तरफ देखा और मुस्कुरा के बोला, " मुझे पता है कि अब तुम्हारे अन्दर किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह गया होगा, सत्यता ने अपने आप प्रमाण दे दिया, असत्य का अंधकार मिट गया।" 

उसकी इस अज्ञानता को देखकर मैं भी मगरमच्छ के आँसू बहाने लगा और बोला, " मैं अपनी बात के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।"

मेरे आँसू देखकर काफिरों का दिल पिघल गया, और वे मेरी तरफ दौड़े। वे मुझे उस हाथीदाँत की मूर्ति के हाथ के पास ले गए, जो कि एक सोने से मढ़े सागौन के सिंहासन पर विराजमान थी।

प्रतिमा के हाथों का निरीक्षण करते हुये सादी, 17वी सदी मुग़ल दरबार

मैंने उस तुच्छ ईश्वर के हाथ चूमे (अल्लाह उस मूर्ति और उसके पूजकों को नर्क मिले)। कुछ दिनों तक मैं वहाँ काफिरों की तरह रहकर ब्राह्मणों से जेन्द के विषय में चर्चा करता रहा। अंतत: जब मेरे पास उस मूर्ति की देखभाल का जिम्मा आया तो मेरे हर्ष का ठिकाना नहीं रहा मैं बड़ी मुश्किल से अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख पाया। एक रात्रि को, मैंने मंदिर का दरवाजा अन्दर से बंद कर दिया और मूर्ति के आस-पास सूराग को ढूढ़ने लगा, मुझे रत्नो और स्वर्ण से सुसज्जित एक पटल दिखा जो सिंहासन के पीछे से नीचे की तरफ था। इस पटल के पीछे मुख्य ब्राह्मण बड़ी तल्लीनता से एक रस्से का सिरा अपने हाथो में पकड़े हुये था। मुझे पता चल गया कि जब इस रस्से को खींचा जाता था तब इस प्रतिमा के हाथ ऊपर होते थे। 

सादी का यह चित्रण तैमूरी दरबार तक में प्रसिद्ध था

मुझे अपने सामने देखकर मुख्य ब्राह्मण भौचक्का रह गया और तेजी से बाहर की तरफ भागा। मैं भी उसका पीछा करने लगा और मौका मिलते ही उसे सिर के बल कुए में फेक दिया। क्योंकि मुझे मालूम था कि यदि वह जिंदा बच गया तो वह मेरी जान के पीछे पड़ जाएगा। क्योंकि जब एक बुरे व्यक्ति की पोल खुल जाती है तो, उसे जड़ से उखाड़ फेकने में ही समझदारी होती है नहीं तो वह तुम्हें खत्म करने की पूरी कोशिश करेगा।  मैं तेजी से बाहर की तरफ भागा और जल्द ही उस स्थान को छोड़ दिया। क्योंकि एक बुद्धिमान व्यक्ति को बाँस के जंगल में आग लगाते समय हमेशा शेरों से सतर्क रहना चाहिए।

इसलिए मैं जब भी सर्वज्ञानी (अल्लाह) के सामने शीश झुकाता हूँ तो मुझे उस हिंदुस्तानी कठपुतली (मूर्ति) की याद आ जाती है, यह मेरे मेरी नजरों के दम्भ को क्षण भर में धूल में मिला देती है। मुझे मालूम है कि मैं अपना हाथ ऊपर उठा सकता हूँ लेकिन यह मेरी अपनी ताकत की वजह से नहीं है। ईमान वाले व्यक्ति को लगता है कि वह अपना हाथ स्वयं ऊपर उठाता है लेकिन असल में नियति उसकी रस्सी, कहीं और अदृश्य रूप से खीच रही होती है।  

## कृपया ध्यान दीजिये अग्निपूजक, जेन्द और अवेस्ता यह सब पुराने ईरानी धर्म (जरथ्रुष्ठ) के प्रतीक है, यह बिलकुल साफ है कि सादी हिन्दू धर्म और जरथ्रुष्ठ धर्म में भ्रमित है। 13वी सदी तक इस्लाम के प्रसार की वजह से पारसी धर्म, ईरान में दम तोड़ चुका था लेकिन गुजरात के कई हिस्सो में यह अग्निपूजक पारसी धर्म अभी भी फल-फूल रहा था।     

वैसे तो यह प्रेरक प्रसंग अपने आप में प्रेरणादायी है और सर्वशक्तिमान ईश्वर की महिमा का गुणगान करता है लेकिन इस कहानी के मूल में लेखक का मंतव्य केवल इस्लाम के ईश्वर का महिमामंडन और अन्य धर्मो की पूजा पद्धतियो को झूठा बताकर अल्लाह को सच बताना है। इस कहानी से ज्ञात होता है कि लेखक हिन्दूओ और हिन्दुओ की पूजा पद्धति को दोषपूर्ण मानता है, वह हिन्दुओ को अज्ञानी एवं मूर्ख लोग समझता है जो कि वास्तविकता से पूरी तरह से अनभिज्ञ है एवं झूठे ईश्वरों की पूजा करते है। यहाँ, वह बहुत किंकिर्तव्यविमूढ़ है और यह समझ पाने में असमर्थ है कि कैसे इतने सारे हिन्दू एक निर्जीव पत्थर की मूर्ति को पूजने में लगे हुये है, जो अपनी स्वयं की रक्षा भी नहीं कर सकती। स्पष्ट शब्दों में उसका यह प्रेक्षण सत्य ही था। लेकिन जैसे कि 13वी शताब्दी की आम मुस्लिम जनता के हिन्दुओ के प्रति विचारों का विश्लेषण किया जाये तो वे काफी घृणापूर्ण ही थे।  

The Bustan, chpt. 13

“The door of the Temple I fastened one night,

Then ran like a scorpion to left and to right;

Next the platform above and below to explore

I began, till a gold-broidered curtain I saw,

And behind it a priest of the Fire-cult * did stand

With the end of a string firmly held in his hand.

As iron to David grew pliant as wax,

So to me were made patent his tricks and his tracks,

And I knew that 'twas he who was pulling the string

When the Idol its arm in the Temple did swing.

When the Brahmin beheld me, most deep was his shame,

For 'tis shame to be caught at so shabby a game.

He fled from before me, but I did pursue

And into a well him head-foremost I threw,

For I knew that, if he should effect his escape,

I should find myself soon in some perilous scrape,

And that he would most gladly use poison or steel

Lest I his nefarious deed should reveal.

 You too, should you chance to discover such trick,

Make away with the trickster: don't spare him! Be quick!

For, if you should suffer the scoundrel to live,

Be sure that to you he no quarter will give,

And that though on your threshold his head should be bowed

He will cut off your head, if the chance be allowed.

Then track not the charlatan's tortuous way,

Or else, having tracked him, smite swiftly and slay!

So I finished the rogue, notwithstanding his wails,

With stones; for dead men, as you know, tell no tales.”

 

 

9. उबैय्यद जकानी

 ख्वाजे निज़ाम अलदिन उबैय्यद अल्लाह अल-जकानी (उबैय्यद जकानी) का जन्म 1370 ई॰ में हुआ था, वे मंगोल दरबार में फारसी कवि थे। उन्हे फारसी साहित्य में सर्वप्रथम और सबसे प्रसिद्ध व्यंगकार कवि माना जाता है। उनका सबसे नामी कृति मूष-ओ-गोरबेह (चूहा और बिल्ली) है, यह एक राजनीतिक व्यंग था, जो की धर्म में व्याप्त पाखंड पर हमला करता है। ज़कानी हालांकि प्रसिद्ध तो है परन्तु इनके लेख सभ्य समाज में कम ही पढे जाते है क्यूंकी इनकी ज्यदातर रचनाओ में आपतिजनक और अश्लील भाषा का प्रयोग किया गया है।  

जकानी ने भी अमीर खुसरो की तरह सोमनाथ का प्रयोग काबा के विरुद्ध विषमता दिखने में किया है 

 شماره١٥: ما را ز شوق يار بغير التفات نيست

ما را ز شوق يار بغير التفات نيست

پرواي جان خويش و سر کاينات نيست

از پيش يار اگر نفسي دور مي شوم

هر دم که ميزنم ز حساب حيات نيست

در عاشقي خموشي و در هجر صابري

اين خود حکايتيست که در ممکنات نيست

رندي گزين که شيوه ناموس و رنگ و بو

غير از خيال باطل و جز ترهات نيست

بگذار هرچه داري و بگذر که مرد را

جز ترک توشه توشه راه نجات نيست

از خود طلب که هرچه طلب ميکني زيار

در تنگناي کعبه و در سومنات نيست

در يوزه کردم از لب دلدار بوسه اي

گفتا برو عبيد که وقت زکوة نيست


10. अमीर खुसरो

 अमीर खुसरो दहलवी के बारे में किस ने नहीं सुना होगा। भारत में अमीर खुसरो एक बहुत मशहूर नाम है। खुसरो का जन्म 1253 ईसवी में एटा जिला के पटियाली तहसील में हुआ था। इनकी मृत्यु 1325 ईसवी में दिल्ली में हुयी। अमीर खुसरो एक दरबारी कवि थे और सेना के कमांडर जैसे बड़े-बड़े पदों पर भी रहे किन्तु यह उनके स्वभाव के विरुद्ध था। अल्लाउद्दीन खिलजी के साथ लंबे सैन्य अभियानो पर वृतांत एवं इतिहास लिखने के रूप में अमीर खुसरो ने 690 हिज्री (1291 ई.) में मिफताहुल फुतूह, 711 हिज्री (1311-12 ई.) में खजाइनुल फुतूह, 715 हिज्री (1316 ई.) में देवल रानी खिज्र खाँ की प्रेम कथा, 718 हिज्री (1318-19 ई.) में नुह सिपहर, 720 हिज्री (1320 ई.) में तुगलकनामा लिखा था, इसके अलावा उन्होने साहित्य पद्य-गद्य की हर एक विधा में अपना हाथ आजमाया है, उनके साहित्यिक लेखन की सूची बहुत लम्बी है। इस विषय पर और ज्यादा आप यहाँ पढ सकते है 

खुसरों ने अपनी गजलों में सोमनाथ मन्दिर को स्थान दिया है। उसके उदाहरणों में सोमनाथ और मूर्तिपूजा को एक पाप के तौर पर दर्शाया गया है। उसका कहना है कि प्रेम में डूबे सूफी के लिए सोमनाथ या काबा दोनों एक ही है(पाप और पुण्य), इसके कुछ अंश नीचे दिये गए है। इस उदाहरणों को पढ़ने से यह ज्ञात होता हैकि 14वी शताब्दी के अंतिम वर्षो के दौरान भी, खुसरों जैसे पूर्ण भारतीय और एक हिन्दू परिवार से संबंध रखने वाले मुसलमान के ज़ेहन में भी सोमनाथ के विध्वंस की यादे ताजा थी, खुसरों की अन्य रचनाओं में उसकी हिन्दू और हिन्दू धर्म के प्रति घृणा का स्तर देखने को मिलता है, आश्चर्य नहीं कि इसलिए ही खुसरों की आशिक़ा जैसी कृतियाँ आसानी से उपलब्ध नहीं है। इस घृणा के कई कारण हो सकते है, लेकिन प्रमुख कारण सूफियों द्वारा इस्लामिक इतिहास/गाथाओं की लगभग हर पुस्तक में सोमनाथ विध्वंस का महिमामंडन करना था, और खुसरों स्वयं एक सूफी औलिया का शिष्य था।

अमीर खुसरो द्वारा रचित आशिक़ा, में लिखा है कि,

"खुशहाल हिंदुस्तान, ईमान का वैभव, जहाँ कानून (शरिया) पूरी तरह से सम्मानित और सुरक्षित है। पूरे देश से कुफ़्र को हमारे गाजियों की तलवारों ने ऐसे साफ कर दिया, जैसे किसी जंगल की आग काँटो और झाड़ियों को साफ कर देती है। इस भूमि को (इस्लामिक) तलवार के जल से आच्छादित कर दिया गया और कुफ़्र भाप बन कर छितर गया। हिन्द के शक्तिशाली लोगो को पैर तले रौंद दिया गया, और बाकी बचे सभी कर देने को राज़ी हो गए है। इस्लाम विजयी हुआ, मूर्तिपूजा को कुचल दिया गया। यदि शरिया कानून में जज़िया कर देने वाले को मौत की सजा से माफी का प्रावधान नहीं होता तो अभी तक "हिन्द" (हिन्दू) नाम को जड़ एवं शाख सहित उखाड़ कर फ़ेक दिया गया होता। (संदर्भ)

 सोमनाथ के सफल अभियान का वर्णन करते हुये अपनी पुस्तक खजाईनुल-फ़ुतूह में अमीर खुसरो कहते है,

"तो इस प्रकार सोमनाथ मंदिर को पवित्र मक्का की तरफ झुका दिया गया। और मंदिर ने अपना सिर मक्का की तरफ झुका कर, समुद्र में गोता लगा दिया। आप ऐसा कह सकते हैकि इस इमारत ने सबसे पहले प्रार्थना की फिर स्नान करने चली गयी। अब्राहम (इस्लामिक) की परम्परा के अनुसार मूर्तियों को टुकड़ो में तोड़ा गया, लेकिन एक बुत जो उनमे सबसे बड़ा था। मालिकों द्वारा दिल्ली के शाही दरबार मे भेजा गया, जिससे कि उनके असहाय देवता को मूर्तिपूजक हिन्दुओ को दिखाया जा सके।"

 अब्राहम : इस्लामिक परम्परा में अब्राहम या इब्राहीम को पहला पैगम्बर माना जाता है। 

अमीर खुसरो दीवान 

  اي دهانت، چشمه آب حيات

 تا کدامين باد آرد سوي مات

هر که بي تو زنده ماند مرده به

جز وصالت نيست مقصود از حيات

گر نديدي سبزه اي بر آب خضر

گرد آن شکر ببين رسته نبات

بت پرستان گر ز تو آگه شوند

ياد نارند از بتان سومنات

از شراب شب نشينان در خمار

هات کأسا يا حبيبي بالغدات

همچو ذره در هواي مهر تو

نيست خسرو را دمي صبر و ثبات

 

 هر که در پيش چشم روشن ماست

هر که در پيش چشم روشن ماست

گوييا آفت دل و تن ماست

چشم ما گر نمي شود، ماناک

آن همان آفتاب روشن ماست

لاله ها مي دمد ز خون دو چشم

گرد من آن بهار و گلشن ماست

غمزه زن جان من و گر ميرم

غم مخور خون ما به گردن ماست

ما چو هندوي سومنات به عشق

بت پرستيم و دل برهمن ماست

گفتم از مهر سوخت خسرو، گفت

چند ازين ذره ها به روزن ماست

 

 به فرق تاج زمرد برآر چون طاووس

درآ به جلوه که طاووس هندي، اى عجمى

برون کشم رگ جان، بهر چه کشم بارش

ز عشق تو که نه از لات سومنات کمى

دريغ نيست که سوزند هندوان خود را

ز دوستيست که چون سومنات محترمى

نموده مى شود آفاق، در صفاى تنت

تو آبگينه هنرى نه اى که جام جمى

سياه تخته هندو بود سفيد رخم

تو از سياهى هند ز سفيديى رقمى

چو گشت خسرو جادو زبون غمزه تو

به خواب بستنش افسون هنديى چه دمي؟

  

11. कासिम उल अनवर (प्रकाश को वितरित करने वाला) 

कासिम उल अनवर का जन्म सरब तबरीज़ में 1356 ईसवी में हुआ था। ये आरंभ से ही शेख़ सदरुद्दीन अर्दबिल के प्रभाव में सूफीवाद का अभ्यास करते रहे और उनकी मृत्यु के पश्चात खुरासान के मंगोल शासकों तैमूरलंग और शाहरुख के दौर में हेरात (अफगानिस्तान) में बस गए। और 1433-34 में इनकी मृत्यु जाम राज्य के खरीजिद शहर में हुयी। हालाँकि, अनवर की प्रसिद्धि किसी कवि के तौर पर ज्यादा नहीं है, इन्हे सूफी संत के तौर पर ज्यादा जाना जाता है। कासिम-उल-अनवर के मसनवी सूफी रहस्यवाद से प्रेरित है। इन्होने तुर्की भाषा और फारसी दोनों में रचनाए की है, इन्होने भी सोमनाथ का प्रयोग अपनी इस गजल में किया है।  

पहले कभी सुनसान कमरा बनाया गया था, या सोमनाथ का प्राचीन मन्दिर

हम जीवन के हर चरण में तुम्हारे साथ रहे थे

तुम्हारे और मेरे बीच रसूल और उसके ज्ञान की बाते महत्वहीन थी।

रसूल की जरूरत ही क्या जब तुम हमेशा मेरे पास हो?

 

12. मीर तकी मीर 

मीर तकी मीर 18वी सदी के प्रसिद्ध उर्दू शायर थे, आपका जन्म 1725 में आगरा शहर में हुआ था। मीर के दादा हेजाज़, ईरान से भारत में आकर बस गए थे। मीर अपने समय में पहले दिल्ली मुग़ल दरबार फिर अवध के नवाब के यहाँ कवि रहे थे, इन्होने काफ़ी रचनाए लिखी है मुख्यत: उर्दू में गजलों और शायरी का प्रचलन मीर तकी मीर ने ही आरंभ किया था। इनकी कुछ कृतियाँ फैज-ए-मीर, ज़िक्र-ए-मीर, नुकत-उस-शुरा, कुल्लीयत-ए-फारसी इत्यादि है। मीर की मृत्यु 1810 ई॰ में लखनऊ शहर में हुयी। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि मीर ने भी अपनी एक शायरी में सोमनाथ का ज़िक्र किया है। 18वी सदी के एक शायर द्वारा सोमनाथ का नाम लेना इस बात का द्योतक है कि मुस्लिम दिमाग में कहीं न कहीं सोमनाथ विध्वंस की यादे 700 वर्षो बाद भी विस्मृत नहीं हुयी थी, बल्कि साहित्य पढ़ने और सुनने वालो में चर्चित थी। अनुमान लगाया जा सकता है कि इन फारसी, उर्दू साहित्यों के द्वारा सोमनाथ विध्वंस की गाथा हिन्दू समाजों के बीच भी पहुंची होगी और इतिहास में हिन्दु धर्म की इस्लाम के द्वारा पराजय के तौर पर प्रचारित की जाती होगी । 

पाठको को यह समझने की अवश्यकता है कि क्यो सोमनाथ मंदिर विध्वंस की गूँज घटना के 700 वर्षो बाद भी मुस्लिम मानसिकता में उपस्थित थी। जैसा की आपने गौर किया होगा, लगभग सभी मुस्लिम कवियों के वर्णन में सोमनाथ को बुराई (पाप, अँधेरे, अज्ञानता) का प्रतीक के तौर पर ही दिखाया गया है, फिर भले ही कवि को इसके प्रति हमदर्दी हो या न हो उर्दू मे उनकी इस शायरी में सोमनाथ का ज़िक्र है, यहाँ उन्होने हमारे मार्क्सवादी मित्रो की दलील के इतर इस छन्द में 18वी सदी के हिन्दू-मुस्लिमों के बीच गहरी खाई को पाटने का कोई प्रयास नहीं किया गया है, बल्कि सोमनाथ से कवि का आशय बिल्कुल ही अलग है।  

اُس کے فروغِ حسن سے جهمکے ہے سب ميں نور

شمِ حرم ہو يا دِيا سومناته کا

مير تکی مير- 

उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से चमके है सब में नूर

शम-ए-हरम (काबा) हो या हो दिया सोमनाथ का

 उसकी रोशनी से सभी जगह उजाला होता है,

फिर चाहे काबा का दिया हो या सोमनाथ का

-मीर तक़ी मीर

 मीर तकी मीर, लोगों को समझाने का प्रयत्न कर रहे है कि अच्छाई और बुराई दोनों ही ईश्वर प्रदत्त है। कुछ पाठकों को इस अनुवाद पर आपत्ति हो सकती है, उनके अनुसार यह छन्द हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल है। लेकिन मेरा आग्रह है कि वे लोग कृपया सूफ़ीवाद की परम्परा पर ध्यान दे तो पता चलेगा कि सोमनाथ का प्रयोग अँधेरे, बुराई, अज्ञानता के अर्थ में ही प्रयोग होता आया है। इसका संबंध किसी भी तरह से हिन्दू - मुस्लिम एकता से नहीं है। 

 

13. आधुनिक काल में सोमनाथ पर शायरियाँ (उर्दू)

1

ऐ गम-ए-हिज्र रात कितनी है

और तेरी हयात कितनी है

सांस पर है मदार हस्ती का

काएनात-ए-हयात कितनी है

उस के मोतियों से ये पूछो

आबरू-ए-हयात कितनी है

पूछता हूँ किसी से अपना पता

बे-खबर मेरी ज़ात कितनी है

क्यूँ हरम ही के हो रहे वाएज़

वुसैयत-ए-काएनात कितनी है

दीदा-ए-ब्राहमन से देख ऐ शैख ( ब्राह्मण के नजरिये से देखो ए शैख)

अजमत-ए-सोमनात कितनी है(सोमनाथ की महानता कितनी है)

 इस शायरी में फिर सोमनाथ का प्रयोग नकारात्मक रूप से अंधेरे या बुराई का लिए हुआ है। कवि ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि भले ही मुस्लिम दुनिया सोमनाथ को कितना ही बुराई का प्रतीक माने, लेकिन एक ब्राह्मण की नज़र में सोमनाथ ही महान है।

 

2

मंसूर फैज

कुछ नहीं कह रही ये रात मुझे

दर्द से चाहिए निजात मुझे

जाने लगता है ऐसा क्यूँ मुझको

फिर गिराना है सोमनाथ मुझे

बे-नियाजी की इस बुलंदी पर (बेवफ़ाई की इस बुलंदी पर)

कुछ नहीं कहते सानेहात मुझे (कुछ नहीं कहते त्रासदी के हालात मुझे)

जब निकलता हूँ दायरे से कभी

खींच लेती है कायनात मुझे

यह जहाँ मैं संवार जाऊँगा

रास आयेई अगर हयात मुझे

सब तगय्युर है जब हक़ीक़त में

किसे मुमकिन की हो सबात मुझे

मिल गयी तो मैं दिन बनाऊँगा

रौशनी से भरी दवात मुझे

चलते फिरते हुए उजाले में

ढूंढ लेती है रोज रात मुझे

3

अल्लामा इक़बाल - साकीनामा - बाल-ए-जिबरिल


मगर दिल अभी तक है जुन्नार-पोश

तमद्दुन तसव्वुफ़ शरीअत-ए-कलाम

बुतान-ए-अजाम के पुजारी तमाम

हक़ीक़त खुराफात में खो गई

ये उम्मत रिवायत में खो गई

लुभाता है दिल को कलाम-ए-खातिब

मगर इज्ज़त-ए-शौक़ से बे-नसीब

...................................................................

..................................................................

..................................................................

ये आलम ये बुतखाना-ए-शश-जिहात (यह दुनिया, यह छहों दिशाओ का मन्दिर)

इसी ने तराशा है ये सोमनाथ (सोमनाथ इसी की कृति है)

पसंद इस को तकरार की खु नहीं (विवाद की आदत पसंद नहीं)

की तू मैं नहीं और मैं तू नहीं

मन ओ तू से है अंजुमन-आफ़रीन

मगर आइन-ए-महफ़िल मेन खलवत-नशीन

........................................................

........................................................

की हो जिस से हर सजदा तुझ पर हराम (जो हर एक तरीके हराम बना देता है)

ये आलम ये हँगामा-ए-रंग-ओ-सौत (यह दुनिया, यह रंग और आवाज़ का हँगामा)

ये आलम की है ज़ेर-ए-फरमान-ए-मौत (यह दुनिया, मौत का फरमान है)

ये आलम ये बुत-खाना-ए-चश्म-ओ-गोश (यह दुनिया, यह बुतखाना (मन्दिर) देखने और सुनने का है)

जहां ज़िंदगी है फकत खुर्द ओ नोश (जहाँ जिंदगी केवल खाने और पीने की है)

ख़ुदी की ये है मंज़िल-ए-अव्वलीन (यह कुछ नहीं है, बल्कि अपनी मंज़िलो की तरफ पहला कदम है)

मुसाफ़िर ये तेरा नशेमन नहीं (मुसाफिर, यह तेरा लक्ष्य नहीं है।)

 

यहाँ भी बुतखाना और सोमनाथ से तात्पर्य सांसारिक बुराइयों और आदतों से है।

  

4

अल्लामा इक़बाल - ज़ौक़ ओ शौक सोमनाथ

क्या खबर इस मुकाम से गुजरे है कितने कारवां

आए सदा-ए-जिबराइल तेरा मुकाम है यही

अहल-ए-फिराक के लिए ऐश-ए-दवाम है यही

किस से कहूँ की ज़हर है मेरे लिए मै-ए-हयात

कोहना है बज़-ए-कायनात ताज़ा है मेरे वारदात

क्या नहीं और गजनवी कारगाह-ए-हयात में

बैठे हैकब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ

ज़िक्र-ए-अरब के सोज़ में, फिक्र-ए-अजाम के साज में

ने अरबी मुशाहीदात, ने आज़मी तखैय्युलात

काफिला-ए-हिजाज़ में एक हुसैन भी नहीं

गर्चे है ताब-दार अभी गेसू-ए-दजला-ओ-फुरात

अक़ल ओ दिल ओ निगाह का मुरशिद-ए-अव्वलीन है इश्क़

इश्क़ न हो तो शर-ओ-दीन बुतकदा-ए-तसव्वुरात

सिद्क़-ए-खालील भी है इश्क़ सब्र-ए-हुसैन भी है इश्क़

मयरका-ए-वजूद में बद्र ओ हुनैन भी है इश्क़

आया-ए-काएनात का मायने-ए-देर-याब तू

  अल्लामा इकबाल मेरी नबा एक शौक से सोमनाथ 


 सोमनाथ को फ़ारसी, उर्दू कविताओ में बुराई की पराकाष्ठा दिखाने वाले अल्लामा इकबालने गलती से ऐसे ही इशारे काबा की तरफ कर दिये थे जिससे उनके खिलाफ फतवे जारी हो गए थे  

 5

किसे दिमाग़ की उलझे तिलिस्म-ए-ज़ात के साथ अताउर्राहमान क़ाज़ी

 गम-ए-वजूद जुदा हैगम-ए-हयात के साथ

वही हरम है वही बुत वही पुजारी है

वही दिलों का ताल्लुक है सोमनाथ के साथ

बिखर बिखर गया इक मौज-ए-रायेगान की तरह

किसी की जीत का नशा किसी की मात के साथ

ख़िज़ाँ की शाल में लिपटे शजर पे परवाने

नुमू के गीत लिखे रंग-ए-मुमकिनात के साथ

 6

समझ में आए तो दिल के मुआमलात समझ

ये चलते-फिरते हुए बुत हैआदमी तो नहीं

ज़मीन पे चार-सु बरपा है सोमनाथ समझ

इक एक लफ्ज अलामत है हुस्न-ए-फितरत की

ये शायरी है सो इस की जमालियात समझ

रुके हुये भी सफर कर रही है खाक मिरी

मेरे विचार से पाठकों को समझ आ गया होगा कि एक मुस्लिम के लिए सोमनाथ विध्वंस की क्या अहमियत है। जैसा कि मैंने लेख के आरंभ में ही कहा था कि सोमनाथ, इस्लाम की बुलन्दियो और विजय गाथाओ की जीती जागती मिसाल है, और विश्वास मानिए भविष्य मे भी यह मुस्लिमों को एक और मूर्ति भंजन के लिए प्रेरणा देता रहेगी। ऐसी घटनाए भविष्य में भी दोहराये जाने की प्रबल संभावना है। यहाँ हिन्दुओं को दूरदर्शी होने की अवश्यकता है। आगे बस इतना ही कहूँगा कि बुद्धिमान व्यक्ति दूसरों की गलती से सीखता है, साधारण व्यक्ति अपनी गलती से सबक लेकर सुधरने की कोशिश करता है और मूर्ख कभी गलती कर-कर के भी सुधरने की चेष्टा नहीं करता।

ख़ैर जब मुस्लिमों ने अनगिनत कसीदे अपने सुल्तान की शान और बुतशिकनी पर लिखे है तो कुछ काल्पनिक लेख हिन्दू लेखकों और कवियों ने देशवासियों में साहस भरने के लिए लिखे है ऐसी ही एक गोगा बाबा की कथा का वर्णन यहाँ दिया है। 



सोमनाथ पर मुस्लिम यात्रियों/ इतिहासकारों के वृतांत

 1 जमी-अल-तवारीख

जमी-अल-तवारीख की रचना राशिदुद्दीन हमादानी (1247-1318 ईसवी) ने 1310 ईसवी में की थी। वे इल्खान दरबार में प्रधान मंत्री थे, इस पुस्तक की रचना उनके निर्देशन में कई विद्वानो के समूह द्वारा पूर्ण करवाई गयी। पुस्तक 3 खण्डो में अरबी और फारसी दोनों संस्करणों में मिलती है। पुस्तक में सोमनाथ के विषय में भी कुछ जानकारी दी गयी है। The History of India, Volume 1, pg 67

लोग मूर्तिपूजक है, और उनका अपना एक राजा भी है। सोमनाथ, जो की इस स्थान की मूर्ति का नाम है, उसका एक मंदिर है और पूरे हिन्द के कोने कोने से हिन्दू लोग यहाँ पूजा के लिए आते है, हिन्दू मूर्तिपूजक बहुत दूर-दूर से यहाँ आते है। भ्रमपाश में बंधे हुये, कई अपनी प्रतिज्ञा पूरा करने के लिए आते है, कई अपने अंतिम समय में भूमि पर घिसट-घिसट कर आते है, कुछ अपने पैर के पंजो के बल चल कर आते है और कभी भी अपने पैर के तलुवे जमीन पर नहीं रखते है, कुछ लोग मंदिर तक हाथ के बल चलकर आते है। 

2 मार्कोपोलो की यात्रा - हेनरी यूले

मार्कोपोलो 1300 ईसवी में इस सोमनाथ से गुजारा था। इस समय तक गुजरात पर एक बार खिलजी सुल्तानों का हमला हो चुका था और मुस्लिम सेना अभी अनहिलवाड़ा पत्तन तक ही आई थी। हालाँकि मार्कोपोलो के जाने के 10-15 वर्षो में ही खिलजी का दूसरा हमला होता है और इस बार सोमनाथ मंदिर का विध्वंस करके उसके स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया जाता है।

अध्याय 29 : सेमेनात (सोमनाथ) राज्य के संबंध में

 सेमेनात पश्चिम की तरफ एक विशाल साम्राज्य है। यहाँ के निवासी मूर्तिपूजक है और उनका एक राजा भी है। उनकी अपनी भाषा है और वे किसी अन्य राज्य के आधीन नहीं है। वे कृषक नहीं हैऔर आजीविका के लिए व्यापार एवं उद्योगों पर निर्भर है। यह एक प्रमुख व्यापारिक स्थान है। वे वास्तव में निर्दयी मूर्तिपूजक है। निर्दयी मूर्तिपूजक - इसके कई अर्थ निकाले जा सकते है, हो सकता है कि उस समय सोमनाथ में बलि देने का भी प्रचलन हो। 

3 जैन-उल अखबार (इतिहास के जवाहरात काल :1050-52 ईसवी )

अबु सैयद अब्दुल हय्या इब्न अल-दहहाक इब्न महमूद गर्दिजी (उर्फ़ गर्दिजी या गुर्दिजी), गजनवी दरबार में एक इतिहासकार थे। गर्दिजी फारसी भाषा के पहले इतिहासकारो में से एक है। इनका जन्म गरदीज़ शहर, जाबूलिस्तान में हुआ था और महमूद गजनी के समय में शाही दरबार से इतिहासकार के तौर पर जुड़े । अन्य समकालीन इतिहासकारों की भाँति गर्दिजी ने भी मुहम्मद के भारतीय अभियानों में शिरकत की थी और उस समूह में सबसे युवा इतिहासकारो में एक होंगे, भारत के बारे में काफी जानकारी इन्होने अबू रेहान अल बिरुनी से भी जुटाई है।

इन्होने जैन-उल अखबार (इतिहास के जवाहरात काल :1050-52 ईसवी ) नाम से एक पुस्तक की रचना की थी। इस पुस्तक में इस्लाम पूर्व ईरान, मुहम्मद और खलीफ़ाओ, खुरसान इत्यादि का 1032 ई० तक का इतिहास दिया गया है।

 गर्दिजी ने सोमनाथ मंदिर के विध्वंस का वर्णन निम्न प्रकार से दिया है।

 "अमीर महमूद (अल्लाह उस पर कृपा बनाए रखे, रहमतउल्लाह आलेह), बल्ख से गजनी आए और गर्मियों वही बिताई, और जब सर्दियाँ आईं, तो अपनी रीति और आदत के अनुसार, वे बगदाद से भारत गए, और उन्हें बताया गया कि समुद्र के तट पर स्थित एक महान शहर है, इसे सुमनात (सोमनाथ) कहा जाता है, और यह शहर हिंदूओ के लिए पवित्रतम शहर है जैसा मक्का मुसलमानों के लिए है। यहाँ सोने और चाँदी से भरी मूर्ति है। ऐसा कहा जाता हैकि यह मनात की मूर्ति है जो कि पैगंबर (अल्लाह का शांति और आशीर्वाद उन पर हो) के भय से मूर्तिपूजक, काबा से अदन ले गए, और उन्होंने यहाँ इसका आकार बढ़ा लिया है। इस बुतख़ाने (मंदिर) में रत्नो का भंडार हैऔर यहाँ बहुमूल्य रत्नो का एक विशाल खजाना है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने का मार्ग खतरनाक, भयानक और बहुत दर्दनाक है।

जब आमिर महमूद (अल्लाह उस पर कृपा बनाए रखे) ने यह खबर सुनी, उसने उस शहर पर हमला करने, उस मूर्ति को अपमानित करने और उसे जीतने के लिए तैयारी करनी आरंभ कर दी। वह नहरवाला (अनहिलवाड़ा पत्तन) के रास्ते सुमनात (सोमनाथ) के लिए भारत के अभियान पर चल पड़ा, और जब वह नहरवाला शहर में पहुंचा तो वहां लोगो ने शहर खाली कर दिया और सभी निवासी भाग गए। उसने सेना को वहाँ रसद लेने की इजाजत दी, और वहाँ से वह सोमनाथ के लिए निकला और जब वह शहर के समीप आया, और जैसे ही शमण (जैन श्रावक) और ब्राह्मणों ने उसे देखा, सभी ने मूर्तियों की पूजा आरंभ कर दी, उस शहर का शासक शहर से बाहर भाग गया, और वह अपने परिवार और बच्चों के साथ जहाज पर सवार होकर समुद्र में चला गया, और एक द्वीप पर उतर गया। वे उस द्वीप को तब तक छोड़कर वापस नहीं आये जब तक इस्लाम की सेना ने उस भूमि (सोमनाथ) को नहीं छोड़ा। जब इस्लाम का लश्कर शहर के नजदीक आया, तो वहाँ के लोगों ने नगर की प्राचीर से मोर्चाबंदी कर ली और युद्ध के मैदान डट गए। यहाँ की प्राचीर को बन हुये ज्यादा समय नहीं बीता था, अमीर महमूद की सेना ने उसे ढहा दिया और जितना संभव हो सके उतने लोगो का कत्ल कर दिया, बहुत सारे काफिर मारे गए। अमीर महमूद(अल्लाह उस पर कृपा बनाए रखे) के हुक्म पर सैनिक, जब तक मुअज्जिन ने खड़े होकर अल्लाह की नमाज़ के लिए आवाज़ नहीं लगाई तब तक, उन सभी मूर्ति को तोड़ते रहे और फिर उन्हे जला कर चूना बना दिया। उन्होंने मनात (अरबी देवी) की पत्थर की प्रतिमा को उखाड़ कर उसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया, और उस में से कुछ को घोड़ागाड़ी पर रख दिया, और उसे गजनी में ले आए, अन्त में उसे गजनी की मस्जिद में फेंक दिया गया। इस मूर्ति के नीचे खजाना निकला था, उसने खजाना ले लिया। चाहे वह किसी लूट में मिला माल हो, या बुत के गहने या किसी अन्य खजाने से प्राप्त मूर्ति हो उससे अमीर की किस्मत बन गई, और वह वहाँ से लौट आया। इसका कारण यह था कि बहिम (भीम?) नाम का दानव, जो हिन्दूओ का राजा था, वहां था, और अमीर महमूद ने कहा: "इस महान विजय को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।" वह लौट कर सही रास्ते से नहीं आया, बल्कि मन्सुरा और जेहुन तट के रास्ते से होता हुआ आया, इसका असर हमारी सेना पर पड़ा और इस रास्ते पर सेना के लोगों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा, फिर चाहे वह रेगिस्तान के भीषण सूखे से हो, या सिंध की गर्मी से, और किसी भी तरह से, इस्लाम की सेना के कई लोग रास्ते में बीमार हो गए और अपने देश (मूल्तान) तक पहुँचते-पहुँचते, अधिकांश योद्धा खत्म हो चुके थे, और वहाँ से उन्होंने गजनी की राह पकड़ी।"

 

4 कमीलुत तवारीख या कमिल-उत-तवारीख

इब्न असीर द्वारा लिखित "कमीलुत तवारीख" के अनुसार, इब्न असीर का पूरा नाम अबू अल-हसन अली इब्न मुहम्मद अश-शयबानी था, उसे इब्न अल-असीर अल-जजारी के नाम से भी जाना जाता था। वह अरबी या कुर्दिश मूल का व्यक्ति था और 1160 से 1232 ई० तक इराक के मोसुल और बगदाद में एक विद्वान के तौर पर रहा, उसने कई पुस्तकों की रचना की हैजिसमे 11 खण्डो में उपलब्ध सम्पूर्ण इतिहास (कमीतुल-तारीख) नामक पुस्तक प्रसिद्ध है, जिसमे उसने उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेज़ो एवं शाही पत्राचारों से इस्लामिक इतिहास संकलित किया, इस पुस्तक में गजनवी सुल्तानों का इतिहास भी है। सोमनाथ मंदिर का वर्णन निम्न प्रकार से है। The History of India, Volume 2, chpt. 115

The History of India, Volume 2, pg 249

हिजरी 414 (1022-23 ईसवी) में महमूद ने हिंद में कई किलों और शहरों पर कब्जा कर लिया, और उन्होंने सोमनाथ नामक मूर्ति को भी ले लिया। यह मूर्ति हिंद की सभी मूर्तियों में सबसे महान थी। ग्रहण वाली रात को, हिंदू, इस मंदिर की तीर्थयात्रा पर जाते थे, और वहाँ एक लाख की संख्या में लोग एकत्र होते थे। उनका मानना था कि शरीर से अलग होने के बाद व्यक्तियों की आत्माएं, उनके पुनर्जन्म सिद्धांत के अनुसार यहाँ मिलती थीं, और यह कि ज्वार और भाटा का प्रवाह समुद्र द्वारा अपनी सम्पूर्ण शृधा से मूर्ति को समर्पित पूजा थी। सबसे कीमती वस्तुओ को वहाँ अर्पण करने के लिए लाया जाता था;”

 

सोमनाथ का बुत जो हवा में उड़ता था

इसके परिचारक इन सबसे मूल्यवान उपहार स्वीकार करते थे। 10,000 से अधिक गांवों का राजस्व इस मंदिर को प्राप्त होता था। मंदिर में सबसे उत्तम गुणवत्ता के अमूल्य रत्न, मणि, स्वर्ण आभूषण थे। भारत के लोगों के पास गंगा नामक एक महान नदी है, जिसे वे सर्वोच्च सम्मान देते है, और जिसमें वे अपने महापुरुषों की अस्थियां डालते है, इस विश्वास में कि मृतक इस तरह स्वर्ग के प्रवेश को आरक्षित करेगा। इस नदी और सोमनाथ के बीच लगभग 200 पारसंग (950 किमी) की दूरी है, लेकिन प्रतिदिन वहां से जल लाया जाता था, जिसके साथ इस मूर्ति को धोया जाता था। मूर्ति की पूजा करने के लिए, और आगंतुकों का प्रबन्ध करने के लिए हर दिन एक हजार ब्राह्मण उपस्थित होते थे। तीर्थयात्रियों के सिर और दाढ़ी मुंडवाने में तीन सौ नाईयो को लगाया गया था। तीन सौ पचास व्यक्ति मंदिर के द्वार पर संगीत गान और नृत्य किया करते थे। इनमें से हर एक को मंदिर की तरफ से रोजाना एक तयशुदा भत्ता मिलता था। जब महमूद भारत में जीत हासिल कर रहा था और अन्य स्थानो पर मूर्तियों को ध्वस्त कर रहा था, तो हिंदुओं ने कहा कि सोमनाथ इन प्रतिमाओ से नाराज थे, और अगर वे इनसे संतुष्ट होते तो उन मूर्तियों को कोई भी नष्ट या छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता था। जब महमूद ने यह सुना तो उसने सोमनाथ प्रतिमा को नष्ट करने के लिए एक अभियान करने का संकल्प लिया, इस विश्वास से कि जब हिंदु (ईश्वरों से) अपनी प्रार्थनाओं और विनतियों को व्यर्थ और झूठा होते देखेंगे, तो वे इस्लाम को गले लगा लेंगे। 

इसलिए उन्होंने सहायता के लिए सर्वशक्तिमान (अल्लाह) से प्रार्थना की, और 10 शाबान, हिजरी 414 (28 अक्टूबर 1023) को ग़ज़नी से गाजीयों (इस्लाम के नाम पर बिना वेतन के स्वेछा से लड़ने वाले योद्धा) के अलावा 30,000 घोड़ों के साथ मुल्तान जाने के वाले मार्ग पर निकल पड़े, इस स्थान पर वह रमज़ान के मध्य में पहुँचे। भारत के लिए आगे का मार्ग एक बंजर रेगिस्तान के मध्य से होकर जाता था, जहां न तो निवासी थे और न ही भोजन, इसलिए उन्होंने मार्ग के लिए प्रावधान एकत्र किए, और 30,000 ऊंटों को पानी और मक्के के साथ लादा उन्होंने अन्हिलवाड़ा के लिए यात्रा शुरू की और रेगिस्तान पार करने के बाद, उसने मार्ग के एक तरफ लोगों से भरे किले को देखा, जहाँ पर जल के कई कुएँ थे, अत: उसने कुओ पर कब्जा कर लिया। किले के लोग उसे मनाने के लिए नीचे आए, लेकिन उसने युद्ध करना बेहतर समझा, और अल्लाह ने उसे विजय दिला दी, क्योंकि भय की वजह से निवासियों के दिल पहले ही सहम गए थे। वह इस स्थान को इस्लाम की जद में ले आया, यहाँ के निवासियों को मार डाला, और उनकी प्रतिमाओ को विखंडित कर दिया। सुल्तान के लोगों ने उन कुओं से पानी निकाला और अन्हिलवाड़ा के लिए प्रस्थान किया, जहां वे धूल-कादा (एक हिजरी माह) की शुरुआत में पहुंच गए।

 अन्हलवाड़ा के प्रमुख, जिन्हें भीम कहा जाता है, जल्दबाजी में अपने शहर को छोड़कर, सुरक्षा के लिए एक किले में चले गए और वहाँ खुद को युद्ध के लिए तैयार करने लगे। यमीन-उद-दौला (महमूद गजनी) ने यहाँ से सोमनाथ के लिए फिर से शुरुआत की, और अपने कूच में वह कई किलों से होता हुआ आया, जिसमें कई प्रतिमाए थी, जो कि सोमनाथ के प्रतीक या रूप में स्थापित थी, महमूद ने इन्हे शैतान का रूप बताया। उसने इन स्थानों के निवासियों को मार डाला, एवं किले को नष्ट कर दिया, मूर्तियों के टुकड़े कर दिए, और एक रेगिस्तान के माध्यम से, सोमनाथ तक अपना प्रयाण जारी रखा । मार्ग में वह 20,000 लड़ाकू योद्धाओ वाले देश से होकर गुजरा की, जिसके प्रमुख ने सुल्तान की आधीनता स्वीकार नहीं की। इसलिए सुल्तान ने उनके खिलाफ अपनी कुछ सेना भेजीं, जिसने उन लोगो को हरा दिया, और भागने के लिए मजबूर कर दिया, उनकी संपत्ति लूट ली गयी। यहाँ से उन्होंने दबलवाड़ा (देलवाड़ा, उना) तक चढ़ाई की, जो सोमनाथ से दो दिनों की दूरी पर है। इस जगह के लोगों की आस्था पूरी तरह से अडिग थी, वे मानते थे कि सोमनाथ उनके ऊपर होने वाले हमले को रद्द कर देंगे और आक्रमणकारियों को वापस खदेड़ देंगे; लेकिन महमूद ने यह स्थान कब्जा लिया, यहाँ के निवासियों को मौत की नींद सुला दिया, और उनकी संपत्ति को लूट लिया। फिर अपने गंतव्य सोमनाथ को अग्रसर हुआ। 

वह गुरुवार को धूल-कादा माह के बीच में सोमनाथ पहुंचा, और वहां उसने समुद्र के किनारे पर बने एक मजबूत किले को निहारा, जिसकी प्राचीरों से समुद्री लहरे टकरा रही थी। किले के लोग दीवारों पर खड़े होकर, आत्मविश्वास से लबरेज मुसलमानों पर हँस रहे थे, और कह रहे थे कि उनके ईश्वर मुसलमानों के आखिरी आदमी तक को काट देंगे, और सभी को नष्ट कर देंगे। अगले दिन जो कि शुक्रवार था, मुस्लिम हमलावरों ने किले की दीवारों पर धावा बोला, और जब हिंदुओं ने मुहम्मदनों को आगे बढ़ते हुये देखा, तो वे सबसे पहले अपने मोर्चो और दीवारों को छोड़ कर भाग खड़े हुये।  मुसलमानों ने दीवारों पर अपनी सीढ़ीयाँ लगाई और शिखर पर चढ़ कर कब्जा कर लिया। फिर उन्होंने अपने इस्लामिक युद्धघोष (अल्लाह-हु-अकबर, फी-सबीलिल्लाह) के साथ अपनी सफलता की घोषणा की, और इस्लाम की ताक़त (कुब्बत) का प्रदर्शन किया। फिर एक भयंकर नरसंहार हुआ, और युद्ध बहुत भीषण स्थिति में पहुँच गया। हिन्दुओं का एक समूह सोमनाथ की तरफ भागा और उसके सामने जमीन पर नतमस्तक होकर, उन्हे जीत दिलाने के लिए प्रार्थना करने लगे। रात होने पर युद्ध स्थगित कर दिया गया और सभी लोग अपने शिविरों में लौट गए।  

अगली सुबह, मुहम्मदनों ने लड़ाई को नए सिरे से शुरू किया, और हिन्दुओ के बीच अधिक से अधिक तबाही मचाई, जब तक कि उन्हें पूरे शहर से केवल सोमनाथ के मंदिर तक नहीं समेट दिया गया। मंदिर के द्वार पर एक भयानक नरसंहार हुआ। हिन्दू रक्षकों की टोली की टोलियाँ एक के बाद एक सोमनाथ मंदिर में प्रवेश करती और अपने हाथों को एक दूसरे के गले में हाथ डालकर रोते और भावुक होकर उस (प्रतिमा) से लिपट जाते एवं प्रार्थना करते। और फिर दोबारा लड़ने के लिए आगे बढ़ते और तब तक लड़ते रहते जब तक कि वे मारे नहीं जाते, लेकिन इनमे से कुछ को जीवित छोड़ दिया गया। जिन्होने नावों से समुद्र के रास्ते भागने की कोशिश की, लेकिन मुसलमानों ने उन्हें बीच में पकड़ लिया और कुछ मारे गए और कुछ डूब गए।

यह सोचने की बात है कि सिकंदर से लेकर अकबर तक, भारतीयो को हमेशा नग्न, आदिकालीन ही क्यो प्रदर्शित किया गया? क्या सच में भारतीय नग्न और अर्द्धसभ्यों की भाँति रहते थे? आखिर सोने की चिड़िया क्या था?

सोमनाथ का यह मंदिर सीसे (पिघले) से जोड़े गए सागौन की लकड़ी के छप्पन खंभों पर स्थापित किया गया था। मूर्ति स्वयं एक अलग कक्ष में थी; इसकी ऊँचाई पाँच हाथ और चौड़ाई तीन हाथ थी। एक हिस्सा दिखाई देता था, लेकिन इस मूर्ति का बाकी हिस्सा दो हाथ जमीन के अंदर था (छिपा हुआ)। इसको देखकर मूर्ति होने का कोई आभास नहीं हो रहा था (शिवलिंग)। यमीन-उद-दौला ने इसे जब्त कर लिया, इसके कुछ हिस्से को उसने जला दिया (चूना बना दिया), और इसके कुछ हिस्से को वह अपने साथ ग़ज़नवी ले गया, जहाँ उसने इसे जामी-मस्जिद के प्रवेश द्वार पर एक सीढ़ी में लगवा दिया। मूर्ति वाले कक्ष में अंधेरा था, लेकिन यह सबसे उत्कृष्ट रूप से जवाहरतों से सुसज्जित झाड़फानूस द्वारा प्रकाशित था। मूर्ति के समीप ही सोने की एक जंजीर लटकी हुयी  थी, जिस पर घंटियाँ लगी हुई थीं। इसका वजन 200 मन (~ 3-4 टन) था। जब रात का एक निश्चित पहर बीत चुका होता था, तो इस जंजीर को घंटियाँ बजाने के लिए हिलाया जाता था, (जिसकी आवाज़ सुनकर) पूजा करने के लिए ब्राह्मणों की एक नया दल पुराने दल की जगह ले लेता था। खजाना नजदीक ही था, और इसमें सोने और चांदी की कई मूर्तियाँ थीं। इनके सामने पर्दे लटके हुए थे, जो विभिन्न जवाहरतों और आभूषणों से सुसज्जित थे, इनमें से हर एक बहुमूल्य था। मन्दिर में जो कुछ मिला, उसका मूल्य बीस लाख दीनारों (1 दीनार ~ 5 ग्राम, =10 टन स्वर्ण ) से अधिक था, यह सभी का सभी लूट लिया गया। यहाँ मारे गए लोगों की संख्या पचास हजार से अधिक थी।

 5 तारीख-ए-अलफ़ी

तारीख-ए-अलफ़ी (एक हज़ार वर्षो का इतिहास) - अकबर ने मौलाना अहमद की अध्यक्षता में अपने दरबार के बेहतरीन वृतांत लेखकों और इतिहासकारों का एक समूह बनाया और इस्लाम के एक हज़ार वर्ष पूरे होने की उपलब्धि पर इस्लाम के हज़ार वर्षो के इतिहास का लेखनकार्य करवाया। यह अपने आप मे एक बड़ा प्रोजेक्ट था जो 1582 ईसवी में शुरू हुआ और 1589 ईसवी तक पूर्ण हुआ। 

ऐसा कहा जाता है कि सोमनाथ के मंदिर का निर्माण भारत के महानतम राजाओं में से एक के द्वारा किया गया था। मूर्ति को ठोस पत्थर से काटकर बनाया गया था, जिसकी ऊँचाई लगभग पाँच गज थी, जिसमें से दो गज धरती में गड़ी थी। महमूद की नजर इस मूर्ति पर पड़ी, उसने बहुत क्रोध के साथ अपने गुर्ज़ (गदा) को उठा लिया, और उसे इतने बल से मारा कि मूर्ति टुकड़े-टुकड़े हो गई। उसने इसके टुकड़े को ग़ज़ना में ले जाने का आदेश दिया, और उन्हें "जामी मस्जिद की दहलीज" के नीचे फेंक दिया गया, जहाँ यह आज तक पड़ा हुआ है। यह एक अच्छी तरह से जाँचा परखा तथ्य है कि जब महमूद मूर्ति को नष्ट करने वाले थे, ब्राह्मणों की भीड़ ने उसके अमीरों से दरख्वास्त की और कहा कि अगर वह इस प्रतिमा को नष्ट करने से छोड़ दे तो वे अपने खजाने से कई करोड़ सोने के सिक्कों का भुगतान करेंगे। सुल्तान के कई अमीरों द्वारा इस सौदे पर सहमति व्यक्त की गई, जिन्होंने सुल्तान को इंगित किया कि वह प्रतिमा को तोड़कर इतना खजाना प्राप्त नहीं कर सकता था, और यह कि इस प्रकार मिला धन बहुत काम आयेगा। महमूद ने जवाब दिया, "मुझे यह पता है, लेकिन मैं चाहता हूं कि कयामत के दिन मुझे (फरिश्तों द्वारा) इन शब्दों के साथ पुकारा जाए,”'वह है महमूद जिसने सबसे मशहूर मूर्तियों को तोड़ा है?' बजाय इसके कि, "वह महमूद कहां है? जिसने सोने के लिए सबसे मशहूर मूर्तियों को बेच दिया?“ जब महमूद ने प्रतिमा को खण्डित कर दिया, तो इसके अन्दर इतने शानदार गहने और माणिक निकले, कि ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तावित फिरौती के मूल्य से सौ गुना अधिक राशि उसे मिल गयी। 

 गैरतमंद(स्वाभिमानी) मुसलमान बुतशिकन(मूर्तिभंजक) है बुतफ़रोश(मूर्तिविक्रेता) नहीं

हिन्दुओं की मान्यता के अनुसार, भारत में अन्य सभी मूर्तियाँ सोमनाथ के ही रूप और प्रतीक के तौर पर थी। हर रात इस मूर्ति को गंगा से लाए गए "ताजे" पानी से धोया जाता था, हालांकि उस नदी से दो सौ से अधिक पारसंग (950 किमी) की दूरी होनी चाहिए। यह नदी भारत के पूर्वी हिस्से से होकर बहती है, और इसे हिंदुओं द्वारा बहुत पवित्र माना जाता है। वे अपने मृतकों की हड्डियों को उसमें प्रवाहित कर देते है। 

"यह वर्णन कई प्रामाणिक ऐतिहासिक कार्यों से संबंधित है, दस हजार, आबादी वाले गांवों का राजस्व सोमनाथ के मंदिर के खर्च के लिए एक बंदोबस्त के रूप में निर्धारित किया गया था, और एक हजार से अधिक ब्राह्मण हमेशा उस मूर्ति की पूजा में लगे हुए थे। इस मंदिर में एक स्वर्ण जंजीर लटका दी गई थी जिसका वजन दो सौ भारतीय मन जितना था (3~4 टन) इस से कई घंटियाँ जुड़ी हुई थीं, और इस पर कई व्यक्तियों को नियुक्त किया गया था, जिनका कर्तव्य था कि दिन और रात के समय में इसे हिलाएँ और ब्राह्मणों को निर्धारित क्रम से पूजा करने के लिए बुलाएँ। इस मंदिर के अन्य उपस्थित लोगों में तीर्थयात्रियों के मुंडन के लिए तीन सौ नाइयों को नियुक्त किया गया था। इसमें तीन सौ संगीतकार और पाँच सौ नर्तक लड़कियाँ भी जुड़ी थीं; और यहाँ भारत के राजाओं के द्वारा अपनी पुत्रियों को मंदिर की सेवा के लिए भेजने की प्रथा थी।(देवदासी, प्राचीन ग्रीक परम्परा) उपस्थित लोगों में से प्रत्येक के लिए निश्चित वेतन निर्धारित किया गया था, और इसका विधिवत और समय पर भुगतान किया जाता था। ग्रहण के समय पूरे हिंदुस्तान से बहुसंख्यक हिंदु यहाँ एकत्र होते थे। हमें कई इतिहासकारों द्वारा बताया गया है कि इस तरह की प्रत्येक घटना में दो लाख से अधिक व्यक्ति अपनी-अपनी भेंट लेकर यहाँ इकट्ठा होता था।  

सोमनाथ में स्वर्ण दान वर्तमान में भी जारी है


इब्न असीर के इतिहास में और हाफ़िज़ अब्रु के इतिहास में यह कहा गया है कि जिस कमरे में सोमनाथ की मूर्ति रखी गई थी वहाँ पूरी तरह से अंधेरा था, और यह झाडफानूस को सजाने वाले महँगे आभूषणों, रत्नो और माणिक्यों के संयोजन से प्रकाशित होता था। इस मंदिर के तहखाने में सोने और चांदी की अनगिनत छोटी मूर्तियाँ भी थीं। संक्षेप में, शहर की लूट से उसकी सेना के हाथों में जो कुछ भी आया, इसके अलावा महमूद ने इस मंदिर से सोने, जवाहरात और अन्य कीमती सामानों में इतनी अकूत संपत्ति हासिल की कि संपत्ति के मामले में उस समय के हिंदुस्तान का कोई भी अन्य राजा उसके आस-पास भी नहीं ठहरता था।

जब महमूद ने सोमनाथ के खिलाफ अपने अभियान का समापन किया था, तो उसे सूचित किया गया कि नहरवाड़ा (अनहिलवाड़ा) के प्रमुख राजा भीम, जो आक्रमण के समय भाग गए थे, अब कंडामा के किले में शरण लिए हुए थे, जो सोमनाथ से चालीस पारसंग (190-200 किमी) की दूरी पर था। महमूद तुरंत उस स्थान की ओर आगे बढ़ा, और जब उसकी विजयी पताका किले के नजदीक पहुँची, तो किला चारों ओर से काफी पानी से घिरा हुआ पाया गया, और उसके पास कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया। सुल्तान ने कुछ गोताखोरों को पानी की गहराई पता करने का आदेश दिया, और उन्होंने उसे एक ऐसी जगह की ओर इशारा किया, जहाँ से निकलना मुनासिब था, लेकिन साथ ही उन्होंने कहा कि अगर उनके गुजरने के समय पानी (ज्वार) उठ गया तो यह उन सभी को डुबो देगा। महमूद ने अपने धार्मिक व्यक्तियों से सलाह ली और सर्वशक्तिमान अल्लाह के संरक्षण के आधार पर अपनी सेना के साथ आगे बढ़े और अपने घोड़े के साथ पानी में कूद गए। उन्होने इसे सुरक्षित पार कर लिया। जब किलेदार ने उसकी निडरता देखी, तो वह भाग गया और कई युद्धबंदियों के अलावा उनकी पूरी संपत्ति, ईमान(इस्लाम) की सेना के हाथों में गिर गई। किले में मिले सभी लोगों को तलवार का चारा बना दिया गया।

 "इस विजय के बाद, महमूद भाटियों के क्षेत्र पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़े, जिनके प्रमुख ने महमूद के इरादों से अवगत होने के बाद उनकी आज्ञाकारिता और अधीनता को स्वीकार कर लिया। सुल्तान उन के क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके अपनी राजधानी गजनी में लौट आए।

 

6 तबाकत-ए-अकबरी

तबाकत-ए-अकबरी को ख्वाजा निज़ाम-उद-दीन अहमद बक्शी ने लिखा था (1551-1621 ईसवी)। वह अकबर के राज्य में मीर बक्शी (वित्त लेखाकार) था, उसने गजनवी से लेकर अकबर के राज के 38वे साल तक का इतिहास अपनी पुस्तक तबाकत-ए-अकबरी में लिखा है इसमे 29 इतिहासकारो के कार्यों का जिक्र है जिनमे से कुछ पूरी तरह से खो चुके है। 

जब महमूद ने सोमनाथ से घर लौटने का संकल्प लिया, तो उन्हें पता चला कि हिन्दुस्तान के सबसे महान राजाओं में से एक परमदेव (परमार देव भोज) उन्हें रोकना चाहते थे। इस प्रमुख के साथ उलझना सुल्तान ने उचित नहीं समझा, और सिंध के माध्यम से मुल्तान की ओर चले गए। इस यात्रा में उनके लोगों को कुछ स्थानों पर, पानी की कमी से और अन्य में अन्न की कमी से काफी नुकसान उठाना पड़ा। बड़ी कठिनाइयों को सहन करने के बाद, वह हिजरी 417 (1027 ई०) में ग़ज़ना पहुंचे।

 "इस वर्ष में, खलीफ़ा अल कादिर बिल्लाह ने उन्हें एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने सुल्तान को हिन्दुस्तान, निमरोज़, और ख्वार्ज़म का अधिपति मानते हुये, सुल्तान और उसके बेटों और भाइयों को उपाधियाँ दीं। सुल्तान के लिए उन्होंने काहफू-दी दौलत वा-उल इसलाम (राज्य और ईमान के संरक्षक) की उपाधि दी; अमीर मसूद को सहाबुद्ददौलत और जमालू-उल मिल्लत (राज्य की चमक और ईमान के आभूषण); अमीर मुहम्मद के लिए जलालु-द दौलत और जमालू-अल मिल्लत (राज्य की महिमा और ईमान के आभूषण); और अमीर यूसुफ़ के लिए अज़ुद-द दौलत और मुवय्यिदु-एल मिलत (राज्य के समर्थक और ईमान के रखवाले)। खलीफ़ा ने उसी समय महमूद को आश्वासन दिया कि वह उस व्यक्ति को मान्यता दे देगा जिसे वह अपना उत्तराधिकारी नामित करना चाहता है। यह पत्र बल्ख में सुल्तान के पास पहुँचा। ” —तबाकत-ए-अकबरी।

  

7 तबाकत-ए-नसिरी

तबाकत-ए-नसिरी - गजनवी और गोरी शासको का इतिहास है जो मिन्हाज-ए-सिराज ने 1260 ईसवी में पूरा किया। इसमे सोमनाथ विजय का वर्णन दिया हुआ है। 

The History of India, Volume 2, pg 270

सुल्तान ने सोमनाथ से वापस, सिंध और अल-मंसूरिया के क्षेत्र से होकर रेगिस्तान के रास्ते अपनी सेना ले जाने का संकल्प लिया। इस रास्ते के लिए उन्हे पथप्रदर्शकों की जरूरत पड़ी, इसपर एक हिंदू आगे आया और रास्ते का नेतृत्व करने का वायदा किया। इस्लामिक सेना उसके पीछे मार्ग का अनुसरण करती हुयी आगे बढ़ती रही, और काफी चलने के पश्चात एक जगह पड़ाव डाला गया, कुछ लोग पानी की तलाश में निकले, लेकिन पानी कहीं नहीं मिला। सुल्तान ने उस पथप्रदर्शक को अपने सामने बुलाया, और उससे पूछा कि पानी कहाँ से मिलेगा है। उसने उत्तर दिया, "मैंने अपने जीवन को अपने देवता सोमनाथ के लिए समर्पित किया है, और तुम्हें और तुम्हारी सेना को इसी लिए रेगिस्तान में लाया हूँ, जहां कोई पानी नहीं है, ताकि सभी नष्ट हो जाए।" यह सुनकर सुल्तान ने पथप्रदर्शक को मारने का आदेश दिया है, और सेना को वहीं खेमा लगाने के लिए हुक्म दिया। फिर रात आने तक उसने धैर्यपूर्वक आराम किया।  रात्री में सुल्तान अकेले शिविर से दूर चला जाता है, और धरती पर बैठ कर इस मुश्किल के समय में सहायता के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह से प्रार्थना करता है। उसी रात जब लगभग एक चौथाई पहर बीत चुका था, सैन्य शिविरों के उत्तर में एक प्रकाश चमकता है। चमक देखकर सुल्तान अपनी सेना को उसी दिशा में आगे बढ़ने का आदेश देता है, और जब दिन निकलता है तो वे पाते हैकि उस क़ादिर(सर्वशक्तिमान) ने उन्हें एक ऐसी जगह पहुँचा दिया था जहाँ पानी की पर्याप्त आपूर्ति थी। इस प्रकार सभी मुसलमान एक बड़े खतरे से बच जाते है। "

 

8 रवाजात (रौजात)-अस-सफा या रावदत-उस सफ़ा

रब्जात-अस-सफा या रावदत-उस सफ़ा (शुद्धता का उद्यान) मीर ख्वान्द द्वारा लिखित है। मीर-ख्वान्द (میرخواند) का पूरा नाम मुहम्मद इब्न ख्वान्दशाह इब्न महमूद था। इनका जन्म 1433 ईसवी में बुखारा में हुआ था। ये अफ़ग़ानिस्तान के अंतिम तैमूरी शासक सुल्तान हुसैन मिर्ज़ा बैकरा के दरबारी थे और विभिन्न पदो पर कार्य करते हुये 1475 ईस्वी में मुस्लिम इतिहास लिखना आरंभ किया। इनहोने दुनिया के आरंभ से 15वी सदी के अन्त तक का इतिहास रवाजात-उस-सफा में दिया है यह 1497 ईसवी में 7 खण्डो में सम्पन्न हुयी। मीर-ख्वान्द की मृत्यु 1498 ईसवी में बल्ख में हुयी।  

सोमनाथ की घटना का वर्णन:

यह उस समय से संबंधित है कि जब सुल्तान महमूद ने सोमनाथ की विजय प्राप्त कर ली थी, तो उसने कुछ वर्षों के लिए यहाँ अपना निवास बनाने की इच्छा व्यक्त की, क्योंकि यह देश बहुत व्यापक था, यहाँ पर कई फायदे थे, साथ ही यहाँ कई खदानें भी थीं जो शुद्ध सोने का उत्पादन करती थीं। भारतीय माणिक्य को सरनद्वीप (श्रीलंका) से यहाँ लाया जाता था, जो गुजरात के अधीन राज्यों में से एक था। उनके मंत्रियों ने राय रखी कि, "उस खुरासान (अफगानिस्तान-उज्बेकिस्तान) को जो इतनी सारी लड़ाइयों के बाद आपने दुश्मनों से जीता था, को त्याग कर सोमनाथ को अपने राज्य की राजधानी बनाना बिलकुल अनुचित बात है।"

संक्षेप में, राजा ने लौटने का मन बना लिया, और आदेश दिया कि कुछ आदमियों को इस देश पर नियंत्रण बनाए रखने और प्रशासन चलाने के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए। मंत्रियों ने पाया कि किसी विदेशी व्यक्ति के लिए यहाँ पर राज कर पाना असंभव था, और इसलिए इसे यही के मूल निवासियों में से एक को सौंप देना चाहिए। तदनुसार, सुल्तान ने नामांकन का निपटान करने के लिए एक परिषद का गठन किया, परिषद को सभी उम्मीदवारों के बीच उस व्यक्ति को चुनना था जो सुल्तान के प्रति पूर्णत: वफादार हो। उनमें से कुछ उम्मीदवार प्राचीन शाही परिवारों का प्रतिनिधित्व करते थे, लेकिन इनमें से कोई भी इतना महान खानदान नहीं था, जितना कि दाबशिलिम परिवार। इसमें से केवल एक सदस्य ही बचा था, और उसने ब्राह्मणो की आदते अपना ली थी, और मुख्यत: अध्यात्म और तपस्या में लीन रहता था।

 9 हबीब अस-सियर

हबीब अस-सियर (जीवनियों का दोस्त) एक ऐतिहासिक पुस्तक हैजिसकी रचना फारसी विद्वान गियास अल-दिन मोहम्मद ख्वान्दमीर ने 1521 ईसवी के आस पास की थी। खुंदमीर का जन्म 1475 ईसवी में हेरात में हुआ था। यह इतिहासकार मीर ख्वान्द के पोते थे। बाबर के भारत प्रयाण में वह भी बाबर के लश्कर में शामिल थे। इनकी मृत्यु 1534 ई० में दिल्ली में हुयी । हबीब अस-सियर के अतिरिक्त इन्होने अपने दादा मीर ख्वान्द द्वारा लिखित इतिहास के अंतिम दो खण्डो का सम्पादन पूर्ण किया और कुछ पुस्तके अपने हेरात के आकाओ को समर्पित भी की है। हबीब-अस-सियर में सोमनाथ पर महमूद के हमले को लेकर दिलचस्प जानकारी दी है जो की निम्न लिखित है।

 The History of India, Volume 4, pg 166 

 The History of India, Volume 4, pg 180

The History of India as told by its own historians, Volume 4, pg 189,

जब महमूद इस अभियान से विजयी होकर ग़ज़नी में अपने शाही निवास पर लौटे, तो उन्होंने एक सामान्य मस्जिद और एक मदरसे का निर्माण करवाया, और इन्हें पवित्र दान दिया। इन घटनाओं के कुछ वर्षों बाद, सुल्तान महमूद (अल्लाह उस पर कृपा बनाए रखे) ने सोमनाथ पर हमला करने, और घृणित मूर्तिपूजकों का नाश करने की योजना बनाई। शाबान माह की 10वीं तारीख, हिजरी 416 (1025-26 ई०) में, उसने 30,000 घुड़सवारों के साथ मुल्तान की ओर रुख किया, इसके अलावा असंख्य ग़ाज़ी और पैदल सैनिक भी थे, जिन्होंने अपनी स्वेछा से युद्ध के लिए अपने कदमों को आगे बढ़ाया था, और काफिरों के खिलाफ जंग में अल्लाह से इनाम प्राप्त करने के लिए (जन्नत और हुरे) मुस्लिम सेना में शामिल हुये थे। रमज़ान के मध्य में इस शहर में पहुँचने के पश्चात, उन्होंने रेगिस्तान के रास्ते से बाकी की दूरी तय करने का संकल्प लिया। सैनिकों को कई दिनों तक के लिए पानी और रसद ले जाने के लिए कहा गया था, और इसके अलावा सुल्तान ने अलग से पानी और अन्य प्रावधानों के साथ 20,000 ऊंटों को रवाना किया, ताकि किसी भी तरह से सैनिक परेशान न हो। उस खून के प्यासे रेगिस्तान से गुजरने के बाद, उन्होंने मार्ग के किनारे पर कई किलों को लड़ाकू योद्धाओ और युद्ध उपकरणों से सुसज्जित देखा, लेकिन सर्वशक्तिमान अल्लाह ने काफिरों के दिलों में खौफ़ पैदा कर दिया, जिससे की बिना किसी खास मारकाट के ही, काफिरों द्वारा किलों का समर्पण कर दिया गया। सुल्तान महमूद उस जगह से नहरवाला (अनहिलवाड़ा) की ओर चल पड़ा, और उसने मार्ग में पड़ने वाले प्रत्येक नगर के निवासियों को मार कर लूट लिया। उसी वर्ष धुल-कादा के महीने में, वह सोमनाथ पहुंचा। इतिहासकार इस बात से सहमत हैकि सोमनाथ एक निश्चित मूर्ति का नाम है, जिसे हिन्दू, सभी मूर्तियों में सबसे महान मानते थे, लेकिन हम इसके विपरीत शेख फ़रीदु-दीन अत्तार से यह जानते हैकि महमूद ने सोमनाथ में जिस मूर्ति को प्राप्त किया जिसका नाम "लात" था। इतिहासकारों के अनुसार, सोमनाथ को समुद्र के किनारे एक मंदिर में रखा गया था। अज्ञानी हिंदू, जब भयभीत हो जाते थे तो इस मंदिर में इकट्ठे होते थे, और किन्ही रातों में एक लाख से अधिक लोग देश के कोने-कोने से यहाँ आते है, वे अपने साथ उस मंदिर के लिए बहुमूल्य भेंट भी लाते है। 10,000 गाँवों को उसके खर्चों का भार ढ़ोने के लिए रखा गया है। यहाँ इतने उत्तम आभूषण और रत्न हैकि इसका दसवाँ हिस्सा भी किसी राजा के खजाने में पूरी तरह से समाहित नहीं हो सकता। मंदिर में प्रार्थना के लिए हमेशा कम से कम दो हज़ार ब्राहमण बने रहते है। एक सोने की जंजीर, जिसका वजन 200 मन (~ 3-4 टन) था, इस पर घंटियाँ लगाई गई थीं, उस मंदिर के एक कोने से लटकी हुयी थीं, इसे नियत समय पर बजाया जाता था, ताकि इसकी आवाज़ से ब्राहमणों के दल को प्रार्थना के समय का पता चल सके। 300 संगीतकार और 500 नाचने वाली दासियां उस मंदिर में स्थायी तौर पर मौजूद रहते थे। मंदिर में आने वाले दान एवं पवित्र भेंटो से उनके जीवन की सभी आवश्यकताओ, सुविधाओं और नियमित वेतनों का भुगतान होता था।

गंगा कन्नौज के पूर्व में स्थित एक नदी है, और हिंदुओं का मत है कि इस नदी का पानी स्वर्ग के झरने से गिरता है; अपने मृत को जलाने के बाद, वे राख को धारा में फेंक देते है, और यह अभ्यास उन्हें उनके पापों से शुद्ध करने के लिये किया जाता है। संक्षेप में, जब महमूद ने सोमनाथ में डेरा डाला, उसने समुद्र के किनारे पर एक बड़ा किला देखा, लहरें उसके दुर्ग के नीचे प्राचीरों से टकरा रही थी। प्राचीर के शीर्ष पर खड़े लोगों ने मुसलमानों को देखा, और प्रार्थना की कि उनके झूठे ईश्वर उस रात इस मुस्लिम भीड़ को मार दे। 

"अगले दिन, जब यह दुनिया, गर्व से भरी,

सूर्य की किरणों से प्रकाश प्राप्त किया;

तुर्की उजियारे ने अपनी स्वर्णिम ढाल प्रदर्शित की,

अपनी तलवार से हिंदू अँधेरे का सिर काट दिया।"

गज़नी की सेना शौर्य से भरी हुयी थी, उन्होने किले के पायदान पर जाकर, आँखों को बेधने वाले तीरों से प्राचीर के शीर्ष पर चढे हिंदुओं को नीचे गिरा दिया और लम्बी सीढ़ियों को प्राचीरों पर रखकर चढ़ने लगे एवं जोर-जोर से अल्लाह-हु-अकबर (अल्लाह सबसे बड़ा/महान है) का नारा लगाने लगे। हिंदुओं ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया, और उस दिन, जब आसमान सूरज की रोशनी से फ़िरोज़ा रंग में चमक रहा था उन्होने किले में प्रवेश किया, जब तक कि स्वर्ग के सितारे आसमान में छा नहीं गए तब तक दोनों पक्ष भयंकर लड़ाई लड़ते रहे। अंतत: रात के अंधेरे की वजह से आँखों की रोशनी ने शत्रुदलों को देखना बंद कर दिया तब ईमान की सेना अपने-अपने शिविरों में लौट गई।

अगले दिन, युद्धक्षेत्र में लौटकर और सैन्य उपकरणों को मोर्चे में लगाने के पश्चात, उन्होंने हिंदुओं को जीत लिया। वे अज्ञानी (हिन्दू) मानव भीड़ बनाकर अपनी मूर्ति के मंदिर में भागे, सोमनाथ को गले लगाया और बाहर आकर तब तक लड़ते रहे जब तक कि वे मर नहीं गए। मंदिर के चारों ओर, पचास हज़ार काफिरों को मार दिया गया, और बाकी जो इस्लामिक तलवार से बच गए थे, जहाजों में सवार होकर भाग गए। सुल्तान महमूद ने मूर्ति मंदिर में प्रवेश किया, सबसे पहले एक लंबे और चौड़े कमरे को निहारा, यहाँ वे छप्पन खंभे लगे थे, जिन्हे छत को सहारा देने के लिए बनाया गया था।

सोमनाथ पत्थर से बनी हुई एक मूर्ति थी, जिसकी ऊँचाई पाँच गज थी, जिसमें से तीन गज ऊपर दिखाई देते थे, और बाकी दो गज जमीन में दबे थे। यामीन-उद-दौला ने उस मूर्ति को अपने हाथों से तोड़ा, और आदेश दिया कि पत्थर के टुकड़ों को बाँध कर, उन्हें ग़ज़नी में ले जाया जाएं, और उन्हें जामी मस्जिद की दहलीज पर फेंक दें। सोमनाथ के मंदिर (बुतख़ाने) से महमूद के ख़जाने को 20,000,000 से अधिक दीनार (1 दीनार ~ 5 ग्राम सोना, =100 टन) मूल्य का माल प्राप्त हुआ, क्योंकि ये सभी स्तम्भ कीमती रत्नों से सुशोभित थे। सुल्तान महमूद ने इस शानदार जीत के बाद, उस किले को भी नष्ट कर दिया जिसमें नहरवाला के शासक ने शरण ली हुयी थी।

दाबशिलिम की कहानी

दाबशिलिम मूर्तज़ को सोमनाथ की बागडोर सौंप कर, उन्होंने ग़ज़नी की ओर रुख किया। यह उस काल से संबंधित है कि जब सुल्तान महमूद सोमनाथ से लौटने वाले थे, उन्होंने अपने राज्य के मंत्रियों के साथ परामर्श किया, और कहा: "यहाँ नियंत्रण और प्रशासन चलाने के लिए उचित व्यक्ति को नियुक्त करना आवश्यक है"। उन्होंने उत्तर दिया, "जैसा कि हम में से कोई भी इस देश में वापस नहीं आएगा, यह उचित है कि आप इसी देश के किसी निवासी को शासक नियुक्त करें।"

सुल्तान ने इस विषय पर सोमनाथ के निवासी कुछ लोगों से बात भी की, एक पक्ष ने अपनी राय रखी और कहा: देश के संप्रभु लोगों के बीच, कोई भी चरित्र और वंश में दाबशिलिम के बराबर नहीं है। वर्तमान समय में उस जनजाति का एक युवा, एक ब्राह्मण है, जो घोर तपस्या करने में अभ्यस्त है: यदि सुल्तान राज्य को उसके हाथों में सौंप देता है, तो यह उचित होगा।" एक अन्य समूह ने इस प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया, और कहा: "दाबशिलिम मुर्तज़ एक विवादित एवं झगड़ालू स्वभाव का व्यक्ति है, और इसी के पश्चाताप के लिए वह तपस्या करने को बाध्य है। इसी दाबशिलिम जनजाति में एक और व्यक्ति है, जो एक राज्य का शासक भी है, वह बहुत बुद्धिमान है, और अपनी बात पर कायम रहने वाला भी है। यह उचित होगा कि सुल्तान उसी को सोमनाथ का संप्रभु बनाये। "

यामीन-उद-दौला ने कहा: यदि वह मेरे पास आकर प्रतीक्षा करे और मुझे निवेदन करे, तभी उसकी बात सुनी जाएगी; लेकिन इतने बड़े परिमाण का राज्य उस व्यक्ति को देने के लिए, जो पहले से ही हिंद के राज्यों में से एक का शासक है, और जो मेरी आधीनता में कभी उपस्थित भी नहीं रहा है, वह ऐसी ठोस बात नहीं लगती है, जिस पर सुल्तान को विचार करना चाहिए। "

फिर दाबशिलिम मुर्तज़ को बुलाकर सुल्तान ने उसे सोमनाथ की संत्ता दे दी। दाबशिलिम ने सुल्तान की अधीनता स्वीकार करते हुये निर्धारित रकम देने पर अपनी सहमति जता दी, और अपनी बात रखते हुये बोला: "एक और दाबशिलिम मेरे प्रति वैर भाव रखता है, और जब उसे यह सूचना मिलेगी कि सुल्तान यहाँ से चले गए है, तो वह निश्चित रूप से अपनी सेना के साथ मेरे ऊपर हमला करेगा; और जैसा कि मेरे पास प्रतिरोध का साधन नहीं है, मुझे उसकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि सुल्तान इस आफ़त को मेरे सिर से हटा दे, तो यह बहुत बडी अनुकम्पा होगी; लेकिन यदि नहीं, तो मैं निश्चित रूप से बहुत कम समय में समाप्त हो जाऊंगा। सुल्तान ने उत्तर दिया: "मैं काफिरों पर युद्ध करने के उद्देश्य से ही ग़ज़नी से आया हूँ, मैं इस समस्या का समाधान , मैं स्वयं करूंगा।"

इसके बाद उन्होंने (महमूद ने) अपनी सेना को उस दाबशिलिम के देश की ओर ले गए, और उसे बंदी बना लिया, और उसे दाबशिलिम मुर्तज़ को सौंप दिया, जिसने इस प्रकार सुल्तान को संबोधित किया: "मेरे धर्म में राजाओं की हत्या गैरकानूनी है, लेकिन यह रिवाज है कि जब एक राजा अपनी शक्ति से अन्य को पराजित कर देता है तब वह अपने सिंहासन के नीचे एक छोटा और अंधेरा कमरा बनाता है, और अपने शत्रुओ को इसमें डाल देता है, वह एक छेद खुला छोड़ देता है। हर दिन वह उस कमरे में भोजन की थाली भेजता है, और तब तक भेजता रहता हैजब तक कि वह या अन्य शत्रु राजा मर नहीं जाते। चूंकि मेरे लिए इस तरह से अपने शत्रु को रख पाना अभी संभव नहीं है, मुझे उम्मीद है कि सुल्तान के सैनिक उसे गज़नी के शाही निवास में ले जाएंगे, और जब मैं उसके बारे में निश्चिन्त हो जाऊंगा, तब वे उसे वापस भेज देंगे।यामीन-उद-दौला ने इस पर सहमति व्यक्त की, और फिर ग़ज़नी की तरफ अपनी वापसी का झंडा लहराया।

दाबशिलिम मुर्तज़ ने सोमनाथ राज्य पर पूर्ण संप्रभुता प्राप्त की, और कुछ साल बीत जाने के बाद, सुल्तान के पास अपने राजदूतों को उनके दुश्मन को छोड़ देने के अनुरोध के साथ भेजा। पहले तो सुल्तान उस युवक के बारे में अनभिज्ञ था; लेकिन अंत में, उनके कुछ अमीरों की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी पर, उसने उस बंदी दाबशिलिम को दाबशिलिम मुर्तज़ के दूत को सौंप दिया। जब वे उसे सोमनाथ के प्रदेशों में ले आए थे, तो दाबशिलिम मुर्तज़ ने नियत कारागृह को तैयार करने का आदेश दिया, और एक रिवाज के अनुसार, जो उन लोगों के बीच अच्छी तरह से जानी जाती थी, वह स्वयं नगर से बाहर से उससे मिलने के लिए निकला, ताकि युवक के सिर पर सुराही और प्याला रख कर, वह उसे रकाब से मार-मार कर कारागृह की तरफ ले जाये।

अपने रास्ते के बीच में उस (दाबशिलिम मुर्तजा) ने शिकार करना शुरू कर दिया, और जब तक कि दिन बहुत गर्म नहीं हो गया वह हर दिशा में घोड़े को सरपट दौडाता रहा, इसके बाद वह आराम करने के लिए एक पेड़ की छाँव के नीचे लेट गया, और उस दौरान उसने अपने चेहरे पर एक लाल रूमाल ड़ाल दिया। इसी समय, ऊपरवाले की मर्जी के अनुसार, एक मजबूत पंजे वाला पक्षी, जो उस रूमाल को मांस समझता हैऔर नीचे उतरता हुआ, अपने पंजों को रूमाल पर मारता है, वे पंजे दाबशिलिम मुर्तज़ की आँखों में घुस जाते हैऔर वह अंधा हो जाता है। जैसा कि हिंदुस्तान में प्रचलित हैकि लोग उनकी आज्ञाओं का पालन नहीं करते है, जो किसी भी तरह से दोषपूर्ण होते है, दाबशिलिम के अंधे होने पर सैनिकों के बीच एक विवाद उत्पन्न हो जाता है, जिसके बीच में बन्दी दाबशिलिम भी पहुंच जाता है, और सभी लोग एक मत से उसकी आज्ञा का पालन करने के लिए सहमत हो जाते है, वे उसी सुराही और प्याले को अंधे दाबशिलिम मुर्तज़ के सिर पर रखकर उसे कारावास ले जाते है। इस प्रकार दाबशिलिम मूर्तज़ को उसी तरीके से ले जाया गया जिसकी योजना उसने इस युवक के लिए बनाई थी, और कहावत सच सिद्ध हो जाती हैकि, "जो कोई भी अपने भाई के लिए कुआं खोदता है वह स्वयं उसमे गिर जाता है," यह भी स्पष्ट हो गया कि, "अल्लाह किससे राज्य छीनता हैऔर किसको देता है यह वह स्वयं तय करता है, और वह अपनी मर्जी से वह किसी को भी सम्मान दे सकता है और किसी को भी अपमानित कर सकता है। इसलिए तू केवल अच्छाई कर, तू स्वयं सभी का स्वामी बन जाएगा।"

बिलकुल यही कहानी मीरात-ए-अहमदी में भी दुहराई गयी है

10 असारुल-बिलाद

जकारियाह इब्न मुहम्मद इब्न महमूद उर्फ काजविनी, का जन्म 13वी सदी के आरम्भ में ईरान के काजविन(कासविन) नगर में हुआ था। वह एक यात्री नहीं था लेकिन अपनी पुस्तकों को उसने ईश्ताकरी, इब्न हौकाल और अन्य दूसरे यात्रियों जिन्हे वह अक्सर अपने लेख में जिक्र करता हैके यात्रा वर्णनों के आधार पर तैयार किया था, उसने 13वी सदी के मध्य तक (1265 ईसवी) अपनी पुस्तक का लेखन कार्य पूर्ण कर लिया। अन्य समकालीन लेखकों जैसे कसीरी और हाजी खालफ़ा ने उसे पूर्व के प्लिनी की उपाधि दी थी (रोमन भूगोलवेत्ता प्लिनी द एल्डर के तर्ज़ पर)। उसने दो पुस्तकों का लेखन किया जो मुस्लिम दुनिया में बहुत प्रसिद्ध रही है। 1. अजाईबु-ल मखलुकात वा-गराईबु-ल मौजुदात (सृजित होने वाले अजूबे, और मौजूद अनोखी वस्तुए) और 2. असारुल-बिलाद व-अखबर-अल-इबाद ( देशो के प्रसिद्ध स्मारक और लोगों की खबरें )

प्रसिद्ध फ़ारसी भूगोलवेत्ता ज़कारियाह अल काज़विनी ने अपनी पुस्तक असारुल-बिलाद व-अखबर-अल-इबाद (देशो के प्रसिद्ध स्मारक और लोगों की खबरें , آثار البلاد وأخبار العباد) में सोमनाथ के बारे में निम्नलिखित दिलचस्प लेख लिखा है

The History of India as told by its own historians, Volume 1, chpt. 27

सोमनाथ भारत का एक प्रसिद्ध शहर है, जो समुद्र के तट पर स्थित है और समुद्र की लहरे इसके चरण पखारती है। इस जगह के चमत्कारों में यहाँ का प्रसिद्ध मंदिर था जिसमें एक मूर्ति रखी थी जिसे सोमनाथ कहा जाता था। यह मूर्ति न तो नीचे से किसी सहारे पर टिकी थी, और न ही ऊपर से किसी से लटकी थी, यह मंदिर के बीच हवा में लटकी हुई थी

इसे हिंदुओं द्वारा बड़ी श्रद्धा भाव के साथ पूजा जाता था, और कोई भी व्यक्ति चाहे वह एक मुसलमान हो या एक काफिर, इसे हवा में तैरते हुए देखकर विस्मृत हुये बिना नहीं रह पाता था। हिंदू लोग इस स्थान पर तीर्थ के लिए आते थे और जब भी चंद्रमा का ग्रहण होता था, तो एक लाख से भी अधिक की संख्या में इकट्ठा होकर पहुंचते थे। उनका मानना था कि शरीर से अलग होने के बाद मानव की आत्मा इस स्थान पर मिलती थीं (पितृदान), और यह मूर्ति, अपनी इच्छा से, पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार उन आत्माओं को अन्य शरीर में प्रवेश कराती थी। ज्वार और भाटा के प्रवाह को समुद्र द्वारा मूर्ति के सम्मान में की गई पूजा माना जाता था। लोगों के पास जो सबसे कीमती सामान होता था, उसे वे वहां भेंट के रूप में लाते थे। मंदिर की सेवा और रख रखाव के खर्चो के वहन के लिए दस हजार से अधिक गांवों से राजस्व को एकत्रित किया जाता था। यहाँ एक नदी है, गंगा, जिसे पवित्र माना जाता है, जिसके बीच और सोमनाथ की दूरी दो सौ पारसंग (~950 किमी) है। वे प्रतिदिन इस नदी का पानी सोमनाथ तक लाते थे, और मंदिर को इससे धोते थे। एक हजार ब्राह्मणों को मूर्ति की पूजा करने और दर्शनार्थियों कों प्रबंधित करने के लिए नियोजित किया गया था, और पाँच सौ नर्तकियाँ यहाँ गाती और द्वार पर नाचती थी - इन सभी को मंदिर को मिलने वाले दान के खर्चे पर रखा गया था। इस मंदिर परिसर को छप्पन सागौन की लकड़ी के खंभों पर बनाया गया था, जो सीसे से जोड़े हुए थे। मूर्ति वाले कक्ष, गर्भग्रह में अंधेरा था, लेकिन बहुमूल्य रत्नो और जवाहरों के झाडफानूस द्वारा यहाँ प्रकाश किया गया था। इसके सामने दो सौ मन (3-4 टन) वजन की सोने की एक जंजीर थी। जब रात का एक पहर, खत्म हो जाता था, तो इस जंजीर से लटकते घंटे को हिलाया जाता था, जिससे ब्राह्मणो की टोली आराम करने जा सके और एक नया दल पूजा करने के लिए स्थान ग्रहण कर सके ।

 सोमनाथ का वर्णन एक मुस्लिम के मुँह से (उर्दू)

जब सुल्तान यामीन-उद-दौला महमूद बिन सुबुक्तगीन भारत के खिलाफ धार्मिक युद्ध छेड़ने गया, तो उसने सोमनाथ पर कब्जा करने और उसे नष्ट करने के लिए बहुत प्रयास किए, इस उम्मीद में कि हिंदू फिर मुहम्मदन बन जाएंगे। वह धुल-कादा, हिजरी 416 (दिसंबर, 1025 A.D.) के बीच में वहां पहुंचा। भारतीयों ने एक दुस्साहसिक प्रतिरोध किया। वे मंदिर के अन्दर प्रवेश करते एवं (ईश्वर से) सहायता के लिए रोते-पुकार लगाते थे और फिर वापस आकर तब तक लड़ते रहते जब तक सभी मारे नहीं जाते। इस युद्ध में 50,000 से ज्यादा लोग मारे गए। सुल्तान ने आश्चर्य से मूर्ति को देखा, और सारे बहुमूल्य माल कों जब्त करने और मन्दिर के खजाने कों कब्ज़ाने के आदेश दिए। वहाँ विभिन्न बहुमूल्य रत्नो और जवाहरतों से सजे बर्तन एवं अन्य वस्तुओ के अलावा सोने और चांदी की कई मूर्तियाँ स्थापित थीं, जिनमें से प्रत्येक को भारत में सबसे बड़े राजाओ और व्यक्तित्वों द्वारा भेजा गया था। मूर्तियों के मंदिरों में पाए जाने वाले सामान का मूल्य 20,000,000 दीनार (1 दीनार~5 ग्राम सोना, = 100 टन) से अधिक था। जब सुल्तान ने अपने साथियो से पूछा कि उन लोगों का इस मूर्ति के अजूबे और इसके बिना किसी सहारे के हवा में तैरने के बारे में क्या विचार है, तो कई लोगों ने कहा कि यह किसी गुप्त सहारे द्वारा अपने स्थान पर बरकरार रखी गयी थी। राजा ने एक व्यक्ति को मूर्ति के ऊपर और उसके चारों ओर जाकर भाले से टटोलने का निर्देश दिया, जो उसने किया लेकिन उसे किसी प्रकार की बाधा या सहारा नहीं मिला। फिर एक दरबारी ने अपनी राय रखते हुये कहा कि इसका शिखर चुम्बकीय पत्थर से बना हुआ है, और यह मूर्ति लोहे की बनी है, किसी होशियार वास्तुकार ने बड़ी ही दक्षता से चुंबक को इस प्रकार लगाया होगा कि यह किसी एक तरफ अधिक बल न लगाए और संतुलित रहे, इस प्रकार मूर्ति कों बीच से लटका दिया गया होगा। कुछ लोग इस वाख्या से सहमत हुये, और कुछ अन्य असहमत भी हुये। तो इस प्रश्न को सुलझाने के मकसद से, शिखर के ऊपर से कुछ पत्थरों को हटाने के लिए सुल्तान से अनुमति ली गई थी। जब शिखर से दो पत्थर हटाए गए थे, तो मूर्ति एक तरफ झुक गयी। और जब अधिक पत्थर निकाले गए तो मूर्ति और ज्यादा नीचे झुक गयी, फिर तो तब तक पत्थर निकाले जाते रहे जब तक कि यह मूर्ति जमीन पर गिर नहीं गई।

 

गज़नी की पहचान एक तुर्क महमूद गज़नी की वजह से है, जो आज भी यहाँ का एक चहेता व्यक्तित्व है

11 तारीख-ए-फरिश्ता

तारीख-ए-फरिश्ता - मुहम्मद कासिम हिन्दुशाह फरिश्ता अश्त्राबादी का जन्म कैस्पियन सागर के समीप अस्त्राबाद नामक एक ईरानी शहर में 1560 ईसवी में हुआ था। इनके पिताजी गुलाम अली शाह अहमदनगर रियासत में फ़ारसी अध्यापक के तौर पर नौकरी करने लग गए। आरम्भ में फरिश्ता एक सैन्य कमांडर थे फिर काज़ी बने, लेकिन 1593 ईसवी में बीजापुर के शासक इब्रहीम शाह द्वितीय के अनुरोध पर इन्होंने भारत में मुस्लिम आगमन से लेकर 16वी सदी के दक्कन का मुस्लिम इतिहास लिखना आरंभ किया और तेरह खण्डो में इसे पूरा किया। उनकी मृत्यु 1620 ईसवी में हुयी। फरिश्ता की पुस्तकों में भारत के लगभग हर एक राज्य का अलग से इतिहास लिखा गया है। अन्त में भारत की भोगोलिक एवं प्राकृतिक स्थिति पर भी एक खण्ड लिखा है इस प्रकार फरिश्ता का इतिहास एक सम्पूर्ण इतिहास है। अपने इतिहास में फरिश्ता ने लोक कथाओ और किवदंतियों कों भी जोड़ा है अत: उसके लेखन कों पूर्णत: सत्य नहीं माना जा सकता। 

तारीख-ए-फरिश्ताखण्ड - 1

तारीख-ए-फरिश्ता खण्ड 1 - अध्याय 24 The History of the Rise of Mohammedan Power in India, Volume 1, chpt. 24

तारीख-ए-फरिश्ता खण्ड - 4 अध्याय 4 The History of the Rise of Mohammedan Power in India, Volume 4, chpt. 4

महमूद, पहले की तरह ही सावधानी बरतते हुए, तेजी से प्रयाण करते हुये, बिना किसी खास विरोध के सोमनाथ पहुँच गए। यहाँ उन्होंने एक सँकरे प्रायद्वीप पर एक किले को देखा, जो तीन तरफ से समुद्र से गिरा हुआ था, इसकी प्राचीरों पर बड़ी संख्या में हथियारबन्द सैनिक तैनात थे, जो हाथ हिलाकर किसी भविष्यवाणी की ओर संकेत कर रहे थे, उन्होंने घोषणा की, कि उनकी महान प्रतिमा सोमनाथ ने ही भारत के अन्य देवताओं की प्रतिमाओं के विनाश का बदला लेने के लिए और मुसलमानों का सफ़ाया करने के लिए उन्हे अपनी तरफ आकर्षित किया था। प्रात: काल मुहम्मदन सैनिक, किले की दीवारों के सामने आगे बढ़ने लगे और हमले शुरू कर दिया। मुस्लिम धनुर्धारियों ने थोड़े समय में ही किले की प्राचीर शत्रु सैनिकों से साफ कर दी। हिन्दू, हैरान और हताश होकर मंदिर में इकट्ठे हो गए और, मूर्ति के सामने आंसू बहाते हुये नीचे झुककर सहायता के लिए प्रार्थना करने लगे। मुसलमानों ने हिन्दुओ में इस अफरा तफरी के इस माहौल को भुनाने के लिए अपनी लम्बी सीढ़ीयों को किले की दीवार से लगाया और दीवारों पर चढ़ते हुये जोर से चिल्लाते हुए "अल्लाह-हू-अकबर!" कहा । हिन्दू, हताशा से ग्रसित होकर अपने किले और द्वार की रक्षा के लिए लौट आया और इसने उत्साहित रूप से प्रतिरोध किया कि मुसलमान अपने पैरो को जमाये रखने में असमर्थ हो गया, थकान से टूटे हुये, सभी मुसलमान पीछे की तरफ वापस गिर गए, और वापस भागने के लिए बाध्य हो गए। अगली सुबह कार्रवाई नए सिरे से शुरू की गई, लेकिन जितनी तेजी से मुस्लिमों ने दीवारों को पार किया, उतनी ही तेजी से उन्हें घेरकर सिर के बल नीचे गिरा दिया गया, हिन्दू अब अपनी आखिरी जगह की रक्षा करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ लग रहे थे। इस प्रकार दूसरे दिन का प्रयास तो पहले दिन की तुलना में और अधिक असफल साबित हुआ। तीसरे दिन मूर्तिपूजकों की एक सेना, जो किलेबंदी को मजबूत करने के लिए पहुंची थी, ने ग़ज़नी सेना के शिविर पर धावा बोलने का निर्णय किया। सुल्तान महमूद ने हमले के इस प्रयास को असफल बनाने के लिए दृढ़ निश्चय किया, और एक टुकड़ी को किले की घेराबंदी की निगरानी में लगाकर, स्वयं सेना लेकर दुश्मन से लड़ने मैदान में पहुँच गया।

युद्ध भारी मारकाट के साथ चरम सीमा पर पहुँच गया, लंबे समय तक यह ही तय नहीं हो पा रहा था कि कौन जीतेगा। तब दो भारतीय राजकुमार, ब्रह्म देव और दबीशलेम, अपनी-अपनी सेना के साथ अपने देशवासियों की सहायता में आ गए, और उन्हें नए साहस के साथ युद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया। इस समय महमूद ने अपने सैनिकों को घबराकर पीछे हटते हुये देखा, तो अपने घोड़े से छलांग लगा दी, और अल्लाह के सामने खुद को झुकाते हुये उनसे सहायता की गुहार लगाई। फिर दुबारा घोड़े पर चढ़ते हुये, उसने अबुल हसन सर्केसियन (उनके सेनापतियों में से एक) का हाथ पकड़ कर प्रोत्साहित करते हुये शत्रु सेना पर हमला बोल दिया। ठीक उसी समय उसने, अपने सैनिकों को ऐसी ऊर्जा से भर दिया, जिससे उन लोगों को अपने उस सुल्तान को छोडकर जाने में बड़ी शर्मिंदगी महसूस होने लगी, जिसके साथ उन्होने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी और खून बहाया था। वे एक स्वर में ज़ोर से आवाज़ लगाते है(फी-सबीलिल्लाह) और तेजी से दुश्मनों पर टूट पड़ते है। इस हमले में मुस्लिम सेना दुश्मन की पहली पंक्ति को तोड़ देती है, और 5,000 हिंन्दुओ को मार कर पैरो से कुचल देती है। बाकी हिन्दू सेना भाग जाती है। सोमनाथ की रक्षा में तैनात सैनिक जब इस खबर को सुनते है तो अपनी जान बचाने के लिए उस जगह की रक्षा को छोड़ कर भाग जाते है, और समुद्र की ओर एक दरवाजे पर पहुँचते है, वे 4,000 की संख्या में, नावों में सवार होकर, सरनद्वीप (श्रीलंका) द्वीप की ओर बढ़ने का इरादा करते है।

दुर्भाग्य से ये लोग सुल्तान के क्रोध से नहीं बच सके, जिसने कुछ जहाज़ो को नजदीक में तैयार रखा था, इसमे उसके नाविक और कुछ सर्वश्रेष्ठ सैनिक तैनात थे। इन जहाज़ो ने दुश्मन का पीछा किया, और शत्रु के कुछ जहाजो को डूबा दिया गया, बाक़ी कुछ बचकर भाग निकले। किले की दीवारों के चारों ओर और दरवाजो पर महमूद ने अपने सैनिक तैनात कर दिये और फिर महमूद अपने बेटों, कुछ अमीरों और प्रमुख परिचारकों के साथ सोमनाथ में प्रवेश करता है। मंदिर के पास जाने पर, उन्होंने शानदार पत्थर से निर्मित एक भव्य इमारत देखी। इसकी बुलंद छत को छप्पन खंभों के सहारे घुमावदार एवं नक्काशीदार पत्थरों से बनाया गया था। इस बड़े हॉल के केंद्र में सोमनाथ नामक एक पत्थर की मूर्ति थी जिसकी ऊंचाई पांच गज की थी, जिनमें से दो गज जमीन में दबी थी। मूर्ति के निकट आकर सुल्तान ने अपनी गुर्ज(गदा) उठाई और उसकी नाक पर प्रहार किया। फिर उसने मूर्ति के दो टुकड़ों को तोड़ने का आदेश दिया और ग़ज़नी को भिजवा दिया। एक को सार्वजनिक जामा मस्जिद की दहलीज पर फेंक दिया, और दूसरा अपने महल के दरबार में दरवाजे के नीचे लगाया गया। ये टुकड़े आज तक (अब से 600 साल पहले) गज़नी में देखने को मिलते है। दो और टुकड़े मक्का और मदीना भेजे जाने के लिए सुरक्षित रख लिए गए। यह एक अच्छी तरह से प्रमाणित तथ्य है, कि जब महमूद ने इस मूर्ति को नष्ट करने के लिए निर्णय किया, तब ब्राह्मणो की एक भीड़ ने उनके परिचारकों से याचिका की, कि सुल्तान के इस प्रतिमा का विध्वंस न करने कि एवज में वे सोने की बड़ी मात्रा फिरौती के तौर पर देंगे। सुल्तान के अमीरों ने उन्हें धन स्वीकार करने के लिए मनाने का प्रयास किया और कहा कि केवल इस मूर्ति को तोड़ देने से मूर्तिपूजा एकदम से समाप्त नहीं हो जाएगी, इसलिए सभी मूर्तियों को तोड़ने से हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी लेकिन इसके एवज में मिलने वाले धन को सच्चे ईमान वालों को दान में देकर आप एक महान कार्य कर सकते है। सुल्तान ने उनके इस तर्क को स्वीकार किया परंतु बोले कि, "यदि आज मैंने तुम्हारी बात को मानकर मूर्ति ना तोड़ने की अनुमति दे दी तो आगे आने वाली पीढ़ियाँ मुझे महमूद बुतफ़रोश (मूर्ति बेचने वाला) के नाम से जानेगी लेकिन मैं चाहता हूँ कि मैं महमूद बुतशिकन (मूर्ति भंजक) के नाम से ही जाना जाऊ"। इसलिए उसने अपने सैनिकों को मूर्तियों को तोड़ने का निर्देश दिया, अगले वार से सोमनाथ की मूर्ति का पेट फट गया जो अंदर से खोखला था और उसमे से हीरे, माणिक, और मोतियों का एक बड़ा ढेर नीचे आ गिरा इसकी कीमत उन ब्राह्मणो के द्वारा पेश किये गए सोने से कहीं ज्यादा थी।

The History of India as told by its own historians, Volume 2, pg 522 appendix

The History of India as told by its own historians, Volume 2, page 524 Appendix

 
12 मुंतखब-उत-तवारीख

मुंतखब-उत-तवारीख (चयनित इतिहास या चुना हुआ इतिहास) की रचना अब्दुल कादिर इब्न मुलुक शाह (अल-बदायुनी) ने 1595 ईसवी में की थी। अब्दुल कादिर बदायूंनी का जन्म 1540 ईसवी में संभल में हुआ, इन्होने अपना रोजगार बदायूँ राज्य के अंतर्गत पटियाली से आरंभ किया और जल्द ही अकबर के दरबार आगरा में एक इतिहासकार और अनुवादक के रूप में स्थान पा गए। बाद में इन्हे अकबर द्वारा भारत के पहले ग्रांड मुफ़्ती का पद दिया गया। इनकी मृत्यु 1615 ईसवी में हुयी।

बदायूंनी का सोमनाथ वर्णन आप यहाँ पढ़ सकते है।

The Muntakhabu-’rukh, Volume 1, chpt. 8

Muntakhab-ut-Tawarikh, Volume 1, pg 27

 

13 जवामी-उल-हिकायत

जवामी-उल-हिकायत वा लवामी-उर-रिवायत (कहानियों का संकलन और परम्पराओ का चित्रण) की रचना जहीरुद्दीन नसर मुहम्मद औफ़ी ने किया था इन्हे अल-अवफ़ी के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म 1171 ईसवी में बुखारा में हुआ था, ये पहले गोरीयों की राजधानी गोर अफ़ग़ानिस्तान में दरबारी थे, बाद में हिंदुस्तान की फतह के पश्चात वे दिल्ली आकर बस गए और दिल्ली के गुलाम सुल्तान इल्तुतमिश (1211-1236 ईसवी) के दरबारी बन गए। यहाँ इन्होने के जवामी-उल-हिकायत के इतिहास लेखन का कार्य पूर्ण किया। 1242 ईसवी में मृत्यु हुयी। यह पुस्तक चार खण्डो में है, और यह पुस्तक बेहद दिलचस्प जानकारीयों का कोश है, इसमे दी गयी ऐतिहासिक जानकारी अक्सर किसी और संदर्भ में नहीं मिलती, इसमे प्राचीन समय से लेकर अब्बासी खलीफा अल-मुस्तसिर के शासन के अंत तक का इस्लामिक विवरण दिया हुआ है।

भारत पर सुल्तान महमूद की चढ़ाई और सोमनाथ के विध्वंस पर अल-अवफ़ी ने भी लिखा है।

The Jawamiul-Hikayat wa Lawamiur-Riwayat, chpt. 136 

The History of India as told by its own historians, Volume 2, pg 192 

 

 

अला-उद्दीन खिलजी के द्वारा सोमनाथ विध्वंस का इतिहास

 

14 ताजियात-उल-अंसार वा तजरियातुल आसार - अब्दुल्लाह वस्साफ

 THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 43

15 खजाईनुल फ़ुतूह (फतेह का खज़ाना)

अमीर खुसरो (1253-1325 ईसवी) की रचना हैजिसमे उसने अलाउद्दीन खिलजी की विजयों का ऐतिहासिक वर्णन दिया है।

THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 74

THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 85 

 

तारीख-ए-अलाई - अमीर खुसरो

गुजरात, सोमनाथ, नहरवाला, और खंभात की विजय।

सुल्तान (अला-उद्दीन खिलजी) ने उलुग ख़ान को सोमनाथ की मूर्ति एवं मंदिर के विनाश के लिए 20 तारीख जुमदा-अल अव्वाल माह, हिजरी 698 (1390 ई०) में मालाबार और गुजरात को भेजा। उसने सोमनाथ की सभी मूर्तियों और मंदिरों को नष्ट कर दिया, “लेकिन एक मूर्ति, जो बाक़ी सभी मूर्तियों में से सबसे बड़ी, को अपने महामहिम सुल्तान के दरबार में भेजा, और उस प्राचीन मूर्तियों के मंदिर में अल्लाह के लिए इतनी ज़ोर से नमाज़ अदा की गयी कि उसकी आवाज़ मिस्र और मदीना तक सुनी गयी।" उसने नहरवाला और खंभात शहर, एवं अन्य समुद्र तटवर्ती शहरों को भी फतह कर लिया।

16 तारीख-ए-फिरोज शाही - जियाउद-दीन बरनी

THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 163

अलाउद्दीन के शासन के तीन वर्षो बाद, उलुग खान और नुसरत खान अपने अमीरों और सेना अधिकारियों के साथ एक विशाल सेना लेकर गुजरात पर हमला करते है। उन्होने नहरवाला और सम्पूर्ण गुजरात को जीत कर लूटा। गुजरात के राजा करण नहरवाला से भागकर देवगिरि के शासक रामदेव के यहाँ शरण लेते है। उनकी पत्नियाँ, बच्चे और हाथी मुहम्मदन सेना के हाथ में आ जाते है। पूरा गुजरात आक्रमणकारियो के अधिकार में आ जाता है। और वह प्रतिमा जो सुल्तान महमूद की विजय और मनात के विध्वंस के बाद ब्राह्मणो ने सोमनाथ के नाम से पूजा के लिए लगा दी थी, उसे कब्जे में लेकर लोगों द्वारा पैरो तले कुचलने के लिए दिल्ली ले जाया जाता है

17 मीरात-ए-अहमदी अली मुहम्मद खान

द्वारा 1700 ईसवी में लिखी गई, इस पुस्तक में फारसी भाषा में गुजरात का मुस्लिम इतिहास दिया गया है।

गजनवी की सोमनाथ फतह

अल्ला-उद्दीन खिलजी की सोमनाथ फतह

The Mir'at-i Ahmadi (The Political and Statistical History of Gujarat), chpt. 36

जफर खान की 1391 ईसवी में सोमनाथ फतह

The Mir'at-i Ahmadi (The Political and Statistical History of Gujarat), chpt. 42

17 तारीख-ए-फरिश्ता

मुजफ्फर शाह प्रथम द्वारा सोमनाथ विध्वंस

The History of the Rise of Mohammedan Power in India, Volume 4, chpt. 3

 

18 अहकाम-ए-आलमगिरी

इस पुस्तक में औरंगजेब द्वारा मंदिर को विध्वंस करने के फरमान का विवरण दिया गया है।

Anecdotes of Aurangzeb – Jadunath Sarkar (1917)

ठीक इसी काल में कठियावाड़ प्रायद्वीप के दक्षिणी तट पर अवस्थित सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया। और यहाँ पूजा को रोकने का फरमान जारी किया गया। छोटे मोटे धार्मिक इमारतों के विध्वंस असंख्य थे।

औरंगजेब द्वारा विध्वंस को इस वैबसाइट पर बहुत विस्तार से समझाया गया है।



 
आगरा के किले में स्थित यह गजनी गेट लंदन न्यूज़ के पृष्ठ में लॉर्ड एलेनबरोग की गलती दर्शाने के लिए दुबारा 1872 में छपा था

यह प्रकरण 1838-42 ई० के दौरान अँग्रेज़-अफगान युद्ध के घटनाक्रम से जुड़ा हुआ हैं जिसमे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। उस समय भारत की कमान कम्पनी के गवर्नर-जनरल ऐलेनबरोग के पहले अर्ल के हाथों में था जिन्हे "लॉर्ड ऐलेनबरोग" के नाम से जाना जाता था। ऐलेनबरोग, धूमधड़ाका और आडम्बर पसंद व्यक्तित्व थे। जब अँग्रेजी सेना काबुल से वापस हिंदुस्तान के लिए लौट रही थी तो लॉर्ड ऐलेनबरोग ने सेना को गजनी के रास्ते होते हुये महमूद गजनवी के मकबरे में लगा हुआ चन्दन की लकड़ी का दरवाजा उखाड़ कर लाने का आदेश दिया, इस दरवाजे के बारे में कहा गया था कि गजनवी इसे सोमनाथ के विध्वंस (1025-26 ई०) के पश्चात जीत के प्रतीक के रूप मे मंदिर से ले गया था और अपने मकबरे में लगवाया था।

लॉर्ड ऐलेनबरोग
हालाँकि समसामयिक इतिहासकारों में से किसी ने भी इस दरवाजे के ऊपर चर्चा नहीं की हैं लेकिन यह तो निश्चित था कि उस समय मंदिर के निर्माण में चन्दन की लकड़ी का प्रयोग हुआ था। (कुमारपाल अभिलेख, काजविनी, अल-बिरूनी), हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) के अनुसार
"कैप्टन विल्बरफोर्स-बैल यह सुझाते हैं कि सोमनाथ मन्दिर के दरवाजे जरूर ले जाये गए होंगे, वे कहते हैं कि, "मूल सोमनाथ मन्दिर के दरवाजे जो कि गजनी ले जाए गए थे, दरअसल कभी भी ढूंढ़े नहीं जा सके, पारंपरिक रूप से ऐसा माना जाता हैं कि उनका अंतिम स्थल मदीना या मक्का में होगा।"  पृष्ठ 27 अंतिम पंक्ति 
फरिश्ता की पुस्तकों से भारतीय इतिहास का संदर्भ देने वाले इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने पहले पहल इसका उल्लेख किया था, फिर सिख साम्राज्य की अफगानिस्तान की विजय के उपरान्त इस दरवाजे की मांग एक पत्र में की गयी थी। लॉर्ड ऐलेनबरोग अफगानिस्तान पर अपने इस युद्ध को हिंदुस्तानियों के सामने महमूद गजनवी के हमलों के प्रतिशोध के रूप मे प्रदर्शित करना चाहते थे। उन्होने उस समय अफगानिस्तान में तैनात जनरल विलियम नॉट को सोमनाथ के दरवाजे वापस भारत लाने का आदेश दिया। हालाँकि, हिन्दू जनसंख्या ने कभी भी ऐसी माँग अग्रेज़ी हुकूमत के सामने नहीं रखी, क्योंकि उन्हे इस तरह के किसी घटना की जानकारी ही नहीं थी। इसके बावजूद कुछ हिन्दू रजवाड़े जो ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षण में थे, ने गवर्नर जनरल के इस कदम का दिल खोल कर समर्थन किया।
इस अवसर पर लॉर्ड एलेनबरोग ने राजसी उदघोषणा जारी की जिसमे गजनी से सोमनाथ के दरवाजे को वापस लाने के बारे में सोमनाथ मंदिर के अपमान का प्रतिशोध 800 वर्ष बाद लेने की बात कही गयी थी। हालाँकि उस समय तक सोमनाथ का मंदिर स्वयं जीर्णशीर्ण था। वह दरवाजा कहाँ लगता इस पर कोई विचार नहीं रखा गया था।



गजनी में स्थिति सुल्तान महमूद का मकबरा जिसमे तथाकथित सोमनाथ का दरवाजा लगा हुआ था।

ब्रिटिश सेना द्वारा दरवाजे को आगरा के किले में लाने के उपरान्त पुरातत्ववेत्ताओ एवं अन्य माहिर विशेषज्ञो द्वारा जाँचने के पश्चात यह पाया गया कि दरवाजे न तो चन्दन की लकड़ी के थे और न ही हिन्दू कला द्वारा बनाए गए थे। दरवाजे गजनी में स्थानीय रूप से मिलने वाली हिमालय के देवदार वृक्ष की लकड़ी से बने थे और उन्हे इस्लामिक कलाकृतियों (Saracen Art) से बनाया गया था। इस सच्चाई की ख़ोज होने के बाद दरवाजों को आगरा किले में सड़ने के लिए यों ही छोड़ दिया गया, परन्तु ब्रिटिश मीडिया और सांसदो ने इस बात का बतंगड़ बना दिया जिससे लॉर्ड ऐलेनबरोग की बड़ी किरकिरी हुयी और अंतत: एक वर्ष के उपरान्त कम्पनी के निदेशकों ने ऐलेनबरोग को पद से हटा दिया।
एलेनबरोग को उसके विरोधियों ने ब्रिटिश संसद तक में खीच लिया और वहाँ भी इस मुद्दे पर काफी जवाबतलब हुआ, मुद्दा अगले कई वर्षो तक ब्रिटिश मीडिया में छाया रहा और इस बहाने सोमनाथ को भी काफी प्रसिद्धि मिली ।
इस मुद्दे का ब्रिटेन मीडिया में छाने का एक और कारण भी था। इस समय तक डार्विन ने विकासवाद के सिद्धान्त की ख़ोज नहीं की थी और ब्रिटेन इस समय भी एक समर्पित ईसाई देश था, जहाँ के लोग बहुत दृढ़ता से क्रिश्चियन मूल्यों पर विश्वास करते थे, उनके अनुसार गॉड ने सात दिन में पृथ्वी का निर्माण किया था। ऐसे वातावरण में कोई क्रिश्चियन व्यक्ति जो कि ब्रिटेन के कुलीन घराने से सम्बन्ध रखता हो कैसे "बुतख़ाने के दरवाजे" को लगवा सकता था। उनके अनुसार यह ईसाई विचारधारा के बिल्कुल विरुद्ध बात थी, और मूर्तिपूजा को प्रोत्साहन देने वाला कदम था जिसका बहुत कड़ाई से प्रतीकार होना चाहिए था। (ऐसा प्रतीत होता हैं कि इस समय तक ब्रिटिश लोगो को इस असभ्य एवं आदिम भारतीय धर्म के बारे में बहुत कम जानकारी थी और जो जानकारी थी भी वह नकारात्मक थी ।)  
इसी क्रम में ब्रिटिश सरकार और उनके विरोधियों के बीच ब्रिटिश सांसद में जोरदार बहस हुयी, जिनमे लॉर्ड ऐलेनबरोग की मंशा पर बहुत तीखे सवाल उठाए गए। उन पर मुस्लिमों की भावनाओ को ठेस पहुँचाने का आरोप लगा और यह भी कहा गया कि ऐलेनबरोग ने उत्साही, महत्वाकांक्षी और लड़ाकू मुस्लिम जाति के ऊपर खतरनाक ब्राह्मणवादी मूर्तिपूजा को वरीयता दी है।


जेम्स रेटरे द्वारा वर्ष १८४८ ई० में गजनी स्थिति सुल्तान महमूद के मकबरे का चित्रण, जिसमे वह दरवाजा भी दिख रहा हैं सौजन्य : TheBritishLibrary


बुतों को तोड़ने वाले सुल्तान महमूद का बुत, सौजन्य : लाहौर संग्रहालय


गजनी का वह विवादित दरवाजा, आज आगरा किले की चाहरदीवारियों के बीच सड़ रहा है


एक बात तो अच्छी हुयी कि पुरातत्व सर्वेक्षण वालो ने इस दरवाजे को अब आगन्तुको के अवलोकन के लिए लगवा दिया हैं
PROMULGATION FROM THE GOVERNOR-GENERAL TO ALL THE PRINCES AND CHIEFS AND PEOPLE OF INDIA.
"My Brothers and my Friends - Our victorious army bears the gates of the temple of Somnauth, in triumph from Afghanistan, and the despoiled tomb of Sultan Mahmood looks upon the ruins of Ghuznee. The insult of 8OO years is at last avenged. The gates of the temple of Somnauth, so long the memorial of your humiliation, are become the proudest record of your national glory, the proof of your superiority in arms over the nations beyond the Indus.
To you, Princes and Chiefs of Sirhind, of Rajwara, of Malwa, and of Guzerat, I shall commit this glorious trophy of successful war. You will, yourselves, with all honour transmit the gates of sandal wood through your respective territories, to the restored temple of Somnauth.
The chiefs of Sirhind shall be informed, at what time our victorious army will first deliver the gates of the temple into their guardianship, at the foot of the bridge of the Sutlej.

My Brothers and my Friends - I have ever relied, with confidence, upon your attachment to the British Government. You see how worthy it proves itself of your love, when regarding your honor as its own, it exerts the power of its arms to restore to you the gates of the temple of Somnauth, so long the memorial of your subjection to the Afghans.
For myself, identified with you in interest and in feeling, I regard with all your own enthusiasm the high achievements of that heroic army, reflecting alike immortal honour upon my native and up on my adopted country.

To preserve and to improve the happy union of our two countries, necessary as it is to the welfare of both, is the constant objects of my thoughts. Upon that union depends the security of every ally, as well as of every subject of the British Government, from the miseries whereby, in former times, India was afflicted; through that alone has our army now waved its triumphant standards over the ruins of Ghuznee, and planted them upon the Bala Hissar of Cabool.
May that good Providence, which has hitherto so manifestly protected me, still extend to me its favour, that I may so use the power now entrusted to my hands, as to advance your prosperity and secure your happiness, by placing this union of our two countries upon foundations which may render it eternal.

ब्रिटिश मीडिया द्वारा 1843 ईसवी में लॉर्ड एलेनबरोग का मज़ाक उड़ाने के लिए यह कार्टून प्रकाशित करवाया था। जिसमे एलेनबरोग को एक हिन्दू स्त्री के वेश में हाथी की विशाल मूर्ति के सामने ढपली लेकर नाचते हुये दिखाया हैं। हालाँकि इस चित्र में मूर्ति को भगवान शिव के तौर पर दर्शाया गया हैं। पीछे एलेनबरोग की कैबिनेट के कुछ खास सहयोगियों को भी दर्शाया गया हैं। इस चित्र से यह साबित होता हैं कि उस समय तक पश्चिमी जगत को हिन्दू धर्म की कुछ खास समझ नहीं थी।



फरवरी 1843 ई० में एक बार फिर एलेनबरोग का मज़ाक उड़ाते हुये, उसे एक पागल हाथी की तरह दर्शाया गया हैं जो अपने पूर्ववर्ती लॉर्ड ऑकलैंड को अपनी सूँड से घूमा रहे है, जबकि ड्यूक ऑफ वेलिंगटन, जो कि ब्रिटिश संसद में एलेनबरोग के बड़े समर्थक थे उनके महावत के तौर पर ब्रिटिश सांसद सर रोबर्ट पील और लॉर्ड स्टेनली को जवाब दे रहे है, अन्य मूकदर्शको के तौर पर सर जॉन कैम हॉबहाउस और जॉन रसेल हिन्दुस्तानी जनता के रूप में बिगड़ैल हाथी के कारनामे देख रहे है । सौजन्य से : https://wellcomecollection.org/works/ggcsetv6


1844 ई० में एलेनबरोग के कार्यकाल समाप्त होने के समय उनके दिमागी के हिस्सो का गुणों में वर्गीकरण करते हुये उनके कार्यकाल में 10 कारनामो का ज़िक्र किया गया हैं। कटाक्ष करते हुये, 1. वजन वाले हिस्से में सोमनाथ दरवाजे का पूरा वजन उनके ऊपर दिखाया गया हैं। 2. आदर्शवादिता : सामान्य नागरिक परिधान पहन कर शीशे के सामने निहारना और स्वयं को सैन्य वेषभूषा में सैनिक समझना । 3. स्थानीयता: भारत से वापस बुलाने पर दुखी होकर रोना और आँसू रुमाल से पोछना 4. सम्मान : हिन्दू देवता की पूजा करना। 5. तुलना : एलेनबरोग अपने दोनों हाथो में चार्ट पकड़े है बाए हाथ वाले में लिखा हैं कि "800 वर्षो का प्रतिशोध पूरा हुआ" वही दाए हाथ वाले में लिखा हैं "दो वर्षो का कुशासन पूरा हुआ" 6. हथियाने की प्रवृत्ति : एलेनबरोग को सोने के सिक्के से भरे बक्से के साथ दिखाया गया है जिसके ऊपर ग्वालियर लिखा हैं (यह 1843 में एलेनबरोग द्वारा ग्वालियर राज्य के कब्जे की तरफ इंगित करता है) 7. गोपनीयता : एलेनबरोग के हाथ जंजीर के द्वारा एक बड़े ताले से बंधे हुये है, यह उसकी प्रतिष्ठा की तालाबंदी की ओर इंगित करता है। 8. लड़ाकूपन : एलेनबरोग के दायी तरफ ब्रिटिश सरकार और बाई तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक अपनी ओर खींच रहे हैं। 9. भाषा : एलेनबरोग लिखते है, "मैं आया, मैंने देखा, मैंने जीता"। 9. यह एक प्रश्नवाचक है जिसका मतलब है एक प्रश्न जिसका उत्तर अभी तक नहीं मिला हैं, "क्या उसकी पद पर नियुक्ति रात्री भोजन के बाद हुयी थी या नहीं?" सौजन्य : https://wellcomecollection.org/works/xyzypzww

 DEBATE IN BRITISH PARLIAMENT
[5: We rule a multi-religious empire] But the charge against Lord Ellenborough is that he has insulted the religion of his own country and the religion of millions of the Queen's Asiatic subjects in order to pay honour to an idol. And this the right honourable gentleman the Secretary of the Board of Control calls a trivial charge. Sir, I think it a very grave charge. Her Majesty is the ruler of a larger heathen population than the world ever saw collected under the sceptre of a Christian sovereign since the days of the Emperor Theodosius. What the conduct of rulers in such circumstances ought to be is one of the most important moral questions, one of the most important political questions, that it is possible to conceive. There are subject to the British rule in Asia a hundred millions of people who do not profess the Christian faith. The Mahometans are a minority: but their importance is much more than proportioned to their number: for they are an united, a zealous, an ambitious, a warlike class.

[6: Brahminical idolatry is the worst of its religions] The great majority of the population of India consists of idolaters, blindly attached to doctrines and rites which, considered merely with reference to the temporal interests of mankind, are in the highest degree pernicious. In no part of the world has a religion ever existed more unfavourable to the moral and intellectual health of our race. The Brahminical mythology is so absurd that it necessarily debases every mind which receives it as truth; and with this absurd mythology is bound up an absurd system of physics, an absurd geography, an absurd astronomy. Nor is this form of Paganism more favourable to art than to science. Through the whole Hindoo Pantheon you will look in vain for anything resembling those beautiful and majestic forms which stood in the shrines of ancient Greece. All is hideous, and grotesque, and ignoble. As this superstition is of all superstitions the most irrational, and of all superstitions the most inelegant, so is it of all superstitions the most immoral. Emblems of vice are objects of public worship. Acts of vice are acts of public worship. The courtesans are as much a part of the establishment of the temple, as much ministers of the god, as the priests. Crimes against life, crimes against property, are not only permitted but enjoined by this odious theology. But for our interference human victims would still be offered to the Ganges, and the widow would still be laid on the pile with the corpse of her husband, and burned alive by her own children. It is by the command and under the especial protection of one of the most powerful goddesses that the Thugs join themselves to the unsuspecting traveller, make friends with him, slip the noose round his neck, plunge their knives in his eyes, hide him in the earth, and divide his money and baggage. I have read many examinations of Thugs; and I particularly remember an altercation which took place between two of those wretches in the presence of an English officer. One Thug reproached the other for having been so irreligious as to spare the life of a traveller when the omens indicated that their patroness required a victim. "How could you let him go? How can you expect the goddess to protect us if you disobey her commands? That is one of your North country heresies." 

पुरातत्व की दृष्टि से प्रभास पाटन क्षेत्र की अन्य हिन्दू ऐतिहासिक संरचनाए

 

गिरनार का यह वीडियो बहुत शानदार है

 1. ध्वस्त सूर्य मंदिर


यह सूर्य मन्दिर प्रभास पाटण के लगभग 4 किमी उत्तर में हिरण नदी के किनारे मीठापुर ग्राम में स्थित है, शीतला माता का मन्दिर भी नजदीक स्थित है। इसका निर्माण वर्ष 1350 ईसवी में हुआ था।


 मन्दिर सूर्य को समर्पित है, इसमे में एक विशाल अष्टकोणीय मंडप है जो चारों ओर से बंद है। मन्दिर का स्थापत्य बहुत शानदार और अति विकसित है, ऐसा प्रतीत होता है, कि इस मन्दिर का निर्माण दिल्ली सल्तनत के हमलो से पूर्व ही हुआ होगा।


यह आश्चर्य नहीं की मन्दिर के सूचना पट्ट पर मन्दिर के विध्वंस के बारे में कुछ नहीं लिखा


मन्दिर के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है


मन्दिर का बाँया हिस्सा अभी भी काफी सुरक्षित है


एवं मुख्य प्रवेश द्वार के चौखट की कलात्मकता विशिष्ट है, हालाँकि मुख्य द्वार ध्वस्त हो जाने के पश्चात दुबारा निर्माण होने के पूरे संकेत है


चौखट पर ऊपर नवग्रहों एवं गणेश जी की प्रतिमा विद्यमान है।


मुख्य दरवाजों की चौखट पर देवताओ, एवं अप्सराओ की प्रतिमाए लगभग नष्ट हो चुकी है




मन्दिर में पीछे से भी एक द्वार दिया गया है जो बाद का निर्माण है। अपने समय में मन्दिर का दृश्य बड़ा ही भव्य और मनोहारी होगा।


मण्डप की छत ढह चुकी है और मुख्य प्रतिमा भी अपने स्थान पर नहीं है, सामने के आलो में कुछ सूर्य प्रतिमाए अभी भी बनी हुयी है।


सामने के आलों में से एक सूर्य प्रतिमा कुछ हद तक सुरक्षित है

यह मन्दिर साफ तौर पर मुस्लिम आक्रमणकारियों के बर्बर हमलो का शिकार हुआ है, परंतु नगर से काफी दूर निर्जन स्थान में होने की वजह से और हिन्दू शृद्धालुओ द्वारा इसे पूरी तरह से परित्यक्त कर देने के कारण से यह स्थान भुला दिया गया और बाद के इस्लामिक हमलो की जद से बाहर ही रहा।

मन्दिर परिसर में बाहर पड़ी हुयी विभिन्न प्रतिमाए, इनमे से अधिकांश भगवान सूर्य की है


मन्दिर परिसर में बाहर पड़ी हुयी विभिन्न प्रतिमाए, इनमे से अधिकांश भगवान सूर्य की है


मन्दिर परिसर में बाहर पड़ी हुयी विभिन्न प्रतिमाए, इनमे से अधिकांश भगवान सूर्य की है

2. सूर्य मंदिर एवं सूर्य कुंड, त्रिवेणी संगम

सूर्य मन्दिर एवं कुण्ड को दर्शाता हुआ प्रभास पाटण का मानचित्र

नगर के पूर्व दिशा में त्रिवेणी संगम है जहाँ तीन नदियो का संगम होता है। (सरस्वती, कपिला, हिरण), यही पर पूर्व दिशा की ओर मुख किया सूर्य का एक प्राचीन मन्दिर है,


सूर्य मन्दिर के एक तरफ समुद्र की ओर कामनाथ महादेव का मन्दिर है, जो देखने से आधुनिक निर्माण लगता है

लेकिन इसका निर्माण जामी मस्जिद के नीचे दबे मन्दिर के बाद का प्रतीत होता है। मन्दिर निश्चित रूप से कुमारपाल के सोमनाथ मन्दिर के बाद का है।


अन्दर से भी कामनाथ महादेव मन्दिर में कुछ भी प्राचीन नहीं मिलता यह पुरातत्व की दृष्टि से महत्वहीन है


1900 ई० के इस फोटो में कामनाथ महादेव मन्दिर का कोई आस्तित्व नहीं दिखता, हालाँकि पीछे सूर्य मन्दिर का ध्वस्त शिखर अवश्य दिख रहा है

इसका स्थापत्य थानगढ़ (सुरेंद्रनगर) के सूर्य मन्दिर से मिलता जुलता है और ऐसा लगता है कि इसका निर्माण लगभग 1350 ईसवी में थानगढ़ के सूर्य मन्दिर से थोड़ा पहले हुआ था।


स्यकेस द्वारा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए 1869 ई० में लिया गया चित्र इस इमारत का सबसे पुराना चित्र है

शिखर का ऊपरी हिस्सा, मण्डप की छत और बाहर के बरामदे का हिस्सा गिर चुका है। ऐसा लगता है कि बरामदे की पहले भी कई बार मरम्मत हो चुकी है।

इस मन्दिर के चारो ओर प्रदक्षिणा पथ पर 3 आले बने हुये है, जिनमे प्रस्तर प्रतिमाए विद्यमान है, जिनमे से एक उत्तर में विष्णु लक्ष्मी, दक्षिण में ब्रह्मा सरस्वती और पश्चिम दिशा में शिव पार्वती की विखंडित प्रतिमाए है। प्रवेश द्वार के दोनों तरफ दो बड़ी प्रतिमाए है, उत्तर दिशा में ब्रह्मा की प्रतिमा हैतथा दक्षिण की तरफ एक देवी की खंडित प्रतिमा है। मन्दिर की बाहरी दीवारों पर ऊपर की तरफ दक्षिण दिशा में शिव की मूर्ति है, उत्तर और पश्चिम दिशा में क्रमश: महाकाली और ब्रह्मा अपनी पत्नी सहित है। दीवार पर यदा-कदा कुछ नाम भी उत्कीर्ण है। इस मन्दिर को भी अपवित्र किया गया है और बहुत कम उपयोग किया जाता है। हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) पृष्ठ 29-30





हेनरी कौसेंस के चित्र में भी मन्दिर के आसपास कोई खास निर्माण नहीं दिख रहा है मन्दिर ध्वस्त है और शिखर भी नहीं है, उस समय यह मन्दिर खण्डहर के रूप में ही था


दक्षिण दिशा में प्रवेश द्वार के नजदीक लगे स्तम्भ में एक अभिलेख उल्टा उत्कीर्ण है, जो इस बात का प्रमाण है कि इस हिस्से की मरम्मत पहले भी हो चुकी है। मण्डप की छत का भी पुनर्निर्माण मेहराबनुमा शैली में किया गया है, इस मेहराबनुमा संरचना में जिन स्तम्भो कर प्रयोग किया गया है वहुधा वे प्राचीन ही है, तहखाने में गरस्पति और कीर्तिमुख वाली आकृतियों को रोमन शैली के अश्वो से प्रतिस्थापित कर दिया गया है जो कि काफी बाद का कार्य लगता है।


वर्तमान में इस मन्दिर को आधुनिक निर्माणों के जाल ने घेरा हुआ है, मन्दिर अब बहुत संकुचित सी गली में स्थित है





इस मन्दिर के चारो ओर प्रदक्षिणा पथ पर 3 आले बने हुये है, जिनमे प्रस्तर प्रतिमाए विद्यमान है, जिनमे से एक उत्तर में विष्णु लक्ष्मी, दक्षिण में ब्रह्मा सरस्वती और पश्चिम दिशा में शिव पार्वती की विखंडित प्रतिमाए है। । मन्दिर की बाहरी दीवारों पर ऊपर की तरफ दक्षिण दिशा में शिव की मूर्ति है, उत्तर और पश्चिम दिशा में क्रमश: महाकाली और ब्रह्मा अपनी पत्नी सहित है।


मन्दिर काफी ऊँचाई पर बना है इसके आधार (plinth) पर नज़र डालिए






प्रवेश द्वार के दोनों तरफ दो बड़ी प्रतिमाए है, उत्तर दिशा में ब्रह्मा की प्रतिमा है

तथा दक्षिण की तरफ एक देवी की खंडित प्रतिमा है मन्दिर में लगी कुछ प्रतिमाओ पर गौर करने से ये किसी और मूल की प्रतीत होती है, प्रतिमा के मुकुट, भाव भंगिमा, ओंठ, एवं वस्त्रो पर ध्यान देने से इनका मूल स्थानीय नहीं लगता




दक्षिण दिशा में प्रवेश द्वार के नजदीक लगे स्तम्भ में एक अभिलेख उल्टा उत्कीर्ण है, जो इस बात का प्रमाण है कि इस हिस्से की मरम्मत पहले भी हो चुकी है। मन्दिर के मुख्य द्वार के निर्माण दुबारा से हुआ है और इसमे अन्दर की तरफ मेहराबनुमा तकनीकी का सहारा लिया गया हैं। जो इस बात का द्योतक है कि निर्माण 18वी या 19वी सदी का हो सकता है

जैसा कि हमने अन्य संरचनाओ में भी गौर किया है, इस संरचना का निर्माण पश्चिमी शैली से प्रभावित है, जाहिर है इसका निर्माण काफी बाद में अंग्रेज़ो के काल में हुआ हो

मण्डप की छत का भी पुनर्निर्माण मेहराबनुमा शैली में किया गया है, इस मेहराबनुमा संरचना में जिन स्तम्भो कर प्रयोग किया गया है वहुधा वे प्राचीन ही है, तहखाने में गरस्पति और कीर्तिमुख वाली आकृतियों को रोमन शैली के अश्वो से प्रतिस्थापित कर दिया गया है जो कि काफी बाद का कार्य लगता है।




स्तम्भ, कोष्ठक एवं आधार पर गौर कीजिये, हिन्दू स्थापत्य में इसका विशेष महत्व होता है

गर्भगृह के प्रवेश द्वार को सफ़ेद रंग से पोत दिया गया है, चौखट के दोनों ओर बनी प्रतिमाए घिस चुकी है


चौखट के ऊपर नवग्रह प्रदर्शित है





गर्भगृह में प्रतिमा नहीं है, हो सकता है कि मुस्लिम आक्रमण के दौरान इसकी प्रतिमा का विखंडन कर दिया गया हो, मूल प्रतिमा के स्थान पर सूर्य की एक छोटी सी  आधुनिक प्रतिमा लगी है, यह शायद किसी पालिया का टुकड़ा है, इसके अलावा कुछ और पालिया भी गर्भगृह में विराजमान है जो यह दर्शाती है कि मन्दिर मूल प्रतिमा से विहीन है

सूर्य की प्रतिमा किसी पालिया का या मन्दिर का हिस्सा लगती है

सूर्य कुंड काफी प्राचीन जलाशय लगता है, अवश्य ही इस कुण्ड के जल का प्रयोग मन्दिर में पूजा के लिए होता होगा



3. रुदरेश्वर महादेव


रुदरेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर सूर्य मन्दिर के समीप ही स्थित है। यह मन्दिर भी 13-14वी शताब्दी के आस पास का लगता है। मन्दिर का अवलोकन करने से पता चलता है कि यह बुरी तरह से ध्वस्त हो चुका था और शायद खण्डहरो के रूप में था। जिसका बाद में जीर्णोद्धार किया गया था। मन्दिर का आकार सामान्य ही है और छत नष्ट हो जाने के कारण बाद में गुम्बदाकार छत एवं पहले से ही मौजूद स्तम्भो पर मेहराबों का निर्माण करवाया गया है, हालाँकि यहाँ मेहराबों की मौजूदगी केवल दिखावे के लिए है, इससे मुख्य संरचना को कोई बल/सहारा नहीं मिल रहा है, ऐसी छद्म मेहराब संरचना हमने कुछ अन्य मस्जिदों में भी देखा है जिन्हे हिन्दू स्तम्भो से निर्मित किया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि आरंभिक मुस्लिम हमलो के दौरान यह मन्दिर नष्ट हो गया होगा जिसे फिर बाद में हिन्दुओ ने भी त्याग दिया या फिर मुस्लिमों ने मन्दिर को एक छोटी मस्जिद के तौर पर बदलने का प्रयास किया हो, फिलहाल इन सब के बारे में कोई टिप्पणी करना केवल अँधेरे में तीर चलाना ही होगा, इस मन्दिर पर भविष्य में और शोध करने की आवश्यकता है। हाल के वर्षो में मन्दिर का दुबारा जीर्णोद्धार करवाकार पूजा आरंभ कर दी गयी है।


सामने से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस मन्दिर का मण्डप ढह चुका है

मन्दिर के बाहरी दीवार पर कुछ कुछ स्थानों पर कलाकृतियों की संरचनाए है जो कि एक योजना में नहीं है

समय की मार के साथ-साथ काफी प्रतिमाए धुंधली पड़ गयी हैं, लेकिन निसन्देह इस मन्दिर का भी मरम्मत कार्य पिछली शताब्दी में हुआ लगता है

मन्दिर के अन्दर इन मेहराबनुमा संरचनाओ को देखिये, यह हिन्दू संरचना नहीं है बल्कि विशुद्ध इस्लामिक है

इसके अलावा हाल में ही इनकी दुबारा मरम्मत हुयी है जिसका प्रमाण यह सीमेण्ट का प्लास्टर है

गर्भगृह में शिवलिङ्ग काफी नया लगता है, इसकी प्रतिस्थापना अभी हाल में ही हुयी है, इसके अलावा पीछे की तरफ कुछ पालिया भी रखी हुयी है। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर पहले खण्डहर ही था, और निर्जन था। आधुनिक युग में इसका जीर्णौद्धार करके दोबारा पूजा आरम्भ की गयी है

इन प्रतिमाओ की स्थिति बहुत बुरी है, ऐसा प्रतीत होता है कि ये काफी लंबे समय तक उपेक्षा की शिकार रही है

4. वेनेश्वर महादेव


वेनेश्वर महादेव का मन्दिर नि:सन्देह एक प्राचीन धरोहर है। ऐसी मान्यता हैकि यह मन्दिर, गजनी के प्रभास पाटण पर आक्रमण के समय, किले के बाहर स्थित था। इस मन्दिर में राजपूत राजकुमारी वेणी प्रतिदिन शिव की पूजा करती थी। एक दिन जब राजकुमारी यहाँ पूजा के लिए आई तो गजनी के सैनिकों ने उनका अपहरण करने का प्रयास किया। ऐसा कहा जाता है कि तभी शिव लिंग दो भागों में फट गया और राजकुमारी इसके अन्दर समा गयी, इसलिए इस मन्दिर का नाम वेनेश्वर पड़ गया।



मन्दिर का निर्माण 13वी-14वी के दौरान हुआ होगा, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर का आधे से ज्यादा हिस्सा मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ दिया गया और इस जगह पर कोई मस्जिद/मज़ार बनाने का प्रयास हुआ होगा। मुस्लिमों की भावनाओ को ना उकसाने के मकसद से मन्दिर की बाहरी दीवार बिल्कुल सादा और कोरी और मूर्ति विहीन रखी गयी है। कालांतर में हिन्दुओ ने इस मन्दिर के चारो तरफ नयी संरचनाए खड़ी करके इसे पूरी तरह से ढँक दिया जिससे मन्दिर बाहरी हमलावरो को ना दिख सके। मन्दिर में मूर्तियाँ और शिवलिंग, हाल में ही प्रतिष्ठित किए हुये प्रतीत होते है। मन्दिर के समीप ही गुम्बदाकार संरचना बनी है जो निश्चित ही काफी बाद का निर्माण है।






 5. चंद्रप्रभास  जैन मंदिर (डेरासर) एवं पार्श्वनाथ मंदिर

>पाटन शहर में जैन धरोहरे किसी भी तरह से पहचान की मोहताज नहीं है। जैन धर्म के सबसे प्राचीन और सुंदर अवशेषों के तौर पर पार्श्वनाथ का पुराना मन्दिर, जामी मस्जिद (प्रभास पाटन संग्रहालय) के नजदीक उत्तर दिशा मे स्थित है। यह इमारत घने बसे क्षेत्र में गंदगी और बदबूदार स्थान पर छिपी हुयी है। इस इमारत की सबसे अनोखी बात मुख्य मन्दिर के चारों ओर छोटे-छोटे कक्षों वाले मन्दिर है। ऐसा लगता हैकि मुस्लिम मूर्तिभंजकों के भय की वजह से, जैसा कि हम अन्य जैन मंदिरों में भी देखते है, वे मन्दिर के गर्भगृह के नीचे एक और गर्भगृह बनवाते थे, जिसका प्रवेश बंद रहता था, जिससे उस गर्भगृह की उपस्थिति का भी किसी को पता न चल सके। बाद के मन्दिरो में ऊपरी और बाहरी हिस्से में किसी भी प्रकार की प्रतिमाओ की अनुपस्थिति, मुस्लिम समुदाय के क्रोध से बचने के लिए होती थी। मुख्य प्रवेश द्वार के सामने वाले बरामदे में काफी सुंदरता से तराशी गयी गुम्मद वाली छत है। हेनरी कौसेन्स की पुस्तक सोमनाथ एवं कठियावाड़ के अन्य मध्ययुगीन मंदिर (1931) पृष्ठ 30 पैरा 2



>प्रभास पाटण में चंद्रप्रभास  जैन धर्म का सबसे प्रसिद्ध जैन मंदिर है। हालाँकि इस क्षेत्र में और भी जिनालय है लेकिन चंद्रप्रभु उन सबमे सबसे महत्वपूर्ण है। मंदिर के अंदर भूतल में एक और गुप्त मंदिर है जो कि प्राथमिक गर्भ गृह है इसे मध्यकालीन मुस्लिम आक्रांताओ को ध्यान में रखकर बनवाया था, जिससे हमला होने की स्थिति पर वे ऊपर स्थित नकली गर्भगृह की प्रतिमा को तो नुकसान पहुँचा सके परन्तु मुख्य मूर्ति ना ख़ोज सके।

इस मंदिर का पुनरनिर्माण आधुनिक काल में ही हुआ है, लेकिन इस बात के काफी पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हैकि यहाँ पहले भी एक मंदिर रहा होगा, जिसे शायद मध्ययुग के दौरान इस्लामिक सेना ने ध्वस्त कर दिया।

विक्रम वर्ष 370 में श्री धनेश्वरीसूरिजी द्वारा "शत्रुंजय महात्म्य" (शत्रुंजय की महानता और महत्व) नामक रचना में इस तीर्थस्थल का उल्लेख किया गया है। पहले सहस्राब्दियों में, मंदिर को देवपाटन, पाटन, सोमनाथ, प्रभास, चंद्रप्रभा आदि के नाम से जाना जाता था। जैन अगम में "बृहत् कल्पसूत्र" के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ में इस तीर्थस्थल का उल्लेख किया गया है। जब 4 वीं शताब्दी में गैर-आर्यों द्वारा आक्रमणों के दौरान वल्लभीपुर शहर को नष्ट कर दिया गया था, तो एक संदर्भ उपलब्ध है, जिसमें कहा गया है कि अम्बादेवी आदि की मूर्तियाँ, वहाँ के मंदिरों से यहाँ स्थापित की गई थीं, जो आकाश से उड़कर आई थीं। इस तीर्थस्थल का 14 वीं विक्रम शताब्दी में रचित श्री जिनप्रभसुरिश्वरजी द्वारा "विविध तीर्थकल्प" में और विक्रम वर्ष 1361 में रचित श्री मेरुतुंगसुरसूरि द्वारा लिखित "श्री प्रबन्ध चिंतामणि" में भी उल्लेख है। ऐसा कहा जाता है कि गुजरात के राजा श्री सिद्धराज जयसिंह, मंत्री वास्तुपाल तेजपाल, पीठाधीश शाहशाह और श्रीश्री राजसी संघवी आदि ने इस तीर्थ के दर्शन किए। एक संदर्भ यह भी है कि कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य की सलाह पर राजा कुमारपाल ने यहां कई मंदिर बनवाए। यह कहा जाता है कि मोहम्मद गज़नी की अवधि के दौरान और उसके बाद मुस्लिम शासन के दौरान, इस मंदिर को भारी नुकसान पहुंचा था।

जैसा कि उपलब्ध शिलालेख से पता चलता है कि उदाहरण के तौर पर और विजयशिरसूरीश्वरजी के शिष्य श्री विजयसेनसूरीजी की सौम्य उपस्थिति में, विक्रम संवत 1666 में पौष शुक्ल 6 से माघ शुक्ल 6 के बीच की अवधि के दौरान, "अंजनशलाका" और अभिषेक के पाँच बार अनुष्ठान किए गए थे। विक्रम वर्ष 1876 में एक बार फिर से मंदिर का जीर्णोद्धार श्रीविजय जीतेंद्र सूरि जी की सलाह पर किया गया। विक्रम वर्ष 2008 में माघ शुक्ल 6 को पुन: जीर्णोद्धार किया गया। यह सारी जानकारी इस तीर्थ की प्राचीनता को स्पष्ट करती है। 




मन्दिर के इस मण्डप की इस छत को देखिये, मध्यकाल मे हिन्दू मंदिरों की छते कुछ इस तरह से सजी होती थी

चन्द्रप्रभास की प्रतिमा

6. अहिल्याबाई सोमनाथ मंदिर

इस नगर के कई नाम है। कोई इसे देवपट्टन, कोई प्रभासपट्टन और कोई पट्टन सोमनाथ अथवा सोमनाथ पट्टन भी कहता है। महाभारत में इसका नाम प्रभास पाया जाता है। यह स्थान काठियावाड़ में जूनागढ़ राज्य के अंतगर्त है। सोमनाथ के चारों ओर पत्थर की दीवार (शहरपनाह) बनी हुई है और उसमें कई फाटक है। पूर्ववाले फाटक का नाम नाना फाटक है। इस फाटक से लगभग 200 गज पश्चिम-उत्तर की ओर बस्ती के मध्य में सोमनाथ महादेव का नया मंदिर है। इसका निर्माण महारानी अहिल्या बाई ने सन 1783 ईसवी में करवाया था। मंदिर मध्य श्रेणी का बना हुआ है, अर्थात् न बहुत उँचा है और न बहुत नीचा। परंतु शिखरदार है। मूल मंदिर में शिवलिंग स्थापित है। उसके नीचे 13 फुट लंबे और उतने ही चौड़े तहखाने में सोमनाथ महादेव का लिंग है। उसमें जाने के समय 22 साढियाँ उतरनी पड़ती है। इस तहखाने में 16 खंभे है। खंभों के बीच में एक बड़े अर्धे पर बड़े आकार के शिव-लिंग है। पश्चिम की ओर पार्वती जी, उत्तर में, लक्ष्मी जी, गंगा जी ओर सरस्वती जी और पूर्व की ओर नदी है। यहाँ दिन रात दीपक जला करते है।

चारों कोनों की ओर खुला आँगन है । आँगन के पूर्व उत्तर के कोने के पास गणेश जी का छोटा मंदिर है । उत्तर द्वार के बाहर अघोरेश्वर का शिवलिंग है । स्वयं सोमनाथ के मंदिर के पूर्व की ओर एक बड़ा आँगन है। उसके चारों बगलों पर दोखण्ड के घर और दालान है। पूर्व की ओर सिंहद्वार और दक्षिण की ओर खिड़की है। यहाँ यात्रियों का नित्य आना जाना बना ही रहता है


मुख्य शिवलिङ्ग नीचे तहखाने में है, इसे मुस्लिम आक्रमणों के इतिहास को देखते हुये बनाया गया था

मुख्य शिवलिङ्ग जो मन्दिर के नीचे तहखाने में बना हुआ है

और यह शिवलिङ्ग मन्दिर के ऊपरी गर्भगृह में प्रतिरूप के रूप में स्थापित है जिसे मुस्लिम आक्रमणकारी को भ्रमित करने के लिए लगाया गया था

7. श्री परशुराम मंदिर

यह पवित्र स्थान त्रिवेणी संगम के समीप ही स्थित है, ऐसा माना जाता है भगवान परशुराम ने यहाँ पर कठोर तप किया था, जिससे प्रसन्न होकर भगवान सोमनाथ ने क्षत्रियों के विनाश के कारण उनके ऊपर लगे श्राप से मुक्त कर दिया था। यहाँ पर मंदिर का निर्माण आधुनिक है लेकिन दो प्राचीन कुंड बने हुये है।

9. श्री शशिभूषण महादेव एवं भीड़भंजन गणपति


ऐसे ही शिवलिंगों के वर्णन अल-बरूनी ने अपनी पुस्तक तहक़ीक़-उल-हिन्द में किया था

शशिभूषण मंदिर सोमनाथ मंदिर के पश्चिम में करीब 1-2 किमी समुद्र के किनारे ही स्थित है। कुछ इतिहासकारो का मत हैकि पहला सोमनाथ मन्दिर इसी जगह अवस्थित रहा होगा। मन्दिर के बारे में मान्यता यह है कि जरा नामक शिकारी ने यही पर भगवान श्रीकृष्ण के पैरो के अंगूठे पर शर चलाया था। इस मन्दिर का निर्माण तेरहवी सदी के सोमनाथ के मुख्यमहंत भावबृहस्पति द्वारा बनवाया गया था। लेकिन वर्तमान मन्दिर के ज्यादा प्राचीन नहीं है। हालाँकि आस पास प्राचीन मंदिरो के अवशेष अवश्य दिखते है।






10. श्री कृष्ण निजधाम प्रस्थान तीर्थ (देहोत्सर्ग तीर्थ)

यह स्थान हिरण नदी के किनारे, सोमनाथ मन्दिर से लगभग 1.5 किलोमीटर पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि श्री कृष्ण की अन्त्येष्टि इसी घाट पर हुयी  एवं यही से उन्होने निजधाम प्रस्थान किया था। उनके निजधाम प्रस्थान करने का विवरण श्रीमदभागवत, वरुण पुराण इत्यादि में वर्णित है। इस स्थान का विवरण ऐतिहासिक पुस्तकों में भी मिलता है। भगवान कृष्ण के पदचिन्ह, कहते है कि श्रीक़ृष्ण के बड़े भाई बलदेव जी भी यही से सर्प रूप में लोक से प्रस्थान कर गए थे, उनके सम्मान में यहाँ पर एक पवित्र गुफा है जिसका नाम दाऊजी की गुफा है। समीप ही गीता मन्दिर और लक्ष्मीनारायण मन्दिर भी बने हुये है, श्री कृष्ण के गीता रूपी संदेश 18 संगमरमर के स्तम्भो पर उत्कीर्ण है।



सोमनाथ : अनजाने और अनछुए पहलु भाग - 2 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये

 

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 संदर्भ:
 
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2. मीर ख्वावांद - रौजातुल सफा
3. अबू इशाक इब्राहीम बिन मुहम्मद अल-इस्ताकरी - अल-मसालिक वा-अल-ममालिक
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14. अमीर खुसरो - खज़ाइन अल-फ़ुतूह
15. जियाउद्दीन बरनी - तारीख-ए-फीरूज़ शाही
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17. Richard Davis ----- Lives of Indian images , Memories of broken idol
18. Irene A Bierman - The experience of Islamic art on the margins of Islam
19. Romila thapar - Somanatha the many voices of a history
20. Finbarr Barry Flood - Objects of translation : material cuture nad medieval Hindu Muslim encounter
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2-सोमनाथ पर पुस्तक: https://sufinama.org/ebooks/somnath-se-kaba-tak-muzaffar-hasan-ebooks
3-पड़ोसी देश पाकिस्तान: https://www.thenews.com.pk/tns/detail/559728-politics-reconstructed-memory
4-इकबाल ने गलती से ऐसे ही इशारे काबा की तरफ कर दिये : https://youtu.be/zbzekXFI6dM?t=83
5-बिल्हारी(जबलपुर) अभिलेख:http://inscriptions.whatisindia.com/kalachuri-chedi/kalachuri-chedi-part1/incriptionsofthekalachurisoftripuri34.html
6-महमूद का इस्माइलियो पर हमला सेकुलर था?:http://ismaili.net/heritage/node/10457
7-why India is a nation:http://sankrant.org/2003/10/why-india-is-a-nation/
8-जबूर –ए- आजम, अल्लामा इकबाल:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/00TW
9-अल्लामा इकबाल लाहौरी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/00UT
10-अल्लामा इकबाल लाहौरी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/012J
11-अमीर खुसरो दीवान:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/01AH?Query=%D8%B3%D9%88%D9%85%D9%86%D8%A7%D8%AA#0QTT
12-अमीर खुसरो दीवान:http://www.nosokhan.com/library/Topic/01CX
13-अनवरी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/04LU?Query=سومنات
14-खकानी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/09ZJ?Query=سومنات
15-ख्वाजू करमानी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/0APZ?Query=سومنات
16-सनाई:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/0EEJ?Query=%D8%B3%D9%88%D9%85%D9%86%D8%A7%D8%AA#6R7E
17-सनाई:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/0EFG?Query=%D8%B3%D9%88%D9%85%D9%86%D8%A7%D8%AA#6S5V
18-उबैय्यद जकानी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/0OYM
19-फार्रूखी सीस्तानी:http://www.nosokhan.com/Library/Topic/0SPP?Query=%D8%B3%D9%88%D9%85%D9%86%D8%A7%D8%AA#DH9N
20-फार्रूखी सीस्तानी:http://www.nosokhan.com/library/Topic/0SQ6
21- श्रेष्ठ शिव ज्योतिर्लिंगों :https://archive.org/details/2_20201208_20201208_1659/page/n573/mode/2up?q=%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5
22-शिव पुराण में सोमनाथ मन्दिर की पौराणिक कहानी:https://archive.org/details/2_20201208_20201208_1659/page/n599/mode/2up?q=%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5
23-The History of India, Volume 4, pg 180:https://archive.org/details/cu31924073036745/page/n193/mode/2up?view=theater
24-सोमनाथ से एक अभिलेख:https://archive.org/details/EpigraphiaIndicaVol1/page/n311/mode/2up
25-तारीख-ए-फरिश्ता खण्ड - 1:https://archive.org/details/HistoryOfTheRiseOfTheMahomedanPowerInIndiaVolume1/HistoryOfTheRiseOfTheMahomedanPowerInIndia-Volume-1/page/n101/mode/2up
26-फार्रूखी सीस्तानी:https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.446325/page/n25/mode/2up
27-शक-क्षत्रप के शिलालेखों के अनुसार शक महाक्षत्रप नहपाण :https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.56659/page/n77/mode/2up
28-महाभारत:https://archive.org/details/Mahabharata_with_Hindi_Translation_-_SD_Satwalekar/13%20Mahabharat%20Anusasana%20Parva%20-%20SD%20Satwalekar%201978/page/n223/mode/2up
29-स्कन्द पुराण में सरस्वती नदी के प्रभास क्षेत्र:https://archive.org/details/puran_skand/page/n943/mode/2up?q=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B8
30-शिव पुराण में सोमनाथ मन्दिर की पौराणिक कहानी:https://archive.org/details/SHIVPURANHINDI/page/n401/mode/2up?q=%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5
31-सोमनाथ ट्रैवल ब्लॉग:https://ashokkoul.blogspot.com/2014/01/the-somnatha-jyotir-lingam-temple.html
32-अमीर खुसरो:https://books.google.co.in/books?id=ju8xJ5JBXgsC&pg=PA457&lpg=PA457&dq=Happy+Hindustan,+the+splen-dour+of+Religion,+where+the+(Muslim+holy)Law+finds+perfect+honour+and+security&source=bl&ots=RwiHAt4hBf&sig=ACfU3U0As7DFOKHDRRty2lwFbfwy-tuXJA&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwiV9t2A6unvAhV6wzgGHWpEAxIQ6AEwA3oECAcQAw#v=onepage&q=Happy%20Hindustan%2C%20the%20splendour%20of%20Religion%2C%20where%20the%20(Muslim%20holy)Law%20finds%20perfect%20honour%20and%20security&f=false
33- सोमनाथ मन्दिर में मेघदूत-मण्डप:https://drive.google.com/file/d/138i-Ef96L0G67HWDwJjNAZxvqFkQ_KR9/view
34-वेरावल का अरबी अभिलेख :https://drive.google.com/file/d/1dsjJnPOqGT1F3xuFj_0f2hV17Kua9Swt/view?usp=sharing
35-सोमनाथ के पतन पर मेजर जे. डबल्यू. वॉटसन की लोकगाथा:https://drive.google.com/file/d/1neDzGqnmd8Y_7Jyv9Vjx1infRPjIPFfv/view?usp=sharing
36-कुमारपाल अभिलेख:https://drive.google.com/file/d/1PHusMayWT3D7gDKUZtvRvnWFxuMdkthD/view?usp=sharing
37-संस्कृत अभिलेख:https://drive.google.com/file/d/1yCKqExWsf25tqVA-4PrVZDQlKJbNVUi7/view?usp=sharing
38-चालुक्य स्थापत्य:https://en.wikipedia.org/wiki/Western_Chalukya_architecture#Later_enhancements
39-Familypedia on Somnath:https://familypedia.wikia.org/wiki/Somnath
40-औद्रे त्रश्के (Audrey Trushke):https://frontline.thehindu.com/arts-and-culture/interview-audrey-truschke-historian-academic-writer-aurangzeb-i-am-not-alone-in-refusing-to-sway-with-the-indian-political-winds/article33988717.ece?utm_source=vuukle&utm_medium=talk_of_town
41-रोमिला थापर फ्रंटलाइन आर्टिक्ल:https://frontline.thehindu.com/the-nation/article30257101.ece#!
42-फार्रूखी सीस्तानी:https://ganjoor.net/farrokhi/divanf/ghasidef/sh16/
43-Indian Express article on Somnath Temple/Babri Masjid:https://indianexpress.com/article/explained/somnath-temple-rahul-gandhi-babri-demolition-ram-rath-yatra-ram-mandir-ayodhya-verdict-hindutvain-nehru-sardar-patel-4971403/
44-प्रभास पाटण में चंद्रप्रभास:https://jainsite.com/jain-tirth/chandraprabhas-patan-tirth/
45-अमीर खुसरो:https://literature.fandom.com/hi/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8B_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%A
46-जफर खान की 1391 ईसवी में सोमनाथ फतह The Mir'at-i Ahmadi (The Political and Statistical History of Gujarat), chpt. 42 :https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D01901010%26ct%3D41%26rqs%3D415
47-THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 163:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D02003020%26ct%3D12%26rqs%3D66%26rqs%3D160%26rqs%3D205
48-खजाईनुल-फ़ुतूह:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D02003020%26ct%3D4%26rqs%3D1432
49-The Jawamiul-Hikayat wa Lawamiur-Riwayat, chpt. 136:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D02702010%26ct%3D135%26rqs%3D39%26rqs%3D63
50-Anecdotes of Aurangzeb – Jadunath Sarkar (1917:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D03002030%26ct%3D5%26rqs%3D437
51-Muntakhab-ut-Tawarikh, Volume 1, pg 27 :https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D03601021%26ct%3D59%26rqs%3D656%26rqs%3D681%26rqs%3D688
52-The Muntakhabu-’rukh, Volume 1, chpt. 8:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D03601021%26ct%3D7%26rqs%3D660%26rqs%3D762
53-तारीख-ए-फरिश्ता खण्ड 1 - अध्याय 24 The History of the Rise of Mohammedan Power in India, Volume 1, chpt. 24:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D06901021%26ct%3D23%26rqs%3D254
54-तारीख-ए-फरिश्ता में मुजफ्फर शाह प्रथम द्वारा सोमनाथ विध्वंस The History of the Rise of Mohammedan Power in India, Volume 4, chpt. 3:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D06901024%26ct%3D2%26rqs%3D86%26rqs%3D646%26rqs%3D735
55-तारीख-ए-फरिश्ता खण्ड - 4 अध्याय 4 The History of the Rise of Mohammedan Power in India, Volume 4, chpt. 4:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D06901024%26ct%3D3%26rqs%3D135
56-बुस्तान (रूपान्तरण ए. हार्ट. एडवर्ड्स-1911 A. HART. EDWARDS):https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D19002040%26ct%3D12%26rqs%3D2195
57-The History of India, Volume 1, pg 67:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201011%26ct%3D20%26rqs%3D22%26rqs%3D101
58-The History of India as told by its own historians, Volume 1, chpt. 27:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201011%26ct%3D26%26rqs%3D810%26rqs%3D827%26rqs%3D922%26rqs%3D931%26rqs%3D1017
59-The History of India, Volume 2, chpt. 115:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D114%26rqs%3D418%26rqs%3D462%26rqs%3D561%26rqs%3D618%26rqs%3D780%26rqs%3D792%26rqs%3D811%26rqs%3D852%26rqs%3D858%26rqs%3D875%26rqs%3D877%26rqs%3D965
60-तबाकत-ए-अकबरी:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D114%26rqs%3D418%26rqs%3D462%26rqs%3D561%26rqs%3D618%26rqs%3D780%26rqs%3D792%26rqs%3D811%26rqs%3D852%26rqs%3D858%26rqs%3D875%26rqs%3D877%26rqs%3D965
61-The History of India as told by its own historians, Volume 2, pg 522 appendix:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D131%26rqs%3D743%26rqs%3D805%26rqs%3D873
62-The History of India as told by its own historians, Volume 2, page 524 Appendix:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D132%26rqs%3D10%26rqs%3D45%26rqs%3D156%26rqs%3D265%26rqs%3D542%26rqs%3D577%26rqs%3D615
63-The History of India as told by its own historians, Volume 2, pg 192:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D46%26rqs%3D315%26rqs%3D330
64-The History of India, Volume 2, pg 249:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D60%26rqs%3D4%26rqs%3D18
65-The History of India, Volume 2, pg 270 तबकत-ए-नसिरी मिनहज-ए-सिराज:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201012%26ct%3D67%26rqs%3D257%26rqs%3D286
66-THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 43:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201013%26ct%3D11%26rqs%3D215%26rqs%3D462
67-THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 74:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201013%26ct%3D19%26rqs%3D576%26rqs%3D588%26rqs%3D601
68-THE HISTORY OF INDIA BY ITS OWN MUSLIM HISTORIANS , Volume 3, pg 85 तारीख-ए-अलाई - अमीर खुसरो:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201013%26ct%3D22%26rqs%3D372
69-The History of India, Volume 4, pg 166  हबीबू सियार - खुन्दमीर:https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201014%26ct%3D42%26rqs%3D624
70-The History of India as told by its own historians, Volume 4, pg 189, हबीबू सियार - खुन्दमीर :https://persian.packhum.org/main?url=pf%3Ffile%3D80201014%26ct%3D47%26rqs%3D413%26rqs%3D430
71-The Divine Tales : Somnath Temple:https://thedivinetales.in/somntah-temple-in-hindi/
72-The Road Diaries blog:https://theroaddiaries.in/2017/04/27/%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B8-%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82/4/
73-Times of India Somnath Ayodhya story hurts:https://timesofindia.indiatimes.com/india/somnath-to-ayodhya-story-of-historical-hurt-and-modern-response/articleshow/72000005.cms
74-मुस्लिम की बीबीसी उर्दू में लिखी पोस्ट:https://translate.google.com/translate?hl=en&sl=ur&u=https://www.bbc.com/urdu/pakistan-55572111&prev=search&pto=aue 
75-रोमिला थापर जी के फ्रंटलाइन में विचार:https://web.archive.org/web/20140413125007/https://www.hindu.com/fline/fl1608/16081210.htm
76-रोमिला थापर जी के इस विचार:https://web.archive.org/web/20140413125007/https://www.hindu.com/fline/fl1608/16081210.htm
77-सरदार बल्लभ भाई पटेल:https://web.archive.org/web/20140624023453/https://english.turkcebilgi.com/Sardar+Vallabhbhai+Patel
78-सोमनाथ विध्वंस:https://web.archive.org/web/20190614095933/http://www.thetinyman.in/2015/10/destruction-of-somnath-temple.html
79- टाइम्स ऑफ इंडिया का यह आर्टिक्ल अ:https://web.archive.org/web/20201217195118/https://timesofindia.indiatimes.com/india/somnath-to-ayodhya-story-of-historical-hurt-and-modern-response/articleshow/72000005.cms
80-अमीर खुसरो (A psychopath):https://web.archive.org/web/20210205121716/https://drishtikone.com/blog/2020/04/17/amir-khusrau-the-sick-bigoted-psychopath/
81-Desh Gujarat article on Somanth Aurangzeb:https://www.deshgujarat.com/2017/08/13/somnathseries-the-last-destruction-of-somnath-temple-and-gujarat-under-aurangzeb/
82-Encyclopedia on conference of birds:https://www.encyclopedia.com/arts/culture-magazines/conference-birds
83-अमीर खुसरो:https://www.google.co.in/books/edition/Bh%C4%81rat%C4%AB/iu1tAAAAMAAJ?hl=en&gbpv=1&dq=The+strong+men+of+Hind+have+been+trodden+under+foot+and+are+ready+to+pay+tribute.+Islam+is+triumphant&pg=PA182&printsec=frontcover
84-The Hindu Article:https://www.hindu.com/fline/fl1608/16081210.htm
85-प्रतिष्ठित मुस्लिम संगठन ई-दावाह कमेटी:https://www.islam-hinduism.com/somanatha-raided-mahmud-ghazni/
86-राम पुनियानी जी का यह लेख:https://www.milligazette.com/Archives/01122001/40.htm
87-Panjanya RSS article on Somnath:https://www.panchjanya.com/Encyc/2020/8/3/Jai-Somnath-Jai-Shree-Ram-.amp.html
88-सोमनाथ पर मार्क्सवादियो के विचारों का इस ब्लॉग:https://www.sabhlokcity.com/2014/06/what-is-the-truth-about-the-somnath-temple-and-mahmud-of-ghazniwhat-is-the-truth-about-the-somnath-temple-and-mahmud-of-ghazni/
89-Sabrang India on Sardar Patel somnath construction:https://www.sabrangindia.in/article/sardar-patel-not-nehru-dropped-proposal-reconstruct-somnath-govt-funds-gandhijis-suggestion
90-Edward FitzGerald [1889] द्वारा रूपांतरित पक्षियों की संसद (Bird Parliament):https://www.sacred-texts.com/isl/bp/bp01.htm
91-Slideshare Somnath Temple:https://www.slideshare.net/Cutegalrj/somnath-temple-81980502
92-Thoughtco Mahmud of Ghazni:https://www.thoughtco.com/mahmud-of-ghazni-195105
93-Chapter 14 - The origin of the Jyotirliṅga Somanātha:https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/shiva-purana-english/d/doc226515.html
94-गोगा बाबा की कथा का वर्णन:https://www.youtube.com/watch?v=0L3rr98TrIc
95-पाकिस्तान का ऑपरेशन सोमनाथ :https://www.youtube.com/watch?v=3C03yLsJjV4
96-Deepti Bhatnagar visits Somnath Jyotirlinga:https://www.youtube.com/watch?v=8py_ZMZe8ag
97-गजनवी के बारे अफगानियों:https://www.youtube.com/watch?v=BlbWfeG5Nc8
98-सुदूर अरब में भी यह गाथा बड़े गर्व से सुनी और सुनाई जाती हैं:https://www.youtube.com/watch?v=CuJErEF8jeI
99-मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद):https://www.youtube.com/watch?v=ebiUwf6MSY0
100-मुस्लिम धर्मगुरु मुफ्ती अजैर (फरवरी 2021):https://www.youtube.com/watch?v=FIX4GrSrcpk
101-सोमनाथ मंदिर और परिसर के दर्शन:https://www.youtube.com/watch?v=Gdd5AANlLOg
102-अरबी तारीखों में भी सोमनाथ का विध्वंस:https://www.youtube.com/watch?v=h0cT1aCgjDI
103-मंतीक-उल-तय्यर (पक्षियों की सभा/संवाद):https://www.youtube.com/watch?v=HJgNrGoRwT4
104-प्रभास के शिवलिङ्ग:https://www.youtube.com/watch?v=iBDgidT9s40
105-मौलाना तारिक जमील कोहिनूर और खिलजी कों नेक हुक्मरान बताते हुये:https://www.youtube.com/watch?v=lJRrIcAoFjA&t=146s
106-सोमनाथ में स्वर्ण दान वर्तमान में भी जारी हैं:https://www.youtube.com/watch?v=mpCM2FVmqWE
107-ध्वस्त सूर्य मंदिर:https://www.youtube.com/watch?v=mQ6YBx3UJpk
108-शोभा सोमनाथ की धारावाहिक (सोमनाथ महालय उपन्यास पर आधारित):https://www.youtube.com/watch?v=N4GZ5AJtsSM&list=PLW7F7et-xq-Qp6KsoOYfuaxfp40YMD2Za
109-एक मुस्लिम द्वारा गजनी का महिमामंडन:https://www.youtube.com/watch?v=nrnxzf5mkN0
110-गैरतमंद (स्वाभिमानी) मुसलमान बुतशिकन (मूर्तिभंजक) हैं बुतफ़रोश(मूर्तिविक्रेता) नहीं:https://www.youtube.com/watch?v=oLrFGfWBaBQ&t=114s
111-सोमनाथ का वर्णन एक मुस्लिम के मुँह से (उर्दू):https://www.youtube.com/watch?v=PbOlISI6pog
112- सूफियों की गजलों और शायरियों:https://www.youtube.com/watch?v=tujMHEtUQrI
113-अत्तार की अन्य कविताए (फ़ारसी:https://www.youtube.com/watch?v=ysUbo3uvsv4&list=RDysUbo3uvsv4&start_radio=1&t=302
114-नेहरू के सोमनाथ मंदिर को बनने से रोकने:https://www.youtube.com/watch?v=ywmyYSbHxwM
115-प्रतिमाभंजन एक देवतुल्य कार्य:https://youtu.be/0O-U8Y8ekIM?t=51
116-सोमनाथ का वास्तुशिल्प:https://youtu.be/8W1V62nJ5m8?t=12
117-शिव पुराण :https://youtu.be/aYqb3gMDgz0?t=226
118-अल्लामा इक़बाल - साकीनामा - बाल-ए-जिबरिल:https://youtu.be/fLs7H_zd3AE?t=327
119-रोमिला थापर जी और तीस्ता सीतलवाड़ जी के बीच:https://youtu.be/HdX0Xe6fC14?t=50
120-श्रीमदभागवत महापुराण:https://youtu.be/jA04tUS0JJ8?t=43
121-Somnath Ka But Jo Hawa Main Udha Karta:https://youtu.be/jFt1NUwjNIs?t=230
122-गिरगिट कों मारने का इस्लामिक आदेश और कबूतर के प्रति प्यार  (मुहम्मद के फरमान पर) :https://youtu.be/lJRrIcAoFjA?t=339
123-राम पुनियानी जी की इतिहास की जानकारी:https://youtu.be/NlmcUEQ7vzY?t=19
124-अल्लामा इकबाल मेरी नबा एक शौक से सोमनाथ:https://youtu.be/UzXvptnggoY?t=53
125-अल्लामा इक़बाल - ज़ौक़ ओ शौक सोमनाथ:https://youtu.be/VLKgNUGEBuE?t=95
126-Skand Puran Ch 431.1: सूत जी द्वारा प्रभास खण्ड का आरम्भ तथा पुराणों, उपपुराणों का वर्णन.:https://youtu.be/VM4YNYSp5hs?t=26
127-प्रभास पाटन क्षेत्र की अन्य हिन्दू ऐतिहासिक संरचनाए:https://youtu.be/XURl3hOLdeI?t=2
128-SKANDA PURAN COMPLETE PART 27 स्कन्द पुराण हिंदी में: https://youtu.be/zah9pWD0cbA?list=PLdA0Q7oOOPyCYI4CeCsSE8vZzJA0HRlI9&t=8883
129-Somnath Gates Controversy : https://tapioca.co.in/somnath-gates
130-Ellenboroughs Somnath Temple : https://frontline.thehindu.com/the-nation/ellenboroughs-somnath-temple/article10036332.ece#!
131-British Empire Ellenborough : https://www.britishempire.co.uk/forces/armycampaigns/indiancampaigns/afghanistan1839/lordellenborough.htm
132-The Somnath Gate episode : http://dsal.uchicago.edu/reference/gazetteer/pager.html?objectid=DS405.1.I34_V02_537.gif
133-Lord Ellenborough : https://en.wikipedia.org/wiki/Edward_Law,_1st_Earl_of_Ellenborough

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